टिहरी डेम को रोकने वाले सुंदरलाल बहुगुणा 94 वर्ष के हो गए. नदी-नदी, तालाब- तालाब और जंगल जंगल करने वाले अनुपम मिश्र मर गए.
ब्रह्मपुत्र के किनारे मोलाई वन उगा देने वाले 'फॉरेस्ट मैन' जादव पायेंग भी जंगलों में खप गए. वे अब 58 साल के हैं.
चिपको आंदोलन से जुड़ीं और उत्तराखंड के इसी चमोली के आसपास की रहने वाली गौरा देवी ने भी फसलों की तरह पेड़ उगाए और उनकी रक्षा की.
किंकरी देवी, राजेन्द्र सिंह और ..और ...एंड और...
यह सब लोग पहाड़ों, नदियों और जंगलों के साथ साथ चले, उनके साथ जिए, उनके साथ ही चलते-चलते ही कुछ मर गए कुछ आने वाले दिनों में मर जाएंगे.
इस दुनिया के हम शेष लोगों ने जंगल, जमीन, पानी, पेड़ और पहाड़ों के लिए लड़ने वाले इन चंद ताक़तवर नामों की मुक्ति के सारे रास्ते बंद किए. क्योंकि हमने पेड़ काटे, जंगल घटाए, पानी रोका, और पहाड़ों के कद छोटे किए.
नदी किनारे इमारत बनाई, कारखाने बनाये इसलिए पानी हमारे घरों में घुस आता है, हमने पहाड़ छोटे किए इसलिए वो हमारे ऊपर धंस जाते हैं, हमने पेड़ काटे इसलिए आसमान की सारी आफ़त हमारी छतों पर ही गिरती हैं.
यही नियम था एक. अपनी-अपनी जगह पर रहना. लेकिन हमने नियम तोड़ दिए इसलिए प्रकृति नियम तोड़ने पर रिएक्ट करती है. हम उसे त्रासदी समझते हैं. यह त्रासदी नहीं, प्रकृति की सहजता है कि वह अभी भी आपके साथ ठीक से बर्ताव कर रही है.
बात सिर्फ इतनी सी है, पानी को पानी की जगह चाहिए, पहाड़ को पहाड़ की जगह और नदी को अपनी जगह चाहिए. जैसे आपको आपका घर चाहिए.
फिर चाहे उसे उसकी जगह आप ख़ुद दीजिए या फिर सरकार से पूछिए कि आपके घोषणा पत्र में प्रकृति कहां है? क्यों नहीं है?
पूछिए कि प्रकृति की जगह सड़क क्यों है, डेम क्यों है, ब्रिज क्यों है, प्लांट क्यों है, प्रोजेक्ट क्यों है?
केदारनाथ क्यों है, और चमोली क्यों है?
और अंततः सत्तर साल की सभी सरकारों से पूछिए की वो एक सौ पचास मजदूर कहां हैं, जिन्हें इस शाम अपने घर अपने बच्चों के साथ होना चाहिए था?