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social media में ज़हर फैलाते लोग : मुख पर मीठे, मन के कड़वे

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डॉ. छाया मंगल मिश्र

जब द्वेषी, हितैषी बनने का नाटक करें-
 
अचानक सोशल मीडिया पर रिश्तों के उलटफेर देखने को मिले। सोशल मीडिया में कई रिश्ते जुड़े और मिले हैं तो कई ने बदनीयती से रिश्तों में सेंध लगाने के लिए इसका इस्तेमाल किया है। हुआ यूं की एक दिन अचानक बेहद करीबी की पोस्ट पर मेरी नजर रुकी। उस पर किए कमेंट्स ने भी मेरा ध्यान अपनी और खींचा। वो उनकी भाभी की सगी बहन थी। 
 
वो बहन जो कभी अपनी सगी बहन के सुख-दुःख में शामिल नहीं हुई। हमेशा अपनी बहन को कमतर मान कर खुद को सुपर समझती रही। बरसों बरस बीत गए अपनी बहन तो छोड़, बड़ी होने के नाते कभी उसने अपना बड़प्पन उसके परिवार के लिए भी नहीं रखा। वही बहन आज उसी छोटी बहन के देवर व अन्य परिजन की फ्रेंड लिस्ट में घुस कर अनर्गल, जहरीले, बेतुके कटाक्ष भरे कमेंट्स किए जा रही थी। 
 
अरे भाई जब इतने बरस में तुमने जब कोई रिश्ता नहीं निभाया तो अब उस परिवार में दोस्त बन कर घुसने का क्या मतलब है तुम्हारा? यदि इतने बरस से आपकी बहन और उसके परिजन से जब कोई नाता नहीं रहा था तो उनके परिजनों में घुसना साफ तौर से आपकी बदनीयती दिखाता है वो भी तब जब आपकी बहन के लिए आज भी आपके अंतर्मन में द्वेष का उतना ही जहर भरा है। 
 
समय ने कोई बदलाव नहीं किया। वरना दुनिया इतनी छोटी तो नहीं कि आपको केवल अपनी बहन के घर वाले ही मिले दोस्ती करने को। यदि ऐसा था ही तो उनके दुःख-सुख में उनके लिए ही आ जाते कभी। नहीं जी, इन्हें तो हितैषी होने का चोला जो पहनना है। वो तो भला हुआ जो उनके देवर ने बात और साजिश को तुरंत समझा और भावी बड़े मन-मुटाव से निजात पाई। ऐसा आपके साथ भी होता होगा। तरीके अलग हो सकते हैं और लोग व रिश्ते भी। यह केवल एक उदाहरण है।
 
ऐसा नहीं है कि सोशल मीडिया के कारण या वजह से ये शुरू हुआ है। आदमजात पैदाइश के साथ छलकपट का अंश अपने साथ ले कर आता है। बस अंतर इतना है कि कहीं कम कहीं ज्यादा। ऐसे द्वेषी हितैषियों को पहचानना आसान काम नहीं है।केवल अंदाजे, अनुभव से  कोशिश ही की जा सकती है। जैसे-
 
मधुतिष्ठति जिव्हाग्रे,हृदये तु हलाहलं
 
ऐसे लोगों के मुख में तो शहद जैसी वाणी होती है लेकिन हृदय में हलालल विष भरा हुआ होता है।
 
किस्सा याद आ रहा है कि मेरी एक दोस्त की तीन बहनें थीं। सुंदर, सुशील व उस जमाने में अच्छी पढ़ी-लिखी। कई लड़के उन्हें पसंद करते। प्रस्ताव आते तब दोस्त की मां अपनी बहनों और उनकी बहुओं को सर्वेसर्वा बना कर ले जातीं। बात भी लगभग तय हो जाती। पर दो तीन बाद प्रस्तावकों की ओर से ही इंकार आ जाता। बात समझ नहीं आती। 
 
पर कुछ समय बाद पता लगा कि वो बहनें व बहुएं जिन्हें हितैषी समझ वो ले जाती रहीं वे ही बाद में जा कर उनके घर व बेटियों की खूब बुराई कर आतीं थीं जिससे सामने वाला बिदक जाता था। क्योंकि रिश्ता तो आपस में सगा ही था सो झूठ तो नहीं ही होगा। ऐसा उन प्रस्तावकों को लगता जो की सामान्य समझ से ठीक ही था। परन्तु वास्तव में ऐसा था नहीं। 
 
