ताबां का शेर है,
उनके आने को क्या कहूं ताबां
उनका जाना मेरी निगाह में है
ग्रीष्म जाने को है,बरसात दस्तक दे रही है ।ये आम की बिदाई के दिन हैं।लेकिन बिदा होने से स्मृति क्षीण नहीं होती और वह कैसे हो यदि वह स्मृति फलों के राजा से जुड़ी हो।
बड़ा प्राचीन इतिहास है आम का।यह चौथी से पांचवें सदी ईसा पूर्व ही एशिया के दक्षिण पूर्व तक पहुंच गया था।दसवीं सदी तक पूर्वी अफ्रीका में भी इसकी खेती आरंभ हो गई और १४ वीं सदी तक यह ब्राजील,मेक्सिको और वेस्टइंडीज़ जैसे देशों में पहुंच गया।जहां तक भारत का प्रश्न है यह जंगली प्रजाति के रूप में ऊगा तथा कृषि शास्त्रियों का मत है कि यह पहिले पहल आसाम में हुआ होगा।
हुएनसांग ने इसका अपने यात्रा वर्णन में उल्लेख किया है।इसे प्राचीन भारतीय ग्रंथों में कल्पवृक्ष भी कहा गया है।वैदिक कालीन ग्रंथों तथा अमरकोश में इसकी चर्चा के संबंध में विद्वान अवगत कराते हैं तथा यह भी अवगत कराते हैं कि शतपथ ब्राह्मण में इसकी चर्चा है तथा यह भी कि यह बुद्ध के समय भी प्रतिष्ठा पा चुका था। इसकी प्रशंसा कालिदास ने भी की और सिकंदर ने भी।सत्रहवीं सदी के फ्रायर नामक विदेशी यात्री ने इसे आडू और खुबानी से अधिक रुचिकर बताया है और हेमिल्टन जो अठारवी सदी में आया उसने गोवा के आमों को संसार के सर्वश्रेष्ठ आम बताया है । यह प्रतिष्ठा इस कोंकणी आम की आज भी कायम है।
मुगल सम्राट अकबर ने विभिन्न प्रजातियों के आम के पेड़ दरभंगा में लगवाए थे।शाहजहां भी आम का शौकीन था।वह कोंकण से आम बुलवाता था. आम को संस्कृत में आम: कहा जाता है।इसके अन्य अनेक नाम हैं इनमें रसाल बड़ा मनमोहक है। इसके अलावा सौरभ, चुवत,टपका,सहकार और पिकवल्लभ के नामों से भी इसे पुकारा जाता रहा है। अंग्रेज़ी में इसे मेंगो कहते हैं तथा यह पुर्तगीज शब्द मंगा से बना है।वैसे यह मलयालम नाम है। एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि आम की जिस किस्म को हम चौसा के नाम से जानते हैं ,अपने मनपसंद आम की किस्म का नाम शेरशाह ने चौसा में हुमायूं पर अपनी विजय के उपलक्ष्य में रखा था।
आम की अनेक किस्में हम जानते हैं जैसे तोतापरी,लंगड़ा,अल्फांसो,बादाम,सुंदरी,पैरी,मालदा,केसर,दशहरी और ऐसी अनेक। मलीहाबादी आम बड़े प्रसिद्ध हैं और विदेशों में भेजे जाते हैं।
आम और आम के पेड़ की छाल तथा पत्तों का आयुर्वेद की दृष्टि से बड़ा महत्व है,आम को साहित्य में भी बहुत प्रतिष्ठा मिली।कालिदास सहित अनेक संस्कृत कवियों ने इसकी गौरव गाथा का गान किया।कालिदास ने आम के कोरकों को बसंत काल का जीवित सर्वस्व कहा। घनानंद ने अपनी सुजान के नेत्रों को रसाल कहकर संबोधित किया...
बंक बिसाल रंगीले रसाल छबीले कटाक्ष कलानि मैं पंडित।
सांवल सेत निकाई निकेत हियों हरि लेत है आरस मंडित।।
हजारी प्रसाद दिवेदीजी ने "आम फिर बौरा गए" जैसा ललित निबंध लिखकर इसे आधुनिक गद्य में अमर कर दिया और विद्यानिवास मिश्रजी ने इसकी पूरी कुंडली बना दी।उन्होंने लिखा " आम वसंत का अपना सगा है क्योंकि उसके बौर की पराग धूलि से वसंत की कोकिला का कवि कंठ कषायित होकर और मादक हो जाता है".
पंचवटी में मैथिलीशरणजी ने राम वनवास के प्रसंग में लिखा,
आम्र वन सा फैला चहुं ओर, मोद का आज ओर न छोर
किंतु फल सका न सुमन क्षेत्र ,कीट बन गए मंथरा नेत्र
ऐसे अनेक उदाहरण हैं।
भारतीय लघुचित्रों की विभिन्न शैलियों में आम के वृक्षों और फलों को प्रमुखता से मुगल,राजपूत,लखनऊ,फर्रुखाबाद और गोलकोंडा से लेकर कंपनी शैली तक की तमाम शैलियों में चित्रित किया गया।
आम की यही कहानी हमारी स्मृतियों का वह आम्र वन है जिसमें बसी मंजरियों की गंध हमारी अक्षय निधि है।