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सोशल मीडिया पर औरतों पर भद्दी टिप्पणियां

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डॉ. छाया मंगल मिश्र

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सोशल मीडिया वास्तविक में कितना सोशल है कहा नहीं जा सकता। बहुत-सी अच्छाइयों के बावजूद इसमें कई सारे ऐसे लोगों का जमावड़ा है, जो उनकी मानसिक दिवालियेपन की खुले आम प्रदर्शनी लगाता है। पिछले दिनों की बात है एक फोटो वायरल हुई जिसमें उम्र में अंतर से एक नवविवाहित जोड़ा था। कम से कम उनकी वेशभूषा से तो यही लग रहा था। उस पर आएं कमेंट्स में...
 
- दुनिया कोरोना से परेशान है और चाचा नई फॉरचुनर ले आएं।
 
- कोरोना संकट काल में छोरे साइकिल नहीं कसवा पा रहे, उधर काकाजी ने सीधे मर्सिडीज कसवा ली, वाह इसे कहते हैं किस्मत।
 
यहां वधु ‘मर्सिडीज और फॉरचुनर’ नाम से संबोधित हो रही है। ये तो केवल बानगी है। ऐसे कई टिप्पणियां जिनकी तुलना वस्तुओं से, जानवरों से और भी कई नामों से की गई हैं केवल उनका निशाना औरत है। बेमेल, बेजोड़ शादियों के फोटो लगा कर उन पर भद्दे व अश्लील कमेंट व कैप्शन लिखना इनकी कौन-सी मर्दानगी का प्रदर्शन है, मेरी समझ से परे है। ये तुलना गाड़ियों से क्या दर्शाती है औरतें चलाने की ‘चीज’ हैं? वाहन हैं? लक्झरी सवारी? या आपकी नंगी खोटी नीयत?

 
यही नहीं एक और फोटो में एक लड़की अपने नन्हे बच्चे को दोनों पैरों के बीच में दबा कर उसके शौच जाने के बाद उसे धुला कर साफ कर रही है। जैसे की अमूमन हम भारतीय माएं अपने देसी अंदाज में किया करतीं हैं। उसके फोटो को भी गंदे कैप्शन और कमेंट्स के साथ जब मजाक बनाया तो इन जैसे लोगों की बुद्धि पर बेहद शर्मिंदगी हुई। मन में आया पूछूं कि यदि कभी तुम्हारी मां ने भी तुम्हें ऐसे नहीं धुलाया होता तो जो मल आज तुम्हारे दिमाग में भरा है, वही नीचे भी अब तक तुम्हें सड़ा गया होता। जैसे तुम्हारा दिमाग सड़ चुका है।
 
 
और तो और अभी कोरोना काल में जब मौत सबके जीवन द्वार पर दस्तक दे रही है तब तीन झोन घोषित किए गए। सभी जानते हैं, उसमें भी बेहद मांसल देह वाली, पारदर्शी साड़ी के साथ में, गहरे कटे हुए गले की कटिंग व बाहों के बिना वाले ब्लाउज पहने खूबसूरत-सी महिला का फोटो तीन रंगों के कपड़ों में डाला। ‘रेड, ऑरेंज, ग्रीन।’

 
कमेंट और कैप्शन में सरेआम आमंत्रित किया गया कि कौन-सा झोन चाहिए? आश्चर्य! सभी को तीनों झोन अलग-अलग समय पर चाहिए थे। वासना का कीड़ा इनके दिमाग को दीमक की तरह खा रहा है। औरत कोई भी हो, कैसी भी हो, जिंदा-मुर्दा इनके बाप की बपौती है। ये तो सिर्फ सामान्य उदाहरण हैं जो मैं यहां दे रही हूं। मामला तो इससे भी बदतर है। सोशल मीडिया में महिलाओं की दुर्गति ही है।
 
 
क्या हक है आपको किसी के बारे इस तरह बोलने का? किसने दिया ये हक? होते कौन हैं इस तरह से बोलने वाले हम औरतों के लिए। औरतों की कोख से पैदा होने वाले, औरत की अस्मिता से खेलते हुए किस पौरुष की अभिव्यक्ति करते हैं? मान लें ये कहीं आपके घर-परिवार की हों तो आपको कैसा लगेगा? ये और कुछ नहीं वैचारिक पराजय और मानसिक हताशा की अभिव्यक्ति का माध्यम है, जो इस तरह प्रकट होता है।
 
 
हम औरतों की ये कमजोरी है कि इन हिंसक और नंगी मानसिकता वाले पुरुषों से डरने लगती हैं। पर ये कायर पुरुष निर्भय स्त्रियों से डरते हैं।
 
 
यहां अमृता प्रीतम जी की बातें बिलकुल सटीक बैठतीं हैं- ‘मर्द औरत के साथ अभी तक केवल सोना ही सीखा है। जागना नहीं, इसलिए मर्द और औरत का रिश्ता उलझनों का शिकार रहता है। भारतीय मर्द अब भी औरतों को परंपरागत काम करते हुए देखने के आदि हैं। उन्हें बुद्धिमान औरतों की संगत तो चाहिए होती है। लेकिन शादी के लिए नहीं। एक सशक्त महिला के साथ की कद्र करना उन्हें आज भी नहीं आया है।’

