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ये दुनिया पहले से भी अधिक खूबसूरत हो जाएगी, सहभाव अपना लीजिए

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प्रज्ञा पाठक

प्रज्ञा पाठक
 
एक लंबे अरसे के बाद वो अपनी मौसी के घर रात रुकी थी। रात को अपने मौसी, मौसाजी, पापा, मम्मी, भाई, भाभी और बच्चों को एक साथ भोजन करते देखकर उसे रूहानी खुशी हुई। उसने कहा -" अरे, वाह, कितना सुंदर दृश्य है। "
 
मौसी उसकी ये बात सुनकर यह बोलते हुए हंस दीं कि "क्यों, तूने सभी परिजनों को साथ भोजन करते हुए का ये दृश्य पहले कभी नहीं देखा क्या? ये तो रोज़ ही होता है। "
 
उनकी इस बात ने दर्द की अनगिनत लहरें उसके मन में उभार दीं। वैवाहिक जीवन के 16 वर्षों में ये सामान्य-सा सुख भी उसे हासिल नहीं हुआ था। प्रेमपूर्वक साथ खाने का सुख।
 
ये दृश्य किसी एक परिवार का नहीं बल्कि आजकल के अधिकांश एकल परिवारों का है। सच तो यह है कि एकल परिवारों की बढ़ती दर चिंता का उतना बड़ा विषय नहीं है, जितना इनमें बढ़ती परस्पर दूरियां हैं। एक ही घर में रहकर भी सभी के भोजन के समय या तो परिस्थितिवश अलग होता है अथवा साथ भोजन करते हुए भी उसी दौरान टीवी या अपने-अपने मोबाइल में व्यस्तता सहभोज का सुख नहीं देती। 
 
वस्तुतः भारतीय संस्कृति की प्रकृति सहजीवनमुखी है।वह सभी के साथ जीने और उसी में सुख पाने के दर्शन पर आधारित है। वैसे भी अकेले रहकर एक संत आनंद में रह सकता है, किंतु गृहस्थ नहीं। गृहस्थ को तो परिवार का साथ अनिवार्य रूप से चाहिए। विवाह साथ पाने के लिए ही तो किया जाता है। पति को पत्नी का, पत्नी को पति का, दोनों परिवारों को परस्पर एक दूसरे का, फिर भविष्य में संतति का।
 
 जीवन में प्रगति करने के लिए अपनों का साथ, सहयोग और समर्थन अत्यंत आवश्यक है। पर्व आदि मनाने के लिए भी अपने जरूरी है। सामाजिक आयोजन हों या नितांत पारिवारिक कार्यक्रम, अपनों के बिना नहीं होते। कुल जमा यह कि सहभाव भारतीय परिवारों की नींव है और इससे दूर होना अपनी पहचान खोना है। 
 
नौकरी या उच्च अध्ययन के संदर्भों में प्रायः बच्चे घर छोड़कर बाहर जाते हैं और फिर विवाह के बाद उनकी दुनिया अलग ही हो जाती है। माता पिता अपने गृहनगर में और बच्चे देश में ही कहीं और अथवा विदेश में। 
 
बहरहाल, यदि आप परिस्थितिवश एकल परिवार में हों,तो भी थोड़े प्रयास से सहभाव को कुछ अंशों में तो जी ही सकते हैं। सुबह बच्चों के स्कूल और आपकी नौकरी/व्यवसाय के कारण भोजन का समय सभी का अलग - अलग हो जाता है। लेकिन कोशिश करें कि शाम को समवेत भोज हो और उस समय टीवी,मोबाइल आदि बिल्कुल बंद हों। वस्तुतः इस प्रकार भोजन एक साथ करने से प्रेम भी बढ़ता है और संवाद भी। 
 
इसे ऐसे समझें कि भोजन की मेज पर जब परिवार के सभी सदस्य एकत्रित होते हैं, तब निश्चित रूप से उनके मध्य अनेक विषयों पर चर्चा होती है, कई समस्याओं पर बातचीत होती है, परस्पर भावनाएं कही, सुनी और समझी जाती हैं। इससे आपस में स्नेह - संवर्धन होता है। रिश्तों में मजबूती आती है और आत्मिक बल बढ़ता है। 
 
ये तय बात है कि रिश्ता कोई भी हो, उसे दृढ़ता देने के लिए उसे समय देना पड़ता है। निश्चित रूप से जब हम साथ समय व्यतीत करते हैं, तो अधिक निकटता से एक दूसरे को जान पाते हैं। फिर परस्पर भावनाओं के आदान प्रदान के साथ एक दूसरे की समस्याओं को जब जानते हैं, तो उन्हें हल करने की दिशा में सम्मिलित रूप से प्रयास करते हैं। इससे रिश्ता मजबूत होता है। 
 
उदाहरण के लिए, यदि पत्नी को कोई समस्या हो और पति उसके समाधान के लिए उसके साथ प्रयासरत हो जाए तो पत्नी का नैतिक मनोबल बढ़ जाता है। ठीक यही स्थिति यदि पति के साथ हो तो पत्नी का सहयोग उसे  भीतर से मजबूत बना देता है। 
 
इसी प्रकार एक दूसरे की आवश्यकताओं को जानने के लिए भी साथ समय बिताना जरूरी है। चाहे यह समय भोजन की मेज पर व्यतीत हो,कहीं घूमने जाने पर हो, पिकनिक मनाने पर हो या फोन पर हो। 
 
तरीका कोई भी अपनाया जा सकता है, मगर सहभाव किसी न किसी रूप में आपके जीवन में उतरना जरूरी है। यही एक दूसरे के संबंध को मजबूत करता है क्योंकि तब हम न सिर्फ स्वयं को बल्कि अपने साथ रहने वाले परिवार के हर सदस्य के अंतर्बाह्य को जान पाते हैं और यह जानना ही परिवार में सहभाव की एक मजबूत बेल डाल देता है जो निरंतर अगली पीढ़ी में भी इन्हीं संस्कारों के साथ फलती फूलती जाती है। 
 
यदि परिवारों में सहभाव हो, तो धीरे धीरे समाज भी उसी रंग में रंगने लगता है क्योंकि परिवार से समाज और समाज से राष्ट्र बनता है। परिवार का सहभाव जब समाज पर प्रभाव डालता है, तो क्षुद्र जातिगत भेदभाव समाप्त हो विशुद्ध मानवता का प्रसार होता है। चारों ओर स्नेह, सहयोग और सहकार की निर्मल गंगा प्रवाहित होने लगती है। समाज की यह पूतकारिता अग्रप्रसारित होते हुए संपूर्ण राष्ट्र को आप्लावित कर उसे विश्व के मानचित्र में उस श्रेष्ठ स्थान का अधिकारी बनाती है, जहाँ से वह शेष विश्व के लिए परम आदर व अनुकरण का विषय हो जाता है। 
 
सच तो यह है कि सहभाव में वह शक्ति है, जो सुख-दुःख के बीच निरंतर संचालित हमारे इस जीवन को सहज आनंद से पूर्ण बना सकता है क्योंकि सुख के दिनों को ये अधिक आमोदपूर्ण बनायेगा और दुःख के समय को दृढ़ता के साथ शीघ्र काटने में समर्थ बनायेगा। इसलिए सहभाव को आज से, अभी से अपने जीवन का मूल मंत्र बना लीजिये और फिर आप पाएंगे कि ये दुनिया पहले से भी अधिक खूबसूरत हो गई है। 

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