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बाल श्रमिकों की दर्दीली दास्तान

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अनिल शर्मा

योजनाओं की रस्मी अदायगी
 
कैलाश सत्यार्थी या मलाला यूसुफजयी... इनके बाद और कोई... सवाल यह कि फिर भी स्थिति जस की तस। कुछ (हो सकता है हजारों में) बच्चों का जीवन संवर गया हो या भविष्य में संवर जाए। किंतु दुनियाभर की छोड़िए, खुद भारत में अंदाजन लगभग 20 करोड़ से ज्यादा विभिन्न आयु वर्ग के बच्चे बच्चे आज भी बाल श्रमिक के रूप में छोटे-बड़े कामों में लगे होकर अपना और परिवार का पेट भर रहे हैं।
 
इनके पास न शिक्षा पाने के लिए फुर्सत है और न ही अपने स्वास्थ्य की चिंता? (वैसे भी अपढ़ वजह से इन्हें स्वास्थ्य के बारे में कैसे जानकारी हो सकती है? देश ही नहीं, सारी दुनिया बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए चिंतित है। बड़े-बड़े आयोजनों में बच्चों के भविष्य और वर्तमान को लेकर चिंता, सलाह, समाधान आदि इत्यादि पर लाखों (शायद कम है) खर्च हो जाते हैं, स्वागत-सत्कार, भाषण-वाषण... उसके बाद फिर 'कालू, चल प्लेट धो ले', 'उधर चाय दे...' आदि-आदि।
 
अशिक्षा का प्रभाव
 
हमारे देश में सरस्वती बिकाऊ हो गई है। आज एक मजदूर भी सरकारी की बजाए प्राइवेट स्कूल में अपने बच्चों को पढ़ाना चाहता है। ऐसे में खुद जिस बच्चे पर परिवार का बोझ हो, वह कैसे साक्षर या शिक्षित बन सकता है? अशिक्षा के प्रभाव के कारण ही बच्चों के लिए बनाई योजनाओं का लाभ नेता, उनके चहेते, अधिकारी और उनके अपने फर्जी तरीके से ले लेते हैं।
 
कुछ बच्चों (अपवादस्वरूप मात्र लगभग 5-8 प्रतिशत) को सरकारी योजनाओं का लाभ भले ही मिल जाता हो। कितने प्राइवेट या निजी स्कूल ऐसे हैं जिनमें अकेले पूरे परिवार का भार उठाने वाले बच्चों को प्रवेश दिया गया हो (बहुत कम लगभग 3-4 प्रतिशत)। अव्वल तो यह कि देशभर के बच्चों को यह मालूम होना चाहिए कि हमारे देश में लोकतंत्र है, हम बच्चों के लिए भी अनेक योजनाएं हैं।
 
बाल मजदूरी कर रहे मात्र 2 से 5 प्रतिशत के लगभग बच्चों को ही यह जानकारी शायद होगी। मेरे ख्याल से तो बेवजह बाल विकास जैसे विभाग या मंत्रालय खोल रखे हैं, जहां नेता या अधिकारी बच्चों की 'मलाई' खा रहे हैं। रस्मी तौर पर बाल श्रमिकों के हित के लिए कुछ दिन कार्रवाई हो जाती है, उसके बाद मालिकों से 'मिलीभगत'।
 
सामाजिक संस्थाओं के खर्चीले आयोजन
 
गरीब बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य आदि को लेकर जहां सरकारी मशीनरियां कार्यरत रहती हैं (कब-कब?) वहीं अनेक सामाजिक संस्थाएं भी इसमें अपना भरपूर योगदान देने में पीछे नहीं रहतीं। अगर 4 बच्चों को कॉपी-किताबें बांटना होगा तो भी ये संस्थाएं 4 लाख का आयोजन कराती हैं।
 
पेट पहले, शिक्षा-स्वास्थ्य गौण
 
अपने परिवार का और स्वयं अपना पेट पालने वाले 50 से 150 रुपए रोज कमाने वाले लगभग 14 से 16 वर्ष आयु वर्ग के बच्चे के लिए शिक्षा और स्वास्थ्य का मुद्दा गौण होता है। अगर कुछ कमाएगा नहीं तो घर तो दूर खुद, वह अपना ही पेट कैसे भरेगा? इसी चक्कर में देशभर में लगभग 14 से 17 वर्ष आयु वर्ग के लगभग 20 से 35 प्रतिशत बच्चे भारी कामकाज कहे जाने वाले कामों में लगे हैं, वहीं 40 से 45 प्रतिशत बच्चे होटल, चाट, कारखाने आदि जैसे कामों में लगे हैं। बच्चों के लिए पुनर्वास आदि की योजनाएं भी चल रही हैं, मगर या तो ये ऊंट के मुंह में जीरे के समान हैं या केवल कागजी खानापूर्ति की रस्म-अदायगी भर है।
 
