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थाली के रंग के साथ बदलता सेहत का ढंग

हमें फॉलो करें थाली के रंग के साथ बदलता सेहत का ढंग
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पूजा सिंह

अगर आप दिल्ली-मुंबई जैसे किसी मेट्रो में रहते हैं या फिर किसी राज्य की राजधानी या अन्य बड़े शहर में तो इस बात की पूरी संभावना है कि विभिन्न भारतीय व्यंजनों के अलावा चाइनीज फूड, कॉन्टिनेंटल खाने, थाई डिशेज और रशियन सलाद का स्वाद भी ले चुके होंगे।
 
परंतु क्या आपने सोचा है कि आपके आसपास रहने वाले कुछ लोगों के भोजन और पोषण में किसी वक्त बेहद कुछ दिलचस्प चीजें शामिल रही होंगी?
 
क्या आपने आपने 'चकौड़ा भाजी' का नाम सुना है? कुल्थी की भाजी का? बांस की भाजी का नाम? शायद आपने इन तीनों ही भाजियों का नाम नहीं सुना होगा जबकि ये सभी बहुत लंबे समय तक हमारे आदिवासी समुदाय की खान-पान की परंपरा का अहम अंग रही हैं।
 
मंडला जिले के एक दूरदराज गांव की रहने वाली परधान आदिवासी महिला जानकीबाई (82) अगर हमें न बतातीं तो हम शायद जान ही नहीं पाते कि कई जगह यूं ही खरपतवार की तरह उग आने वाला चकौड़ा या पालूत पशुओं की प्रिय बांस की कोंपल कभी मनुष्यों के खाने का अभिन्न अंग हुआ करती थीं। महुए से बने विभिन्न व्यंजन जैसे महुए का लाटा और हलवा भी कमोबेश इसी श्रेणी में आते हैं।
 
चकौड़ा भाजी तो अपने पोषण मूल्य और फ्लोराइड से निपटने की अपनी क्षमता के कारण नए सिरे से पहचान बना रही है लेकिन हमारी पारंपरिक थाली में से ढेर सारी सामग्री गायब हो चुकी है, जो अब शायद कभी वापस न आए।
 
वह सितंबर की एक दिलचस्प सुबह थी, जब हम मंडला जिले में घुघुरा गांव की बुजुर्ग जानकीबाई के घर पहुंचे। एक दिन पहले उन्होंने हमसे वादा किया था कि वे खोजबीन कर हमें अपना पारंपरिक खाना खिलाएंगी। हमारे सामने जो थाली रखी गई, वह वाकई चकित करने वाली थी। दरअसल, मैं उसमें रखीं चीजों में से एक भी पहचान नहीं पा रही थी।
 
जानकीबाई ने बताया कि उन्होंने मुझे चकौड़े की भाजी, जुवार की रोटी, कुटकी का भात, महुए का लाटा, महुए की बर्फी, अमड़ा की चटनी और पिहरी नामक स्थानीय मशरूम की सब्जी खाने के लिए दिया है। हाजिरजवाब परधानों के मिजाज की तरह ही रंग-बिरंगी थाली थी वह। हमारे साथ गए स्वयंसेवी कार्यकर्ता निरंजन टेकाम ने बताया कि इस थाली की रंगीनियत की तरह ही इसका स्वाद और इसकी पौष्टिकता का भी कोई तोड़ नहीं है।
 
चकौड़ा भाजी खाने में मेरी हिचकिचाहट को देखकर उन्होंने मुझे बताया कि यह भाजी केवल मॉनसून के मौसम में होती है और कैल्शियम और मैग्नीशियम जैसे खनिज तत्वों से भरपूर होती है। मुझे याद आया कि इसी इलाके में 2 साल पहले जब मैं फ्लोराइड पर काम कर रही थी तो राष्ट्रीय जनजातीय स्वास्थ्य शोध संस्थान के उपनिदेशक तपस चकमा ने मुझे बताया था कि कैसे चकौड़ा भाजी और मुनगे यानी सहजन की मदद से इस इलाके के लोगों में फ्लोराइड का प्रभाव कम करने में मदद मिली।
 
