कांग्रेस की दशा देखकर उसके कट्टर समर्थक भी निस्संदेह हताश हो रहे होंगे। पार्टी के लिए चार राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेशों के विधानसभा चुनाव कितने महत्वपूर्ण हैं यह बताने की आवश्यकता नहीं।
आपने गौर किया या नहीं, केंद्रीय नेताओं में केवल राहुल गांधी तमिलनाडु से पुडुचेरी और केरल तक के चुनाव प्रचार में दिख रहे हैं। प्रियंका वाड्रा भी असम में दिखी हैं। दूसरी ओर कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं के रूप में पहचान रखने वाले कई चेहरे एक साथ जम्मू में एक मंच पर दिखे।
उसके बाद अन्य कार्यक्रमों में या सोशल मीडिया से हमें उनके विचार सुनने को मिल रहा है। जिस समय संपूर्ण पार्टी को एकजुट होकर, जान-प्राण लगाकर करो या मरो की भावना से विधानसभा चुनाव अभियान चलाना चाहिए था उस समय इस तरह के परिदृश्य कांग्रेस के भविष्य को लेकर निराशा ही बढ़ाएगा।
भारतीय राजनीति की त्रासदी और विडंबना दोनों है कि लंबे समय तक किसी पार्टी में काम करने वाले नेता अगर पार्टी के हित का ध्यान रखते हुए कुछ ऐसे प्रश्न उठाते हैं जो तात्कालिक नेतृत्व के थोड़ा भी विरुद्ध जाए तो उसे पार्टी विरोधी, विरोधी पार्टियों के इशारे पर काम करने वाला, विश्वासघाती और ना जाने क्या-क्या करार दिया जाता है।
कांग्रेस के अंदर नेताओं के जिस तबके को जी 23 नाम दिया गया है उनमें ऐसे कौन है जिनकी पहचान एक कट्टर कांग्रेसी कि नहीं रही है? किंतु गुलाम नबी आजाद के खिलाफ प्रदर्शन हो रहे हैं। उन्हें पार्टी से निकालने की मांग की जा रही है। कहा जा रहा है कि वे भाजपा में जाने वाले हैं।
अलग-अलग राज्यों में दूसरे नेताओं के खिलाफ भी पार्टी का एक समूह, जो 10 जनपथ यानी सोनिया गांधी परिवार के प्रति निष्ठा रखता है उसका रवैया लगभग ऐसा ही है। राज्यसभा में पार्टी के उप नेता आनंद शर्मा ने पीरजादा अब्बास सिद्दीकी जैसे सांप्रदायिक व्यक्ति और उनके संगठन इंडियन पीपुल्स फ्रंट के साथ गठबंधन को पार्टी के मूल सिद्धांतों के विपरीत क्या बताया उन पर भी हमले शुरू हो गए। अधीर रंजन चौधरी ने उन पर जिस तरह का जवाबी हमला किया, उनका उपहास उड़ाया उसे यहां दुहराने की आवश्यकता नहीं।
कायदे से जब ऐसे वरिष्ठ नेताओं ने चुनाव, संगठन में बदलाव, स्थाई अध्यक्ष आदि की मांग पत्र लिखकर सार्वजनिक तौर पर की तो उसे सकारात्मक दृष्टिकोण से लिया जाना चाहिए था। कार्यकारी अध्यक्ष का दायित्व था कि कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक बुलाकर संगठन चुनाव, महाधिवेशन आदि की तिथि तय करते।
अगर ऐसा हुआ होता तो निश्चित रूप से नौबत यहां तक नहीं आती। कांग्रेस इस समय नरेंद्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व वाली भाजपा से सीधे मोर्चा लेने में दुर्बल साबित हो रही है। ज्यादातर चुनावों में कांग्रेस इनका मुकाबला करने में सक्षम नहीं है। इसके कारणों की पड़ताल करते हुए नीति, रणनीति और नेतृत्व में आवश्यकतानुरूप बदलाव करने का माद्दा दिखाया जाना अपरिहार्य था और है। जब ऐसा नहीं हुआ और इसकी संभावना तक नहीं दिखी तभी नेताओं का धैर्य जवाब देने लगा।
यह भी विचारणीय है कि इतने वरिष्ठ नेताओं को सोशल मीडिया के माध्यम से या फिर अन्य मंचों से अपनी बात क्यों रखनी पड़ रही है? इसका मतलब यही है कि महत्वपूर्ण चुनावों की घोषणा के बावजूद कार्यकारी अध्यक्ष ने चुनावी अभियान और रणनीति पर इन सबके साथ विचार-विमर्श तथा इनकी भूमिका तय करने की पहल नहीं की है।
आखिर आजाद के मार्गदर्शन में चलने वाले ग्लोबल गांधी संगठन की जम्मू में शांति सम्मेलन की आवश्यकता क्यों पड़ी होगी? अगर वे लोग चुनाव में सक्रिय होते तो उनके पास परिणाम आने तक समय ही नहीं मिलता। इसी तरह अगर राज्यों में गठबंधनों पर पार्टी के अंदर विचार-विमर्श होता तो आनंद शर्मा को ट्विटर के माध्यम से अपनी बात रखने की आवश्यकता ही महसूस नहीं होती।
कांग्रेस के पास लोकसभा में जो 53 सीटें हैं उनमें से 29 इन्हीं प्रदेशों से हैं। इन राज्यों में कांग्रेस के विधानसभा सदस्यों की संख्या पिछले चुनाव में 111 थी। सभी स्थानों को मिला दे तो विधानसभा सीटों के अनुसार कांग्रेस तीसरे तथा लोकसभा के अनुसार पहले नंबर की पार्टी है। दक्षिणी राज्य वैसे भी संकट के समय कांग्रेस को संभालते रहे हैं।
