लीडिया एविलोव से माफी के साथ...दिल्ली में विश्व पुस्तक मेले की शुरुआत ने एक बार फिर मुझे अपनी जिंदगी में पुस्तकों की अहमियत की तरफ झांकने का मौका दिया। शुरुआत तो बचपन से ही हो गई थी। यूं भी अचानक ही, बिना किसी प्रयास के..सुदूर देहाती इलाके में बचपन और जवानी के शुरुआती दिन गुजरे। शहरी संस्कृति में रचे-पगे आज के अभिभावकों जैसे मेरे माता-पिता नहीं हैं, लिहाजा क के कबूतर और एक इकाई एक सिखाने वाली पाठ्यपुस्तकों के अलावा उनकी तरफ से पढ़ने के लिए दूसरी किताब नहीं मिली..फिर भी पढ़ने का शौक लगना था तो लग गया।
पुस्तक मेला ने उसी अतीत की तरफ झांकने का मौका दिया तो लीडिया एविलोव की याद आ गई...मशहूर रूसी रचनाकार लीडिया के मशहूर लेखक अंतोन चेखव के साथ गहरे रिश्ते रहे..अपने उस रिश्ते को लेकर उन्होंने एक संस्मरणात्मक पुस्तक लिखी है, जिसका हिंदी अनुवाद है-मेरी ज़िंदगी में चेखव। अपनी जिंदगी की रपटीली राह में पुस्तकों की भूमिका पर सोच-विचार के दौरान इस किताब का ही शीर्षक याद आया और फिर इस संस्मरण का भी शीर्षक उसी तर्ज पर आ गया..मेरी जिंदगी में किताब...
बाबा मेरे पढ़ने के शौकीन थे..पिछली सदी के साठ के दशक में उनके असामयिक निधन ने हमारे परिवार को तोड़कर रख दिया था..उनकी याद परिवार को खूब आती थी...इसलिए उनसे जुड़ी चीजें अलगनी पर टांग कर या घर के रैक पर बक्सों में बंद करके रखकर एक तरह से उन्हें भुला दिया गया था। उनमें से एक बक्स में उनकी सदरी, उनके खादी के जवाहर जैकेट जैसे नफीस कपड़े थे तो बाकी के तीन बक्सों में उनकी खरीदी किताबें, जिसमें योग वशिष्ठ, महाभारत, रामायण, सुखसागर, प्रेम सागर आदि जैसे धार्मिक ग्रंथ थे तो कुछ उपन्यास भी थे, जैसे वह पथ बंधु था, प्रेमचंद की कहानियां, हिंदी कहानियों का एक संग्रह, जिसका शीर्षक अभी याद नहीं है। जिसमें प्रेमचंद की नशा, जयशंकर प्रसाद की आकाशदीप, निराला की श्रीमती गजानन शास्त्रिणी, विनोद शंकर व्यास की कहानी प्रोफेसर भीमभंटा राव, विश्वंभर नाथ शर्मा की ताई की कहानियां थीं।
कहानियां तो और भी थीं, लेकिन उनकी अब याद नहीं। हुआ यह कि चौथी-पांचवीं की पढ़ाई करते वक्त कोर्स के अलावा पढ़ने का चस्का लग गया। रोज नई-नई किताबें खोजता। गर्मियों की छुट्टियों में आसपास के परिवारों के लोग अपने बच्चों के साथ कलकत्ता, चितरंजन, नागपुर आदि से गांव लौटते तो उनके बच्चों के हाथों में नंदन, चंदामामा और गुड़िया जैसी पत्रिकाएं होतीं। उनमें पौराणिक, ऐतिहासिक और परीकथाएं छपी होतीं। रंगीन रेखाचित्र के साथ छपी ये कहानियां मेरे मन को ललचातीं और मैं उन्हें पढ़ने के लिए उन बच्चों के पीछे लरियाया रहता। उन बच्चों के लिए वे पत्रिकाएं जैसे कारू का खजाना होतीं थीं। इसलिए वे खुद को मेरी तुलना में बेहतर ही मानते..बहरहाल इन्हीं कश्मकश और पढ़ने की उद्दाम लालसा की वजह से मुझे अपने घर की अलगनी पर रखे बक्सों की ओर ध्यान गया कि शायद इन बक्सों में भी किताबें ही हों...बक्से खुले और उनमें किताबें मिलीं तो अपनी खुशी का पारावार नहीं रहा।
किताब पढ़ने की ललक ने तो एक दौर में पागल भी बना दिया..लेकिन एक चीज मैंने पाया है..जब भी जिंदगी में हताश या निराश हुआ, जब भी ज़िन्दगी से हारा, परेशान-हैरान हुआ, पुस्तकों की ही शरण में गया। ऐसे हर मौके पर उन्होंने कभी सखाभाव से तो कभी मां बनकर, बिना भेदभाव के हमेशा थपकी दी, प्यार दिया, स्नेह दिया। उनके दुलार-पुचकार ने ज़िंदगी की रपटीली राह पर हमेशा नई ऊर्जा के साथ दौड़ने का साहस दिया।
अब मेरे पास नरेश मेहता का उपन्यास 'वह पथ बंधु था' अब नहीं है। पता नहीं किस दोस्त ने लिया तो पढ़ने के लिए, लेकिन उसे अपना बना लिया। जिंदगी की राह जब-जब कठिन हुई, उसकी शरण में गया, और उस किताब ने हर बार मुझमें नवजीवन का संचार किया। अब भी जब निराश होता हूं, विद्यानिवास मिश्र का ललित निबंध, मेरे राम का मुकुट भीज रहा है या चितवन की छांह में मुझे अपूर्व शांति देता है।
