तीन प्रमुख राज्यों में पराजय को भाजपा के राजनीतिक अवसान के रूप में भी व्याख्यायित किया जा रहा है। ये 2019 के आम चुनाव के पूर्व के अंतिम विधानसभा चुनाव थे इसलिए इसे 2014 की तुलना में भाजपा के लिए प्रतिकूल परिस्थितियों का संकेतक बताना अस्वाभाविक नहीं है। इन राज्यों में लोकसभा की 83 लोकसभा सीटें हैं। इनमें 2014 में भाजपा ने 63, कांग्रेस ने 6 तथा टीआरएस ने 11 सीटें जीतीं थीं। 3 राज्यों- मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ एवं राजस्थान को अलग करके देखें तो यहां की 65 लोकसभा सीटों से भाजपा को 62 सीटें मिलीं थीं।
इनमें भाजपा की पराजय का मतलब है भविष्य की राष्ट्रीय राजनीति में उसकी हैसियत कमजोर होना। सीधा निष्कर्ष यही है कि अगर भाजपा को केंद्र की सत्ता बनाए रखनी है तो उसे 2019 में 2014 की स्थिति तक पहुंचना होगा तथा तेलंगाना में अपना प्रदर्शन बेहतर करना होगा। इसके समानांतर यदि कांग्रेस को 2014 के अपने सबसे बुरे अंक गणित से निकलकर केंद्रीय सत्ता की दावेदारी करनी है तो उसे कई गुना बेहतर प्रदर्शन करना होगा। 3 प्रमुख राज्यों में मिली विजय कांग्रेस के लिए निस्संदेह, आशा की मजबूत किरण बनकर आए हैं।
चुनाव में सामूहिक माहौल एक बड़ा कारक होता है। इन चुनावों के पहले माना जाता था कि कोई पार्टी या नेता नरेन्द्र मोदी और भाजपा को ऐसी चुनौती देने की स्थिति में नहीं है कि वो इसे बड़ा राजनीतिक नुकसान पहुंचा सके। राहुल गांधी में तो भाजपा के धुर विरोधी भी संभावना नहीं देख रहे थे। भाजपा के विरुद्ध एकजुटता की बात करने वाले कई नेता राहुल गांधी को लेकर नकारात्मक धारणा रखते थे। राहुल ने राफेल सौदे से लेकर नोटबंदी, जीएसटी या अन्य कई मामलों में जो कुछ बोला, उनसे असहमत होने के पर्याप्त कारण हैं। हिन्दुत्वनिष्ठ होने की उनकी जो छवि बनाई गई, उस पर भी प्रश्नवाचक चिन्ह खड़े हैं।
बावजूद इसके, चुनाव परिणामों का एक संदेश यह निकला है कि राहुल गांधी राष्ट्रीय स्तर पर एकमात्र नेता हैं जिन्होंने मुद्दों और व्यक्तित्व दोनों स्तरों पर मोदी और अमित शाह को चुनौती दी तथा उसमें वे एक हद तक सफल रहे हैं। इस संदेश को कांग्रेस चुनावों तक प्रचारित करेगी। दूसरे, विपक्षी दलों ने भी कहना आरंभ कर दिया है कि जनता ने मोदी एवं भाजपा की नीतियों के विरुद्ध असंतोष प्रकट कर दिया है, जो 2019 का पूर्व संकेतक है। ऐसी एक समान आवाजों का जो सामूहिक मनोवैज्ञानिक प्रभाव होगा, उसे नकारा नहीं जा सकता।
इस तरह मोदी, अमित शाह एवं भाजपा के लिए राष्ट्रीय राजनीति में चुनौतियां बढ़ गई हैं। राहुल और कांग्रेस के साथ विपक्ष की आक्रामकता बढ़ गई है। आम चुनाव तक विरोधी पार्टियां आसानी से सरकार को ऐसा कोई निर्णय नहीं करने देगी जिससे कि उसको राजनीतिक लाभ हो सके। विरोधियों की यह धारणा मजबूत हुई है कि अगर हम एकजुट हुए, तो मोदी और भाजपा को चुनौती दी जा सकती है। किंतु सब कुछ इतना ही सरल और सपाट नहीं है।