1977 में भले उत्तर भारत से कांग्रेस साफ हो गई लेकिन दक्षिण भारत ने इंदिरा गांधी का साथ दिया था। अगर 2004 और 2009 में कांग्रेस अपने नेतृत्व में यूपीए की सरकार बना सकी तो उसके पीछे दक्षिण के राज्यों से प्राप्त अपनी और साथी दलों की सीटों का मुख्य योगदान था।
आज अगर कांग्रेस संसद में कमजोर है तो उसका कारण भी इसी में निहित है। वस्तुतः इन चुनावों में हताशा को पीछे रखकर कांग्रेस को जी जान से जुट जाना चाहिए था। यहां सोच यह है कि एकमात्र राहुल गांधी का चेहरा ही जनता और पार्टी के सामने दिखना चाहिए। इससे भविष्य में उनके नेतृत्व का समर्थन आधार मजबूत होगा। यानी इन राज्यों में कांग्रेस को अगर सफलता मिलती है तो उसका पूरा श्रेय परिवार को मिलेगा। इसके बाद उनकी नेतृत्व क्षमता पर प्रश्न उठाने वालों की आवाजें कमजोर हो जाएंगी।
केरल में हमेशा लड़ाई वाम मोर्चे वाले एलडीएफ और कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूडीएफ के बीच रहा है। हर चुनाव में सत्ता की अदला-बदली होती रही है। चूंकि इस समय वाममोर्चा सत्ता में है इसलिए कांग्रेसी नेतृत्व वाले मोर्चे के सत्ता में लौटने की संभावना राहुल गांधी और उनके रणनीतिकार को दिख रही होगी। लोकसभा चुनाव में केरल ने 15 सीटें कांग्रेस को दी। भाजपा अभी वहां इतनी मजबूत नहीं दिखती है कि कांग्रेस के सत्ता में आने के मार्ग को बाधित कर सके।
असम में भी मतदाताओं के पास दो ही विकल्प हैं। या तो वे भाजपा नेतृत्व वाले गठबंधन के साथ जाएं या कांग्रेस नेतृत्व वाले गठबंधन के। इसमें भी बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद सोनिया, राहुल और उनके रणनीतिकार कर रहे होंगे। तमिलनाडु में सत्तारूढ़ अन्नाद्रमुक गठबंधन की अलोकप्रियता का प्रमाण 2019 लोकसभा में मिल गया था। उसे एक सीट पर सीमित होना पड़ा।
शेष सारी सीटें द्रमुक गठबंधन ने जीत ली। एक साथी दल होने के नाते कांग्रेस को द्रमुक के सहारे अच्छी सीट पाने की उम्मीद हो सकती है। इसमें सोनिया गांधी परिवार के समर्थक चाहते हैं कि अन्य नेताओं को परे रखकर राहुल गांधी को पूरे प्रदर्शन का श्रेय मिल जाए तो उनकी दृष्टि से यह स्वाभाविक है। उम्मीद के अनुरूप परिणाम आए तो इन सारे नेताओं पर हमले होंगे तथा सोनिया, राहुल और प्रियंका की जय - जयकार सुनाई देगी। तात्कालिक रुप से उनके लिए यह सही लगे, इसमें कांग्रेस का हित कतई निहित नहीं है।
जब भी गहरे संकट में फंसे तो शांत और संतुलित होकर विचार करना चाहिए कि ऐसा हुआ क्यों? आपके अंदर समझ है और ईमानदारी से विचार करेंगे तो सारे कारण स्पष्ट हो जाएंगे। ऐसा हुआ ही नहीं। डर है कि ऐसे मंथन में नेतृत्व की क्षमता पर प्रश्न खड़ा होगा और जवाब देना कठिन हो जाएगा। कोई भी विवेकशील और संतुलित प्रश्न नागवार गुजरेगा।
आखिर आनंद शर्मा ने यही कहा है कि बंगाल में आईपीएफ या ऐसे दूसरे समूहों के साथ गठबंधन कांग्रेस की मूल विचारधारा के विपरीत है। आईपीएफ के प्रमुख पीरजादा अब्बास सिद्दीकी के अनेक वक्तव्य सामने आए हैं जिनसे साबित हो जाता है कि उनका विचार एवं व्यवहार कट्टर मजहबी सोच से निर्धारित है। असम में बदरुद्दीन अजमल की एआईयूडीएफ से गठजोड़ भी इसी श्रेणी का उदाहरण है। पूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय तरुण गोगोई ने अपने कार्यकाल में बदरुद्दीन को कभी कांग्रेस से सटने नहीं दिया। वे उनकी सांप्रदायिक एजेंडा को भली प्रकार जानते थे। किसी तरह कुछ सीटें पा लेने के लिए ऐसे समूहों से गठजोड़ करना डरावने जोखिमों से भरा है। आनंद शर्मा ने कहा है कि गठजोड़ पर विचार करने के लिए कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक बुलाई जानी चाहिए थी। तरीका तो यही है। हालांकि ये नेता पहले ऐसे गठजोड़ पर प्रश्न नहीं उठाते थे। इनके रहते भी सेक्यूलरवाद की परिभाषा हमेशा सुविधाओं के अनुरूप दी गई।
बहरहाल, परिणाम पिछले विधानसभा चुनावों से बेहतर हुए तो पूरे देश में ऐसे नेताओं को हाशिए पर डालने तथा सोनिया, राहुल व प्रियंका के प्रति निष्ठा रखने वाले लोगों को प्रश्रय देने की प्रक्रिया शुरू होगी। उसमें कांग्रेस का भविष्य क्या होगा? कांग्रेस का भला नहीं होने वाला। उसका राजनीतिक भविष्य और संकटग्रस्त होगा।
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