डिजिटलाइजेशन, ग्लोबलाइजेशन, डिजिटल पेमेंट यानी एक क्लिक पर सब कुछ। जैसे हकीकत के इस दौर में फर्जी मतदान की शिकायत वह भी बुर्के की उस पर भी देश में सत्तासीन दल के द्वारा! सुनने में जरूर अटपटा है लेकिन हकीकत यह है कि थोड़ी सी कोशिशों से फर्जी मतदान पर न केवल हमेशा-हमेशा के लिए रोक लगेगी, बल्कि वह दिन भी दूर नहीं जब मताधिकार का प्रयोग मतदान केन्द्र पर नहीं घर बैठे कर सकेंगे।
दरअसल बुर्का तो एक बहाना है, कहीं और असल निशाना है। हालिया 5 राज्यों के चुनावों, विशेषकर उप्र में, चुनाव की निष्पक्षता, कानूनों में और भी सुधार तथा कठोरता से अमल की जरूरतों ने एक नई बहस को जन्म दे दिया है। उप्र में धर्म-जाति को लेकर सभी दलों ने, मतदाताओं को रिझाने का जो खुला खेल खेला है, उससे तत्काल चुनाव सुधारों में और भी प्रभावी कदमों को न केवल उठाए जाने, बल्कि कठोरता से अमल की जरूरतों को अपरिहार्य बना दिया है क्योंकि यक्ष प्रश्न निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव प्रक्रिया का है। बोगस मतदान के आरोपों ने तो एक तरह से सीधे चुनाव प्रणाली पर ही उंगली उठा दी है। पांचवें चरण के बाद, बुर्के में मुस्लिम महिलाओं के मतदान पर भाजपा की आपत्ति का मामला इतना उछला कि अनचाहे ही मतदाताओं में धर्म और जाति का संदेश पहुंचा जो नियमानुसार नहीं जाना था। कहीं न कहीं नियमों और मौजूदा तकनीकी में कमियों के चलते आयोग के तमाम आदर्श नियम केवल कागजों में सजे, संवरे, दबे रह गए और हर दल अपने छुपे एजेण्डे पर काम कर गया।
हालांकि, पर्दानशीं महिलाओं की पहचान के लिए नियम है। जब वो मतदान के लिए आती हैं, केन्द्र पर महिला कर्मचारी हों जो चादर या पर्दे से बने प्राइवेट केबिन में चेहरा देखकर, पहचान पुख्ता करें। लेकिन व्यव्हारिक कठिनाई महिला कर्मचारियों, अधिकारियों की कमीं है जो दूर दराज मतदान केन्द्रों पर और भी बढ़ जाती है। बड़ा सवाल यह कि हाईटेक होते भारत में ऐसी पहचान की क्या जरूरत? वह भी तब, जब संविधान ने मतदाता को धर्म निरपेक्ष माना है। रोचक संदर्भ यह कि संविधान सभा में मतदाता की भूमिका पर बड़ी बहस हुई थी और तब दिवाकर कमेटी बनाई गई। जिसने प्रस्तावित किया कि मतदाता पूरी तरह से धर्म निरपेक्ष होगा, धर्म-जाति को पहचान में शामिल नहीं किया जाएगा।
मजेदार बात यह थी कि 1951 में पहली मतदाता सूची बननी शुरू हुई तो कई विचित्रताएं सामने आईं उसमें भी उत्तर प्रदेश से सबसे ज्यादा। मतदाताओं का नाम भी अजीबो गरीब तरीके से लिखा गया जैसे अमुक की बहन, अमुक की बीवी, अमुक की पोती, अमुक की नाती अर्थात महिलाओं ने पर्दा प्रथा, लज्जा, संकोच के चलते अपने नाम नहीं बताए और सूची तैयार कर रहे कर्मचारी विवश थे क्योंकि नाम तो दर्ज करना था। इस तरह सांकेतिक पहचान युक्त पहली सूची बनी। जब इसकी जानकारी कैबिनेट के पास पहुंची तो तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इस पर आपत्ति की और कहा कि ऐसे नाम की जगह उस असली मतदाता का नाम चाहिए। 1954 में बनी सूची में इसे दूर किया गया।
अब बुर्के को लेकर एक नई बहस! धर्म विशेष की पहचान बताकर दूसरे धर्मावलंबियों को प्रभावित करना तो नहीं? क्योंकि सबको पता है कि चुनाव परिणामों को प्रभावित करने के लिए केवल 1-2 प्रतिशत मत ही काफी होते हैं। ऐसे में मतदाताओं को प्रभावित करके जीतने वाली सीटों के अंकगणित को अपने पक्ष में करने का हथकंडा तो नहीं? बुर्के से उठे सवाल से ही सही, सीख लेते हुए मतदाता की पहचान हाईटेक पध्दति से होने लगे तो निश्चित रूप से जहां बोगस मतदान की संभावना समाप्त होगी वहीं स्वचलित रूप से मतदाता की उपस्थिति का आंकड़ा ईवीएम से इतर अलग मशीन में होगा जिससे मतदान दल का समय और सहूलियतें बढ़ेंगी। निश्चित रूप से इससे फर्जी मतदान पर भी पूर्ण विराम लगेगा। सार्वजनिक वितरण प्रणाली, गैस सब्सीडी, बैंक खातों, तमाम सरकारी योजनाओं में आधार अनिवार्य है तो मतदान के लिए अनिवार्य कर, धर्म की ओट की ऐसी बहसों को पूर्ण विराम नहीं दिया जा सकता?
न केवल फर्जी मतदान बल्कि एक ही व्यक्ति द्वारा बार-बार मतदान को रोकने, थोड़ा सा तकनीक बदलाव ही काफी है जो इसे शत-प्रतिशत रोक देगा। आधार बनाम अंगूठा हर किसी की पहचान है। जरूरत है हर बूथ पर पॉश मशीन के साथ आधार से लिंक वार्डवार मतदाता सूची हो। देश के कई सुदूरवर्ती अंचलों में संचार सिगनलों के न पहुंच पाने पर वैकल्पिक और 100 प्रतिशत टेम्पर प्रूफ गैजेट्स का उपयोग हो सकता है। यह कागजी पुलिंदों से सस्ते अपितु शत-प्रतिशत विश्वसनीय बार-बार उपयोग में आने वाले बल्कि कागज बचाओ, वृक्ष बचाओ हरियाली बढ़ाओ को चरितार्थ करेंगे।