 
महिलाओं के खिलाफ जो जहर उगला जाता है वो वही पुरुषवादी मानसिकता है जिससे आज तक ये समाज मुक्त नहीं हो पाया है। उन्हें लगता है कि सोशल मीडिया केवल इनका है कुछ भी कर सकते हैं। यदि किसी महिला ने हिम्मत की तो उसके खिलाफ अभद्र और अश्लील टिप्पणी का अंबार लगा दिया जाता है। कोई भी क्षेत्र इससे बचा नहीं है। धार्मिक, आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक सभी में महिलाओं के लिए पूर्वाग्रहों का दल-दल तैयार होता है। औरतों के चरित्र का कच्चा कागज इनके हाथ कभी भी पुर्जे-पुर्जे किया जा सकता है। पर हमें इनके दिए हुए चरित्र प्रमाण-पत्र की कोई आवश्यकता नहीं है और न हीं जिंदगी के दस्तावेजों पर इनके हस्ताक्षरों की।
 
 
आंकड़े बताते हैं कि डेटा रिपोर्ट की डिजिटल 2020 इंडिया रिपोर्ट के अनुसार भारत में 40 करोड़ सोशल मीडिया यूजर्स जनवरी 2020 तक हैं। 27% लोगों तक इनकी भारत में सीधी-सीधी पहुंच है। यूजर्स में अप्रैल 19 से जनवरी 20 के बीच 13 करोड़ की वृद्धि हुई है। ऐसा मानना है कि 22% की बढ़ोतरी और होगी यूजर्स संख्या में तीन सालों में। (आंकड़े इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन और नीलसन द्वारा किए गए सर्वे के आधार पर हैं)।

इतने बड़े इस बाजारू आभासी दुनिया में ये जो इज्जत के ठेकेदार हैं ये सभी ‘शशि थरूर’ की किस्मत से जलते हैं। न मानें तो आप अधिकांश उनके फोटो के साथ में कुंठाग्रस्त टिप्पणियां देख सकते हैं। ये लोग अधिकतर फेक अकाउंट/प्रोफाइल रखते हैं, जिससे इन्हें इज्जत का भय नहीं रहता। पीठ पीछे के खेल हैं सो आंखों की शर्म नहीं। आंखों का कॉटेंक्ट नहीं सो शर्म भी नहीं।

 
भारत में नवंबर 2019 तक के आंकड़ों के अनुसार महिलाओं और पुरुषों के बीच की सामाजिक खाई व सोशल खाई सोशल मीडिया पर साफ दिखाई देती है। सोशल मीडिया के सारे प्लेटफार्म मिला दें तो औसतन 65%पुरुष और 35%महिलाएं एक्टिव हैं। शहरी आंकड़ा अनुपात में 60 फीसदी बनाम 40 का है। ग्रामीण क्षेत्रों में आंकड़ा 70 बनाम 30 का जाता है।
 
दूसरा कारण बचे-खुचे तथाकथित आधुनिक होने के आडंबर ने पूरा कर दिया। स्वाभिमान से भटकी हुई अपनी झांकी प्रस्तुत करने वालों ने खुद ही ऐसे लंपटों को आमंत्रित कर लिया। ‘टिकटॉक’ जैसे एप्प ने कीड़े दल दिए। छुप-छुप कर अपनी अतृप्त नाजायज इच्छाओं को पूरा करने का कर्म भी हमें ले डूबा और जैसा कि हर मामलों में है कि हमारे में संगठन शक्ति का जो अभाव कूट-कूट कर भरा है, उसका सीधा-सीधा फायदा ऐसे लोग उठाते हैं। 
 
मैंने तो कई अच्छे पदों पर काम करने वाले, बुद्धिजीवी कहलाए जाने वाले, समाज में सम्मानित होने वाले लोगों को भी इस जमात में शामिल देखा है। अपनी बीबी को सार्वजनिक रूप से परोसने वाले, पड़ोसनों से इश्क लड़ाने की कामना करने वाले, औरतों को केवल मनोरंजन का साधन समझने वाले ‘विद्वान् पुरुषों’ को भी जब हम ऐसा देखते विचार व्यक्त करते देखते हैं तो सिवाय उनके घरों की महिलाओं पर तरस खाने के, और कुछ नहीं कर सकते।

 
न जाने क्यों इस मानसिकता के बीमार लोगों के लिए मुझे साहिर लुधियानवी का यह गीत याद आता है जो ऐसे ही लोगों की मानसिकता को नंगा कर औरत की दर्दनाक व्यथा बयां करता है- (साधना फिल्म का गीत) फुरसत में ये गीत जरूर सुनिएगा। जिसकी कुछ लाइनें हैं-
 
औरत ने जन्म दिया मर्दों को, मर्दों ने उन्हें बाजार दिया।
 
जब जी चाहा मसला कुचला, जब जी चाहा दुत्कार दिया।
 
 
जिन होठों ने इनको प्यार किया, उन होठों का व्यापार किया।
 
जिस कोख में इनका जिस्म ढला, उस कोख का कारोबार किया।
 
जिस तन से उगे कोंपल बन कर, उस तन को जलिलोखार किया।
 
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं, 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)

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