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इतनी मनहूसियत कहां से लाते हैं ये लोग??

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डॉ. छाया मंगल मिश्र

सौ गुना बढ़ जाती है खूबसूरती केवल मुस्कुराने से, फिर भी बाज नहीं आते लोग बुरा सा मुंह बनाने से। एक कार्यक्रम में जाना हुआ जहां परिवार के लोग ख़ुशी से आपस में मुलाकात कर रहे थे। कोरोना काल में कटे वे दिन शायद कुछ लोगों को तो हंसी-ख़ुशी की अहमियत समझा गए पर कुछ अभी भी मनहूसियत को चेहरे पर ऐसे चिपका कर घूम रहे थे जैसे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। पैदाईशी मनहूसियत इनके चेहरे से टपकती रहती है। मनहूसियत और इनका नाता ऐसे जुड़ा होता है जैसे ‘फेविकॉल का पक्का जोड़। 
 
उन्हें लगता है कि वे ऐसी मनहूसियत ओढ़े रखते हैं तो ज्यादा जिम्मेदार और गंभीर प्रवृत्ति के दिखते हैं। भौंहें ऊंची चढ़ा के, मुंह लटका के, पलकों को बोझिल सा करने का ढोंग कर के, फटी-फटी आंखों से लोगों को चिढ़ते हुए ऐसे देखना मानो वो मुस्कुराते चेहरे के साथ या हंसते-ठहाके के साथ यदि जी रहें हैं, मेल मुलाकात करते है तो सबसे घटिया और निकृष्ट प्राणी हैं। 
 
उनके लिए उत्सव, आनंद के मौके, उत्साह-उमंग कुछ भी हो कोई मायने नहीं रखते, मनहूसमारे ये लोग ‘सड़ियल हैं हम सदा के लिए’ टैग लाइन को अपनी ‘लाइफ लाइन’ बनाए रहते हैं। उन्हें खुश मिजाज जिंदादिल लोगों से ‘अपरिभाषित’ जलन रहती है जिसकी बू से वे आस-पास का वातावरण प्रदूषित करते रहते हैं। मस्त रहने वाले लोगों का गाहेबगाहे अपमान करने से भी इन्हें कोई परहेज नहीं होता। इतने से भी ये संतुष्ट नहीं होते तो ये उनकी बुराई का पुलिंदा ले कर बैठ जाते हैं हर आने जाने वाले के सामने और मन की सडांध उगलते रहते हैं। 
 
यदि बहू-बेटियों की खनकदार हंसी ठिठौली इनके कानों में पड़ जाए तो निर्लज्ज, बेशर्म की उपाधि के साथ उनकी खुशियों का कबाड़ा करने की जी तोड़ कोशिश करते रहते हैं। मौत-मरण, गमी, अफ़सोस, खेद, दुखद मौकों की बात छोड़ दें तो बाकी मौकों पर मनहूसियत को अपशकुन ही माना जाना चाहिए। मनहूसियत किसी खास प्रजाति की बपौती नहीं है। यह स्त्री-पुरुषों पर सामान रूप से संक्रमण करती है। ये जब इंसान को जकड़ती है तो हंसी, खुशमिजाजी इसकी कट्टर शत्रु हो जाती है। दिलोदिमाग में केवल नकारात्मकता का जाल फैला होता है। वाचा और वाणी जहरीली हो जाती है। आंखें हमेशा शक्की, संदिग्ध सी नजरें रखने लगतीं हैं। ये खडूस लोग मस्तमौला रहने वाले इंसानों का चरित्रहनन भी बड़ी आसानी से कर सकते हैं। 
 
 “ये वे लोग होते हैं जो सगाई की बात पक्की करने शगुन ले के जाते हैं पर व्यवहार ‘सूतक’ जैसे करते हैं। मानो उठावने में आए हों.”
 
छोटी सी अनिश्चित जिंदगी है, हिसाब की सांसें हैं। धडकनें भी बेवफा हो जातीं हैं कभी भी। इन्हें ख़ुशी से जियें। हंसे, खिलखिलाएं। खुशियां लपक के ले लें।  ‘मनहूसियत को ठेंगा दिखाएं’...

बच्चों से सीखें मासूम जिंदगी जीना.. .. क्रूरता न करें अपने अनमोल जीवन के साथ। सुख-दुःख आते जाते रहते हैं पर जिंदगी की घड़ी में बना समय नहीं बदलता. बंद घड़ी भी दो बार तो समय सही बताती ही है तो क्यों न हम भी इसे हमेशा दस बज कर दस मिनिट पर ही बनाए रखने की कोशिश करें 7 बज कर 25 मिनट पर इसे रोक कर अपने और दूसरों के जीवन का सत्यानाश न करें....  

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