जब भी कभी अंदरुनी चोट लगी, मैं किताबों की ही ओर टकटकी लगाए देखता रहा। मेरी आलमारी की किसी रचना ने जिंदगी को नई राह दिखाने में मदद ही की। कभी-कभी सोचता हूं कि भाषाई मसिजीवियों, कलमकारों की जिंदगी ऐसी अंतहीन डगर है, जिसमें ज्यादा से ज्यादा पत्थर हैं..कभी-कभी सुंदर पगडंडियां आती भी हैं तो जल्द ही तिरोहित हो जाती हैं..जैसे ही सोच मुझ पर हावी होती है, उदासियों का जैसे दौरा पड़ता है..निराशा और उदासी के दौर से उबारने में एक और किताब ने मुझे खूब मदद दी है...कभी आपको अनुभव हुआ है, दर्द से छटपटाता आपका वजूद..ऐसे वक्त में खुरदरे हाथों से भी सहलाया जाना, जुंबिश किया जाना कितना सुकूनदायक होता है।
उदासी और निराशा के दौर में ऐसी ही एक किताब जिंदगी की रपटीली-पथरीली राह पर आगे बढ़ने की प्रेरणा देती रही है, छुअन में बिल्कुल खुरदरी, लेकिन तासीर में मुलायम हाथों जैसी सुकूनदायी...किताब खुरदरी हो भी क्यों नहीं, लेखक की पूरी जिंदगी ही खुरदुरी रही...पथरीली राह से गुजरी जिंदगी के अनुभव रपटीले रहे, उष्ण जमीन पर ठंडी फसल भी पैदा होती है क्या..सोच रहे होंगे कौन सी किताब है, वह है पांडेय बेचन शर्मा की आत्मकथा, अपनी खबर।
इस खुरदरी किताब ने जिंदगी को स्नेह से भरने में कई बार मदद दी। बहरहाल इस किताब को भी किसी दोस्त ने लिया तो लौटाया नहीं। एक और किताब ने सोच को पैना बनाने में बड़ी मदद दी। किसी विश्वविद्यालय के लिए शोध के तौर पर लिखी गई कालगर्ल। आखिर कोई महिला या लड़की कालगर्ल बनती ही क्यों है, क्या सचमुच पैसे के लिए ही कोई अपनी जिंदगी की सबसे बहुमूल्य चीज दांव पर लगाता है...ऐसे कई सवालों का बिल्कुल प्राथमिक अनुभव...पूर्व सैनिक अधिकारी की पत्नी ने बड़ी कठिनाई से यह अध्ययन पेश किया है। दुर्भाग्य चमक-दमक भरी जिंदगी के पीछे के स्याह चेहरे को उभारने वाली यह किताब भी किसी के हत्थे चढ़ गई है।
कई किताबें खुद पढ़ने को प्रेरणा देती हैं, कई खुद को जबर्दस्ती पढ़ा ले जाती हैं और कई जोर लगाने के बाद भी पढ़ी नहीं जातीं। लोहिया के लेखों का संग्रह हो या दीनदयाल उपाध्याय का एकात्म मानववाद, गांधी का सत्य के प्रयोग हो ऐसी ही किताबें हैं, जिन्होंने खुद पढ़ने पर विवश किया...खुद को जबर्दस्ती पढ़ाने वाली किताबों की फेहरिश्त बड़ी है, जिन्होंने पढ़ने को मजबूर नहीं किया, उनको क्या याद करना और क्या याद ना करना...
आज कई बार नौकरी के दबाव में भी किताबें पढ़नी पड़ती हैं। कुछ बेहद उबाऊ होती हैं तो कुछ बेहद संजीदा..हाल के दिनों में पढ़ी दो किताबें इस वक्त ज्यादा याद आ रही हैं, जिन्होंने जिंदगी को देखने का जैसे नया नजरिया ही दे दिया। पहली पुस्तक है न्यूयॉर्क टाइम्स के स्तंभकार टॉम एस फ्रीडमैन की वर्ल्ड इज फ्लैट और दूसरी पुस्तक है लंदन स्कूल इकोनॉमिक्स की प्रोफेसर की पुस्तक कालगर्ल...एक ने जहां बदलते विश्व में तकनीक के प्रभाव और उसकी वजह से आ रहे बदलाव को समझने में मदद दी तो दूसरी उदारीकरण के बाद पश्चिमी समाज में पनप रहे नए सामाजिक समीकरणों का कच्चा चिट्ठा खोलती है।
किसी ने ठीक कहा है कि किताबें हमारी सबसे अच्छी दोस्त होती हैं। वे बुरा नहीं मानतीं, सिर्फ आपको सिखाती हैं, आपको सहलाती हैं..आपको राह दिखाती हैं। आजकल पुस्तक मेलों में इन्हीं दोस्तों का जमावड़ा लगता रहता है..जाइए, इन दोस्तों की ओर बार-बार हाथ बढ़ाइए...हकीकत की दुनिया में कई बार दोस्ती आपको निराश भी करती है। लेकिन निश्चिंत रहिए, हर्फों की दुनिया की दोस्ती में निराशा की कोई जगह नहीं होती।
(लेखक आकाशवाणी के मीडिया कंसल्टेंट हैं।)