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'मंगल' भाव से रचें सुख व शांति का सतयुग

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प्रज्ञा पाठक

हाल ही में मंगलमूर्ति श्री गणेश को हमने विदाई दी है। दस दिवसीय आयोजन में सहोल्लास हिस्सा लेकर खूब मंगल गीत गाए, मंगल श्लोकों के साथ हवन किए और मंगल आरती गाई। मूर्ति विसर्जन के साथ ही हम अपनी दैनंदिनी को जीने लगे, लेकिन क्या ये विचार किया कि मंगलमूर्ति अपने मंगल भाव से हमें क्या सिखाना चाहते हैं? उनकी किस प्रेरणा को लेकर हम अपना जीवन सार्थक कर सकते हैं? 
 
वस्तुतः जिस प्रकार भगवान श्री गणेश विघ्नों का हरण कर मंगल का प्रसार करते हैं, उसी प्रकार हम भी शेष समाज के कष्ट, तकलीफों को दूर करने में यथाशक्ति मदद कर सुख, संतोष का सृजन कर मंगल भाव रच सकते हैं। 
 
ये तय बात है कि जब हमारा मन अपनी पूरी ऊर्जा के साथ परमार्थ में जुटता है, तो समाज में सकारात्मकता का आलोक प्रसारित होता है और हमारे भीतर आत्मतोष की अद्भुत अनुभूति प्रवाहित होती है। इस प्रकार 'पर' और 'निज' दोनों स्तरों पर सत् का प्रकाश होता है, तब मंगल घटता है। 
 
हम चाहें, तो ये मंगल रोज हमारे जीवन में घट सकता है। बस, तनिक सोच बदलने की आवश्यकता है।
 
शुरुआत घर से ही की जा सकती है। अपने परिजनों के साथ प्रेमपूर्वक होकर रहें। विविध घरेलू मुद्दों पर मतभेद भले हों, लेकिन मनभाव स्नेहसिक्त ही रहे। दृष्टियों में पृथकता रहे, किंतु आत्माओं में एकता हो। बुद्धि अपनी निजी सोच से संचालित हो, लेकिन दिल की लगाम भावनाओं के स्नेहमयी हाथों में रहे। सोचिए, ऐसे सुंदर वातावरण में चारों ओर मंगल की सुवास प्रसारित होने में क्या कोई बाधा है? नहीं ना! 
 
परिजनों के अतिरिक्त घरेलू कार्यों के लिए यदि कोई सहायक/सहायिका हमने रखा है, तो उसकी समस्याओं को हल करने में यथासंभव मदद की जा सकती है। उदाहरण के लिए, उसके बच्चों को निःशुल्क पढ़ाकर शिक्षित बनाने में, विभिन्न सरकारी योजनाओं के अंतर्गत उसे लाभान्वित करने की दिशा में योग्य मार्गदर्शन व सहयोग देकर उसे आर्थिक रूप से सबल बनाने में, अपने अतिरिक्त साधन (जैसे भोजन, वस्त्र आदि) उसे खुले मन से देकर उसका जीवन थोड़ा सहज बनाने में सहयोग किया जा सकता है। ये सभी काम निःशुल्क हैं। बस, सहायता का भाव हो और थोड़ा समय निकाल लें, तो ये संभव है। यदि हम ऐसा करते हैं, तो ये परोपकार हमारी मानवीयता को अस्तित्ववान बनाकर मंगल भाव की सृष्टि करता है। 
 
अपने पड़ोसियो के प्रति सदय रहकर भी हम इसी भाव को आगे प्रसारित कर सकते हैं। यदि उनके हर सुख-दुःख में शामिल रहकर उन्हें अपनत्व का अनूठा सुख दिया जाए, तो आपके घर के साथ-साथ आसपास का समग्र क्षेत्र मंगल की सुगंध से महक उठेगा।
 
अपनी सोच और मन को जरा-सा और विस्तृत कर लें, तो समाज के वंचित तबके की बेहतरी के लिए भी थोड़ा बहुत किया जा सकता है। अनाथालयों, वृद्धाश्रमों, निर्धन परिवारों के लिए धन अथवा वस्तु दान के माध्यम से मदद की जा सकती है। यदि दान की स्थिति ना हो, तो शिक्षा दान किया जा सकता है। पर्व आदि जैसे कुछ अवसरों पर थोड़ा समय उनके साथ गुज़ार कर भी हम उनके अभावग्रस्त जीवन में कुछ पल खुशियों के ला सकते हैं। छोटा ही सही मगर एक इंद्रधनुष मंगल का ऐसे कार्यों से भी निर्मित किया जा सकता है। 
 
समाज के साथ-साथ देश के लिए भी अल्प प्रयासों से हम इस शुभधारा को आगे बढ़ा सकते हैं। अपने कार्यस्थल पर ईमानदारी पूर्वक कार्य करके, रिश्वत को इनकार करके, समय पर कर चुकाकर, यातायात के नियमों का पालन कर, जल संरक्षण कर, बिजली का अपव्यय रोककर, अन्न की बर्बादी पर नियंत्रण कर, सार्वजनिक संपत्तियों की समुचित रक्षा कर, राष्ट्रीय स्मारकों को क्षति न पहुंचाकर, सैनिकों व उनके परिवारों के लिए अपनी कमाई का एक अंशदान देकर, राष्ट्रगीत, राष्ट्रगान और राष्ट्रीय प्रतीक चिन्हों का समुचित आदर करके हम अपने राष्ट्र को मंगल भाव से अभिषिक्त कर सकते हैं। 
 
पर्व मनाना परंपरा का पालन है, किंतु उसके निहितार्थ को अपने आचरण में जीना पर्व को सार्थकता प्रदान करता है। बेहतर होगा कि हम इस सोच का श्री गणेश गणपति जी के पावन पर्व से ही करें। उनके विदाई-उपहारस्वरूप मंगल भाव को अपनी भावना और बुद्धि अर्थात् दिल और दिमाग दोनों का आभूषण बनाएं। पहले स्वयं के लिए अच्छा सोचें और करें, फिर अखिल ब्रह्मांड के लिए शुभ का सृजन करें।
 
आइए, मंगल ही सोचें, मंगल ही करें और जब दृष्टि से लेकर सृष्टि तक मंगल जिजीएगी, तो सुख व शांति का सतयुग साकार होकर ही रहेगा। 

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