उनका द्वेष ही था जो उनसे यह करवाता था। जबकि दांतकाटी रोटी के रिश्ते थे। लड़कियों की अच्छे घरों में शादी होना उन्हें गवारा नहीं था। कारण का तो पता नहीं क्यों पर जब असल बातें सामने आईं तो दोस्त की मां और सदस्यों को विश्वास करना कठिन हो गया कि काम व बात बिगाड़ने वाले उनके अपने ही हैं। जो दिनरात साथ रहा करते हैं। सभी सदमें में आ गए। कहा गया है न-
 
भूयोsपि सिक्त:पयसा घृतेन,न निम्बु वृक्ष मधुरत्व मेति।
 
ऐसे दुष्टों की कितनी भी सेवा व सहायता क्यों न करो वे अपनी आदतें नहीं छोड़ते। ठीक वैसे ही जैसे कि घी और दूध से सींचे जाने के बाद भी कड़वी नीम का वृक्ष मीठा नहीं होता।
 
ऐसे ही जहां आप नौकरी करते हैं वहां भी ऐसे लोगों की कोई कमी नहीं है। छोडिए,बल्कि आपने आस-पास भी आज कोई हितैषी है वो कब द्वेषी बन आपको ‘डस’ कर चला जाए मालूम ही नहीं चलता। ऐसे लोग किसी भी हद तक जा सकते हैं। बस आपको पहचानने की देर है। इनकी कुछ खास पहचान होती है। ये बात अलग है कि अपवाद सब जगह मौजूद होते हैं। इनकी बातों की प्रस्तुती बेहद दमदार होती है। पर रग-रग में आपके प्रति द्वेष व धोखा भरा होता है। इर्ष्या से जलते रहते हैं और आपको पता तक नहीं लगने देते। यदि एक बार भी आपके साथ धोखा हो जाए तो आप तुरंत उनका साथ छोड़ें क्योंकि-
 
परोक्षे कार्यहंतारं, प्रत्यक्षे प्रिय वादिनां,वर्जयेत् तादृशं मित्रं,विष कुंभं पयो मुखं।
 
सामने बैठ कर मीठी बातें बोलने वाला और पीठ पीछे अपने कार्य का नुक़सान या निंदा करने वाला कोई पाखंडी मित्र हो तो उसे त्याग देना चाहिए क्योंकि वह विष से भरे हुए ऐसे घड़े के समान होता है जिसके मुख पर दूध लगा हो।
 
कौरव-पांडवों की कहानी तो सभी को मालूम है। सबसे अधिक राम को प्रेम करने वाली कैकेयी क्षण में मन को मलिन कर बैठी। कुंती कर्ण से बचे पुत्रों के प्राणदान मांगने पहुँच गईं। जयचंद को कौन भुला सका है? गाली के रूप में जयचंद नाम इस्तेमाल होता है। गद्दारों से तो जमाना भरा पड़ा है। ब्रूटस द्वारा जूलियस सीजर की हत्या हो या जयचंद की गद्दारी विश्वास घात के उदाहरण दुनिया भर में पाए जाते हैं। शल्य ने भी कर्ण का सारथी होते हुए उसका मनोबल तोड़ने का ही काम किया था।
 
मेरी पड़ोसन की बेटी को ससुराल वाले घसीटते हुए लाए और उसके अतीत के ढेर सारे प्रश्न शादी के दस वर्ष बाद करने लगे। सभी हक्के-बक्के थे। अच्छा भला जीवन चल रहा था फिर अचानक क्या हुआ? पता लगा एक गुमनाम पत्र पहुंचा था। जिसमें उसके पुराने प्रेम का जिक्र था। उसके साथ ही कई और मनघडंत किस्से। लिखाई मिलाने पर  सभी बेहद शर्मिंदा हुए। जानते हैं कौन निकला? उसकी सगी बड़ी भाभी। जिसको उसका आना-जाना अखरता था। और नंदोई का ननद को इतना प्यार करना और परवाह करना जलन और इर्ष्या का कारण था।

जबकि उसी भाभी को वो हमेशा मां समान आदर और प्यार करती थी। पूरा परिवार अपराधी की तरह खड़ा था। शर्म से गड़े जा रहे थे सभी। बड़ी मुश्किल से ससुराल पक्ष समझा और शांति हुई। पर अब दाम्पत्य प्रेम मुरझा चुका था। अपनी भाभी की नादानी का फल अब उसे पूरी जिंदगी भुगतना था।
 
जिंदगी ऐसे रिश्तों के खट्टे-मीठे, कड़वे-कसैले, जहरीले अनुभवों से हमेशा अमना सामना होता है। कौन है असली, कौन है नकली पता ही नहीं चलता। केवल हम तो इतना ही कह सकते हैं कि क्या कहिए ऐसे लोगों को जिनकी फितरत छुपी रहे, नकली चेहरा सामने आए असली सूरत छुपी रहे...

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