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चुनाव परिणाम के संदेश स्पष्ट हैं

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अवधेश कुमार

उत्तर प्रदेश जिला पंचायत चुनाव परिणामों ने उन सबको चौंकाया है जो पिछले ग्राम पंचायत चुनाव के आधार पर मान चुके थे कि भाजपा के लिए अत्यन्त कठिन राजनीतिक चुनौती की स्थिति पैदा हो चुकी है।

कुल 75 में से 67 स्थानों पर भाजपा के अध्यक्षों का निर्वाचन निश्चित रूप से कई संकेत देने वाला है। चूंकी इस समय प्रदेश में समस्त राजनीतिक कवायद, बयानबाजी, विश्लेषण आदि अगले वर्ष आरंभ में होने वाले विधानसभा चुनाव की दृष्टि से सामने आ रहे हैं इसलिए कई बार हमारे सामने भी जमीनी सच्चाई नहीं आ पाती।

ठीक है कि जिला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव को हम विधानसभा चुनाव का ट्रेलर नहीं मान सकते। लेकिन इससे प्रदेश की राजनीति के कई पहलुओं की झलक अवश्य मिलती है। वैसे ग्राम पंचायतों के चुनाव को भी हम आगामी चुनाव का पूर्व दर्शन नहीं मान सकते थे, लेकिन उस समय के बयानों और विश्लेषणों को देख लीजिए। बहरहाल, पंचायत चुनावों के राजनीतिक पहलुओं को समझने के पहले यह ध्यान रखना जरूरी है बसपा इन चुनावों से अपने को दूर रखती है और कांग्रेस प्रदेश के राजनीतिक परिदृश्य में कहीं है नहीं। जाहिर है, मुकाबला भाजपा और सपा के बीच ही था। तो इस समय हमारे सामने इन दो पार्टियों की ही तस्वीर है।

तो सबसे पहले सपा। सपा ने पूरे चुनाव पर प्रश्नचिन्ह खड़ा किया है। उसने पुलिस, प्रशासन व चुनाव अधिकारियों पर धांधली के आरोप लगाए हैं तथा इनके विरुद्ध का आयोग में लिखित शिकायत भी की है। अखिलेश यादव अपने बयान में इसे लोकतंत्र का ही अपहरण बता रहे हैं। हम आप इसे जिस तरह लें, लेकिन न कोई निष्पक्ष विश्लेषक इसे न स्वीकार करेगा और न आम जनता के गले ही उतरेगा कि अधिकारियों ने धांधली करके भाजपा उम्मीदवारों को जीता दिया है।

हम पिछले लंबे समय से भारतीय राजनीति का यह हास्यास्पद दृश्य देख रहे हैं कि जब भाजपा के पक्ष में परिणाम आता है तो विपक्ष ईवीएम का सवाल जरूर उठाता है। इसके विपरीत जहां विपक्ष की विजय होती है वहां ईवीएम पर कोई प्रश्न नहीं उठता यानी वह बिल्कुल सही काम कर रहा होता है।

कहने की आवश्यकता नहीं कि हमारी राजनीति में जमीनी वास्तविकता से कटने के कारण शीर्ष स्तर से लेकर नीचे के नेताओं को पता ही नहीं रहता कि आखिर जन समर्थन की दिशा क्या है। चूंकी राजनीतिक दल अपना जनाधार खोने को स्वीकार न कर दोष भाजपा, चुनाव आयोग, ईवीएम के सिर डालते हैं इसलिए वे ईमानदार विश्लेषण नहीं कर पाते और जब विश्लेषण ही नहीं होगा तो फिर जनाधार दुरुस्त करने के कदम भी नहीं उठाए जाते।

वास्तव में इस परिणाम के बाद अखिलेश यादव के साथ सपा के शीर्ष नेताओं को जिले से प्राप्त रिपोर्टों के आधार पर आपस में बैठकर विश्लेषण करना चाहिए था। इससे उनको वस्तुस्थिति का आभास हो जाता। अभी विधानसभा चुनाव में सात आठ महीने का समय है। इसका उपयोग कर सांगठनिक और वैचारिक रूप से अपनी पार्टी को चुनाव के लिए बेहतर तरीके से तैयार करने की कोशिश कर सकते थे। जब आप मानेंगे ही नहीं कि समस्या आपकी पार्टी और आपके जनाधार में है तो आपको सच्चाई नहीं दिख सकती।