जानकीदेवी ने बताया कि वे खुद अब महुए के अलावा इनमें से किसी चीज का सेवन नियमित रूप से नहीं करतीं। वे नाराजगीभरे स्वर में कहती हैं कि वे इस अनाज की पौष्टिकता से परिचित हैं लेकिन 1 रुपए किलो गेहूं और चावल ने उनके पूरे समाज को बरबाद कर दिया है। उन्होंने कहा कि कोदो का भात बनाकर महिलाओं को जचगी के दौरान खिलाया जाता था, क्योंकि इसकी तासीर गर्म होती है और महिलाओं की शारीरिक रिकवरी बहुत तेज होती है।
 
हमें खाने के साथ एक गरमा-गरम सूप भी परोसा गया था जिसे जानकीदेवी 'पेज' कह रही थीं। 'पेज' के बारे में ज्यादा जानकारी मांगने पर हमारे साथी निरंजन ने बताया कि विभिन्न अनाजों को कूटकर नमक के पानी में उबाल लिया जाता है। इसे ही 'पेज' कहा जाता है। एक जमाने में जब आदिवासी कई-कई दिनों के लिए जंगल में जाया करते थे तो यह उनका सहारा हुआ करता था, क्योंकि जंगल में खाना लेकर जाना संभव नहीं था और यह पेज खाने और पानी दोनों का काम करता था।
 
मुनगे की पौष्टिकता से तो हम शहरी लोग भी परिचित हैं लेकिन 'बांस की भाजी' का नाम हमारे लिए नया था। जानकीबाई ने बताया कि बांस की कोंपल की भाजी शारीरिक कमजोरी दूर करने में मददगार साबित होती है। इसे जचगी के दौरान प्रसूता स्त्रियों को खिलाया जाता है। इससे उनकी भूख बढ़ती है और वे ज्यादा भोजन लेकर जल्द स्वास्थ्य लाभ कर पाती हैं।
 
महुआ भी परधान आदिवासियों की खाद्य प्रणाली का अहम अंग रहा है। महुए से शराब तो बनती ही है इसके अलावा महुए के आटे की रोटी, महुए का लाटा-ठेकुआ, महुए का तेल, महुए का हलवा, महुए की बर्फी आदि अनेक ऐसे व्यंजन हैं, जो आदिवासी समुदाय सदियों से खाता आया है।
 
गांव की सरपंच लक्ष्मीबाई वरकड़े, जो तकरीबन 40 साल की हैं, कहती हैं कि उनके देखते ही देखते खान-पान में बहुत बदलाव आ गया। वे अपने बचपन में खाई गई कनेरा भाजी, कनकौआ भाजी, खुटनी भाजी, चैज भाजी आदि का जिक्र करती हैं जिन्हें नई पीढ़ी ने देखा भी नहीं है। वे अपनी मां को याद करके कहती हैं कि उन्होंने कभी अस्पताल का मुंह नहीं देखा। बीमार पड़ने पर वे आसपास रहने वाले किसी बैगा वैद्य को याद करती थीं, जो आसपास की चीजों के इस्तेमाल से ही उन्हें ठीक कर दिया करता था।
 
कुछ आधुनिकता के प्रभाव और काफी हद तक शासन की नीतियों ने परधान आदिवासियों को उनके पारंपरिक खान-पान से दूर कर दिया है। इसका नतीजा उनके स्वास्थ्य पर पड़ रहे असर के रूप में भी सामने आ रहा है। परधानों में सिकल सेल, डायबिटीज और फ्लोरोसिस जैसी बीमारियां देखने को मिल रही हैं, जो आज से 3-4 दशक पहले नजर नहीं आती थीं।
 
बहरहाल, खान-पान को लेकर बढ़ती जागरूकता के इस दौर में कुछ हद तक चीजों की वापसी हुई है लेकिन ज्यादातर चीजें अब बूढ़ी परधान महिलाओं की स्मृतियों में ही बची हैं। अगर इनका दस्तावेजीकरण नहीं किया गया तो वे तब तक ही हमारे साथ हैं, जब तक ये जीवित हैं।
 

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