जिंदगी सांप सीढ़ी का खेल हो चुकी है। कोरोना इस खेल में मुट्ठी में बंद पासा है जो हर इंसान के हाथों में बंद है। कितने नम्बर पासे में आ रहे हैं उससे ही निर्धारित हो रहा है कि आप जिन्दगी में आत्मविश्वास की सीढ़ियां चढ़ोगे या नकारात्मकता का सांप आपको बार-बार नीचे भय के साथ निराशा के अन्धकार में धकेलेगा।
कई बार तो निन्यान्वे पर आ कर भी एक नकारात्मकता का सांप आपको फिर से जीवन की ए बी सी डी शुरू करने को मजबूर कर सकता है। ऐसा ही कुछ हुआ है छोटे भाई के सामान स्नेहिल पवन के साथ।
पवन मित्तल और परिवार कोरोना से पीड़ित हुआ। इतने दिनों उन्होंने अपने फोन को अपने से दूर रखा।व्यवहारिक होने के कारण उनके चाहने वालों की संख्या भी बड़ी तादाद में है।वे सदैव सबकी मदद करने तत्पर रहा करते। पर फिर उन्होंने फोन क्यों बंद किया हुआ था बीमारी के दौरान?
न वे सोशल मिडिया पर सक्रिय रहे, न व्हाट्सअप पर उपलब्ध। जबकि वे हमेशा सभी के लिए सहज मुलाकाती व्यक्ति हैं। पेशे से प्रोफेसर होने से उनके मित्र, विद्यार्थी भी लगातार संपर्क में रहते हैं। तो फिर ऐसा क्यों करना पड़ा उन्हें? हो सकता है ये सारे विश्वदर्शन उपकरण हमारे लिए लाभदायक और प्रेरणात्मक हों। पर उनके लिए जी का जंजाल बन गए।कैसे? जैसे ही वे बुखार से ग्रस्त हुए सामान्य रूप से खुद ही आयुर्वेदाचार्य बन घरेलू इलाज शुरू कर लिया। पांच-छः दिन तो समझ ही नहीं पाए। रोग बढ़ा तब उन्होंने चिकित्सा सहायता ली। पवन का जनता से निवेदन है कि वे तुरंत अपनी जांच करावें। उनसे यही चूक हुई।इससे रोग ने जकड़ लिया।
इसी दौरान पत्नी और बच्चे भी संक्रमित हो गए। घर का और घर के लोगों का बुरा हाल हो रखा था।अट्ठारह से बीस घंटे दवाइयों और इंजेक्शनों के असर से वे तन्द्रा में रहते।ऐसे में जो फोन आते वे सिवाय ज्ञान बांटने और भय बढ़ाने का काम करते।मुफ्त रायचन्दों से वे इस कदर परेशान हुए कि फोन उठाना ही बंद कर दिए। विभत्स, दर्दनाक, नकारात्मकता से भरे वीडियोज ने उन्हें झकझोर के रख दिया।
हाहाकार और त्रास से निकलीं चीखें उनके स्वास्थ्य पर उल्टा असर डाल रहीं थीं। लोग थे कि मानते ही नहीं। लगातार जलती, जलने के लिए इंतजार में पड़ीं मैय्यतें, रोते बिलखते परिजन, चिकित्सा, दवाओं के अभाव में दम तोड़ते लोग और हर दूसरी पोस्ट पर हर उम्र के लोगों के दिवंगत होने की खबरों के साथ खुद की हर सांस का संघर्ष और पत्नी बच्चों की चिंता। उनके लिए सब असहनीय था। सभी लोग चिंता के बहाने, कुशलक्षेम की आड़ में लगातार ज्ञानी बन सलाह दिए जाते, लम्बी बातें करते।उन्हें बोलने में कष्ट होता है इस बात को समझने ही तैयार नहीं।
उन्हें इस बात का भी घोर आश्चर्य है कि ये सभी उनके हितैषी और परिचित हैं। पढ़े लिखे समझदार लोग।वे ही ये सब किये जा रहे थे बार बार लगातार। पवन कहते हैं- आप जब भी किसी रोगी से बात करें तो आपका दृष्टिकोण जीवनोन्मुखी होना चाहिए न कि निराशा और दया से भरा। पर आपकी “सो कॉल्ड सिम्पेथी” और “एडवाइस” उसे भ्रम और निराशा के गहरे अंधेरे में धकेल देती है।
जैसे ही पवन सम्हले उन्होंने अपने उन प्रियजनों को खुद फोन किये जिनसे बातें करने के बाद उन्हें अच्छा महसूस होता। उसमें भी वे पहले उनसे बात करने की अनुमति लेते क्योंकि आज की परिस्थिति में कोई भी इतना समय किसी के लिए दे पाए या अनुकूल हो ये समझना जरुरी है। उन पर भी तो बीत चुका है ये फोन ज्ञान विशेषज्ञों का कहर। इस चक्कर में वे उनके भी फोन नहीं ले पाए जो सच में उनके शुभेच्छु रहे।हम पढ़-लिख तो गए हैं पर आज भी न जाने क्यों भाव भरे संक्षिप्त संवाद का शऊर-सलीका नदारद ही है। कोरोना की लंका आग लगाने के लिए आपके जिन्दादिली और दिलेरी के मीठे बोलों की तीली भी तो जरुरी है....