चिंता जरूर है, कार्रवाई नहीं
 
अगर सरकार को... इन सामाजिक संस्थाओं को बच्चों की शिक्षा और स्वास्थ्य की चिंता होती तो वास्तविक रूप से अगर कार्रवाई की जाती तो आज कोई बच्चा पहले शिक्षा पाता। श्रमिक कामगार तो यूनियनें बनाकर हड़ताल वगैरह करके अपना हक मांग लेते हैं, मगर ये कामगार बच्चे यानी बाल श्रमिक किस की ओर आसभरी नजर से देखें, क्योंकि उनके नाम पर तो नेता, अधिकारी और सामाजिक संस्थाएं लड्डू खा रही हैं। भारत समेत कई देशों में असंगठित क्षेत्र में बाल मजदूरी एक विकराल समस्या बन गई है।
 
बाल मजदूरी से निपटने के लिए कार्यदायी संस्थाएं हैं, नीति और अभियान हैं, यहां तक कि अब तो कैलाश सत्यार्थी जैसा बाल अधिकारों के लिए लड़ने वाले एक्टिविस्ट के नाम नोबेल शांति का पुरस्कार भी है। लेकिन ये भी एक तथ्य है कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र, आईएलओ की न्यूनतम आयु संधि 1973 (संख्या 138) पर अनुमोदन नहीं कर पाया है जिसमें वैश्विक स्तर पर बच्चों को काम पर रखने के जमीनी नियम-कायदे निर्दिष्ट हैं।
 
आईएलओ का न्यूनतम आयु से जुड़े दूसरे निर्देश का भी भारत में कायदे से अनुपालन नहीं होता जबकि भारत इसका अनुमोदन कर चुका है कि 14 साल से कम उम्र के बच्चे किसी भी तरह के पेशे में काम पर नहीं रखे जाएंगे, लेकिन हो इसका उलटा रहा है।
 
छुपाने की कोशिश
 
खुद अकेले मप्र के अनेक गांवों और शहरों में 14 से 17 वर्ष आयु वर्ग के विभिन्न कामों में रत बच्चों की संख्या अंदाजन लगभग 2 लाख से अधिक है जबकि विधानसभा में जानकारी दी गई कि पूरे प्रदेश के केवल 11 जिलों में बाल श्रमिक मिले हैं जिनकी कुल संख्या केवल 108 है जबकि जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक इन 11 जिलों में ही 1.66 लाख से ज्यादा हैं जबकि राज्यभर की संख्या इससे कहीं ज्यादा है।
 
झूठा सर्वे
 
बच्चों या बाल श्रमिकों के लिए कराए गए सर्वे भी सचाई से कोसों दूर लगते हैं। राज्य के सभी 40 जिलों में कुल बाल श्रमिकों की संख्या तो 7 लाख है, पर सरकार को केवल 108 ही दिखाई दिए। उनके मुताबिक, 40 जिलों में तो बाल श्रमिक हैं ही नहीं। जब सरकार ने वर्ष 1997 से राज्य में बाल श्रमिकों का सर्वेक्षण ही नहीं करवाया तो पता कैसे चलेगा कि राज्य में कितने बच्चे अपना बचपन छोड़कर कचरा बीनने, ढाबों में काम करने, भीख मांगने, गाड़ियों की मरम्मत करने से लेकर खेतों तक में काम कर रहे हैं। जो सच नंगी आंखों से इधर-उधर बिखरा दिखाई देता है, वह केवल 'हमारी व्यवस्था' (?) को दिखाई नहीं देता है। यह संभव है कि सरकार उस दृष्टि से बच्चों और बच्चों के श्रम से देखती ही नहीं है जिस संवेदनशील दृष्टि से उन्हें देखना चाहिए।
 
मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले में सबसे ज्यादा बच्चे (35,070) श्रम में संलग्न हैं। इसके बाद धार (33,949), बड़वानी (30,533), अलीराजपुर (27,416), खरगोन (26,196) और बैतूल (24,655) जिलों में बड़ी संख्या में 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चे काम में संलग्न हैं।
 
अगर सरकारी तौर पर बाल श्रमिकों या बाल कामगारों के लिए बनी योजनाओं को भ्रष्टाचार से परे रख काम किया जाता तो बाल श्रमिकों को भी इनका लाभ मिलता। मगर इन बाल श्रमिकों की दर्दीली दास्तान को सुनने वाला ईश्वर भी नहीं है। बच्चों के लिए योजना बनाने वाले मंत्रालय, सामाजिक संस्थाएं इनके नाम पर 'मलाई' चाट रहे हैं।

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