वस्तुत: इसके परे दूसरे पहलू इतने महत्वपूर्ण हैं जिन पर विचार किए बगैर भविष्य की राजनीति की तस्वीर नहीं बनाई जा सकती। चुनाव परिणामों का अंक गणित दूसरी कहानी भी कहता है। मध्यप्रदेश में पराजय के बावजूद भाजपा को कांग्रेस से 47 हजार 827 मत ज्यादा मिले हैं। राजस्थान में कांग्रेस को भाजपा से केवल 1 लाख 77 हजार 699 मत ही अधिक मिले हैं। 44 संसदीय सीटों वाले दोनों राज्यों में जीत-हार का अंतर इतना कम है कि जिसमें भाजपा 2019 के लिए उम्मीद कर सकती है। हां, छत्तीसगढ़ राज्य में 10 प्रतिशत मतों का अंतर बड़ा है। 2019 में भाजपा को कांग्रेस से 10 प्रतिशत मत ही अधिक मिला था और उसने 11 में से 10 सीटें जीती थीं।
जीत-हार के कारणों को समझ लें तो भविष्य की राष्ट्रीय राजनीतिक तस्वीर कुछ और साफ हो जाएगी। मतदाताओं के सामने मुख्य मुद्दे वो नहीं थे जिनको सबसे ज्यादा प्रचारित किया जा रहा है। तीनों राज्यों में भाजपा के विरुद्ध अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण कानून पर उच्चतम न्यायालय के फैसले को संसद में पलटना एक ऐसा मुद्दा था जिससे सवर्णों का एक वर्ग प्रभावित था। भाजपा अब इसमें वापस नहीं लौट सकती, क्योंकि इससे ये जातियां नाराज हो जाएंगी। बावजूद इसके, उसके पास नाराज मतदाताओं को समझाने का वक्त है। यह नाराजगी भी एक सीमा तक ही थी अन्यथा उसे इतना ज्यादा वोट नहीं मिलता।
भाजपा को लेकर उसके कार्यकर्ताओं और समर्थकों के एक वर्ग में हिन्दुत्व के प्रति उदासीनता से निराशा थी। कांग्रेस ने अपनी मुस्लिमपरस्त छवि तोड़ने के लिए राहुल गांधी को जनेऊधारी ब्राह्मण का कार्ड खेला और पुष्कर से उनका एक गोत्र भी सामने आ गया। राहुल गांधी ने मंदिर-मंदिर जाकर तथा हिन्दुत्व पर बयान देकर हिन्दुओं के एक तबके को कछ हद तक प्रभावित किया है। सीपी जोशी ने तो यह भी कह दिया कि कोई कांग्रेसी प्रधानमंत्री ही अयोध्या में राम मंदिर बनवाएगा। यह एक बड़ी चुनौती भाजपा के सामने है। इन चुनावों तक राम मंदिर का मुद्दा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विहिप एवं साधु-संतों के कारण पूरी तरह सतह पर आ चुका है। थोड़े शब्दों में कहें तो कांग्रेस की भूमिका के बाद हिन्दुत्व आगामी चुनाव के लिए एक केंद्रीय मुद्दा के रूप में उभर चुका है।
तो भविष्य की राजनीतिक तस्वीर इससे भी बनेगी कि केंद्र सरकार और भाजपा हिन्दुत्व को लेकर क्या भूमिका अपनाती है। चुनाव परिणामों ने स्पष्ट कर दिया है कि वह अनिर्णय की स्थिति से बाहर निकले या क्षति उठाने के लिए तैयार रहे। भाजपा चुनाव राजग के अंदर रहकर लड़ना चाहती है। हिन्दुत्व के मुद्दों विशेषकर मंदिर निर्माण के लिए रास्ता बनाने का कदम उठाना उनके कुछ सहयोगियों को स्वीकार्य नहीं होगा। किंतु निर्णय नहीं करते हैं तो मूल परंपरागत समर्थकों और कार्यकर्ताओं की नाराजगी तथा उदासीनता के माहौल में चुनाव में जाना पड़ेगा।
