यह सच है कि समूचा विश्व 21 वीं सदी में है। यह भी सच है कि प्रगति के लिहाज से मानव सभ्यता के इतिहास का सबसे स्वर्णिम काल है। सच तो यह भी है कि हर दूसरा दिन पहले से अलग होता है। साथ ही यह भी सार्वभौमिक सत्य है कि आवश्यक्ताओं और विकास की संभावनाओं में होड़ की न कोई सीमा थी, न है और न रहेगी।
ऐसे में कई बार इसे लेकर भ्रम हो जाता है कि क्या हम वाकई तरक्की कर चुके हैं और क्या तरक्की के मायने नित नए और पहले से आधुनिक होते शानदार क्रांक्रीट के जंगल, आलीशान शहर, यातायात के सुखदायी साधन, हवा में उड़कर दुनिया की सीमाओं को रौंदते हौसले और पंख लगती अर्थ व्यवस्था ही है? इसका जवाब शायद उसी दुनिया को महामारियों से अच्छा किसी ने नहीं दिया है जिसने यह भ्रम पाल रखा है।
कोरोना ने भी तमाम विकास और दावों, खासकर स्वास्थ्य को लेकर पूरी दुनिया की कलई खोल दी। इस वैश्विक महामारी ने फिर बतला दिया कि कहीं से कहीं पहुंच जाओ, चुनौतियां उससे भी तेज ऐसी मुंह बाएं आ खड़ी होती हैं कि पूछिए मत।
21 वीं सदी के इस युग में यह लाचारी और बेबसी नहीं तो और क्या है जो महज 0.85 एटोग्राम यानी 0.00000000000000000085 ग्राम के कोरोना के एक कण जिसे केवल इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप विश्लेषण तकनीक से ही देखा जा सकता है ने ऐसा तूफान मचाया कि पूरी की पूरी मानव सभ्यता पर भारी पड़ गया। बदहाल हो चुकी दुनिया को इस बेहद अतिसूक्ष्म वायरस से कब मुक्ति मिलेगी, कोई नहीं जानता।
अलबत्ता गणित के हिसाब से करोड़ों को गिरफ्त में लेने की जुगत वाले कोरोना के वजन की बात करें तो 3 मिलियन यानी 30 लाख लोगों में मौजूद वायरस का कुल वजन केवल 1.5 ग्राम होगा। इससे, इसकी भयावहता का केवल अंदाज लगाया जा सकता है। बेहद हल्के और अति सूक्ष्म इस वायरस से वैश्विक अर्थव्यवस्था को 5,800 अरब से 8,800 अरब डॉलर तक के नुकसान की संभावना है।
इस संबंध में एशियाई विकास बैंक के ताजे आंकड़े बताते हैं कि दुनिया के साथ-साथ केवल दक्षिण एशिया के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी पर 142 अरब से 218 अरब डॉलर तक असर होगा।
यह बेहद चिन्ताजनक स्थिति होगी जो झलक रही है। लेकिन सवाल फिर वही कि दुनिया के विकास के दावे कितने सच, कितने झूठ? इसमें कोई दो राय नहीं कि स्वास्थ्य को लेकर मानव सभ्यता 21 वीं सदी में भी बहुत पीछे है। ले-देकर दवाई से ज्यादा बचाव का सदियों पुराना तरीका और दादी के नुस्खे कोरोना काल में भी कारगर होते दिख रहे है।
मतलब स्वास्थ्य को लेकर दुनिया के सामने गंभीर चुनौतियां बरकरार हैं और इनसे बहुत कुछ सीखने, जानने और समझने के साथ यह भी शोध का विषय है कि आखिर हर 100 साल बाद ही महामारी नए रूप में क्यों आती है?
अकेले भारत में 50 लाख लोग अब तक संक्रमित हो चुके हैं। रोज आंकड़ा तेजी से बढ़ रहा है। लगभग 80 हजार ज्ञात मौत हो चुकी हैं। हफ्तेभर से रोजाना लगभग एक लाख पहुंचते नए मरीजों की संख्या डराने वाली है। यहां भी बीमारी की तासीर का पक्का इलाज नहीं होने से महज बचाव और साधारण नुस्खों से जूझने की मजबूरी है। बीमारी से जीतने खातिर दूसरी दवाओं, सेहतमंद खुराक से शरीर में ही प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर किसी तरह लड़ाई से जंग जारी है। कोरोना का सबसे बड़ा सच यह कि केवल वही अभागा कोरोना का असल खौफ समझ पा रहा है जिसने किसी अपने को खोया है या खुद अथवा परिजन संक्रमित हुआ है। बाकी ज्यादातर लोग पूरी तरह बेफिक्री में हैं।
कोरोना की जंग के लिए बस यही बड़ी चुनौती है। लगता नहीं कि लोग जानबूझकर महामारी के शिकार होने की होड़ में हैं? दूसरे अनेकों सच भी सामने हैं जिसे लोगों ने देखा, समझा या महसूस किया जिनमें कोरोना से मृतकों के पॉलिथिन में पैक शरीर और पीपीई किट पहन अंतिम संस्कार करते स्वजन तो कहीं शमशान में अंतिम क्रिया नहीं करने देने पर घण्टों भटकते शव की सच्चाई ने बुरी तरह से आहत किया। लेकिन फिर भी लोग हैं कि मानते नहीं। बस मास्क भर तो लगाना है और दो गज की दूरी रखना है वह भी घर से बाहर सार्वजनिक जगहों पर। ऐसे में इतना करना है जिसे प्रधानमंत्री भी कहते हैं कि जब तक नहीं दवाई, तब तक नहीं ढ़िलाई। सच भी है क्योंकि कोरोना से बहुत लंबी बांकी है लड़ाई।
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)