हालांकि अगर सरकार राम मंदिर निर्माण के लिए जमीन सौंपने के लिए विधेयक लाती है तो कांग्रेस के सामने निर्णय करने की चुनौती पैदा हो जाएगी। कांग्रेस के लिए विधेयक का समर्थन आसान नहीं होगा। भाजपा के विरोध में 3 राज्यों में मुस्लिम मत उसके अलावा किसी को मिल नहीं सकते थे। दूसरे राज्यों में ऐसा नहीं था। इसलिए तेलंगाना में उसका स्वर अलग था। खैर, ये बाद की बातें हैं लेकिन यह मुद्दा 2019 के लिए महत्वपूर्ण हो गया, इसमें दोराय नहीं।
किसानों की नाराजगी को बड़ा मुद्दा बताना सही नहीं लगता। किसानों की नाराजगी के लिए जिस मंदसौर कांड को सभी सामने रख रहे थे, वहां से भाजपा जीत गई। किसानों की नाराजगी को भविष्य की राजनीति के लिए मोदी सरकार विरोधी मुद्दा बनाने की जो कोशिश हो रही है, उसमें सफलता की संभावना नहीं है। हां, कांग्रेस द्वारा किसानों की कर्जमाफी की घोषणा का थोड़ा असर चुनाव परिणामों पर दिखता लगता है। अगर कांग्रेस 2019 के चुनाव में राष्ट्रीय स्तर पर ऐसी घोषणा करती है, तो फिर भाजपा के लिए समस्या पैदा हो जाएगी।
मुद्दों के बाद राष्ट्रीय राजनीति का मुख्य निर्धारक तत्व पार्टियों के बीच चुनाव पूर्व गठबंधन होगा। तेलुगुदेशम के प्रमुख चन्द्रबाबू नायडू तत्काल गठबंधन के मुख्य सूत्रधार बने हुए हैं। अगर उनका गठबंधन तेलंगाना में बुरी तरह विफल हुआ तो उसकी प्रभाविता को लेकर प्रश्न उठेगा। बसपा ने मध्यप्रदेश में कांग्रेस को समर्थन अवश्य दिया, पर मायावती ने कहा कि वहां वे मन मारकर ऐसा कर रही हैं।
अखिलेश यादव ने भी कांग्रेस को लेकर अनुकूल बयान नहीं दिया। राजधानी दिल्ली में हुई विपक्षी दलों की बैठक में बसपा व सपा शामिल नहीं हुईं। ममता बनर्जी ने भी कांग्रेस के अनुकूल बात नहीं कही। इससे पता चलता है कि भाजपा विरोधी गठबंधन का रास्ता इतना भी आसान नहीं है जितना कि समझा जा रहा है। के. चन्द्रशेखर राव तथा असदुद्दीन ओवैसी ने कहा है कि वे गैरकांग्रेस-गैरभाजपा संघीय मोर्चा के लिए काम करेंगे। इस तरह चुनाव परिणामों के बाद राष्ट्रीय राजनीति में भाजपा विरोधी दो गठबंधनों की संभावना बन रही है।
कुल मिलाकर इन चुनाव परिणामों ने कई संदेश दिए हैं जिनके आधार पर राष्ट्रीय राजनीति का ताना-बाना विकसित होगा। भाजपा हारी है लेकिन उसके लिए संभावनाओं पर पूर्ण विराम नहीं लगा है। कांग्रेस 3 राज्यों में जीती है जिससे गठबंधन में भले मोलभाव की उसकी ताकत बढ़ी है किंतु ऐसी स्थिति में नहीं है जिससे कि यह मान लिया जाए कि वह राष्ट्रीय राजनीति की मुख्य निर्धारक बन गई है। महागठबंधन की चाहत का बलवती होना एक बात है और उसके संपूर्ण रूप से साकार होने का साफ संकेत मिलना दूसरा, जो धुंधलके में उलझा हुआ है।