मीडिया में ऐसे दृश्य सामने आए जब सपा के वरिष्ठ नेता जिला पंचायत चुनाव में अपने ही नेताओं से गिड़गिड़ा रहे थे। क्यों? इसलिए कि वे स्वयं सपा के लिए काम करने को तैयार नहीं थे। कई जगह तो निर्धारित सपा उम्मीदवारों ने नामांकन के समय ही मुंह फेर लिया। अखिलेश यादव को इनके विरुद्ध कार्रवाई तक करनी पड़ी।
आखिर यह कैसे संभव हुआ की 21 जिला पंचायतों में भाजपा के अध्यक्ष निर्विरोध निर्वाचित हो गए? केवल इटावा में ही सपा उम्मीदवार निर्विरोध निर्वाचित हो सके।

अगर सपा के उम्मीदवार सामने खड़े हो जाते तो कम से कम निर्विरोध निर्वाचन नहीं होता। जब आपकी पार्टी की ही आंतरिक दशा ऐसी है तो कैसे मान लिया जाए कि धांधली से सपा की पराजय हो गई है? अगर सपा सच्चाई को स्वीकार कर नए सिरे से चुनाव के लिए पार्टी एवं जनता के स्तर पर कमर कसने का अभियान नहीं चलाती तो उसके चुनावी भविष्य को लेकर सकारात्मक भविष्यवाणी करनी कठिन होगी।

निश्चित रूप से भाजपा के लिए यह परिणाम आत्मविश्वास बढाने वाला है। खासकर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की लोकप्रियता को लेकर प्रदेश में पार्टी के अंदर या बाहर जो नकारात्मक धारणा निर्मित हुई या कराई गई थी उस पर जबरदस्त चोट पड़ा है। वैसे तो केंद्र ने पहले ही साफ कर दिया था कि योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में ही विधानसभा चुनाव लड़ा जाएगा।

बावजूद सत्य से निराभासी लोगों द्वारा कुछ किंतु परंतु लगाया जा रहा था। इस चुनाव परिणाम के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस भाषा में विजय की बधाई दी है उसने इस पर स्थाई विराम लगा दिया है। उन्होंने कार्यकर्ताओं के साथ इसे योगी के नेतृत्व की विजय करार दिया है।

अगर चुनाव में इतना शानदार प्रदर्शन नहीं होता तो योगी का नेतृत्व भले कायम रहता, न केंद्रीय नेतृत्व इस तरह बधाई देता न उनका स्वयं का आत्मविश्वास बढ़ता और न कार्यकर्ताओं में उत्साह पैदा होता। तो जिला पंचायत चुनाव को भले हम आप विधानसभा चुनाव की पूर्वपीठिका नहीं माने लेकिन आत्मविश्वास का यह माहौल योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में भाजपा को पूरे उत्साह से विधानसभा चुनाव में काम करने को प्रेरित करेगा। किसी भी संघर्ष में चाहे वह चुनावी हो या फिर युद्ध का मैदान आत्मविश्वास और उत्साह की परिणाम निर्धारित करने में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यह स्थिति भविष्य की दृष्टि से भाजपा के पक्ष में जाता है और स्वभाविक ही विपक्ष के विरुद्ध।

यहां से अगर कुछ अप्रत्याशित नकारात्मक स्थिति पैदा नहीं हुई तो हम चुनाव तक भाजपा को गतिशील और आक्रामक तेवर में देख सकते हैं जो उसकी स्वाभाविकता है। पश्चिम बंगाल चुनाव के बाद यह गुम दिख रहा था। भाजपा की दृष्टि से इस समय उत्तर प्रदेश का राजनीतिक परिदृश्य देखिए।

योगी के नेतृत्व में प्रदेश पार्टी ईकाई को एकजुट किया जा चुका है, केन्द्रीय नेतृत्व काफी पहले से चुनाव की दृष्टि से सक्रिय है,नेताओं के अलावा पूरे प्रदेश के जिम्मेवार कार्यकर्ताओं से संपर्क-संवाद का एक चरण पूरा हो गया है, विधायकों के प्रदर्शन तथा जनाधार का सर्वेक्षण आधारित अध्ययन भी आ चुका है। विपक्ष इस मामले में काफी पीछे है। विपक्ष के बीच जब एकजुटता नहीं होती तथा वे अपने चुनावी भविष्य को लेकर अनिश्चय में होते हैं तो इसका लाभ सामान्य सत्तारूढ़ पार्टी को मिलता है।

उत्तर प्रदेश में अभी सपा, बसपा और कांग्रेस के बयानों को देखें। वे भाजपा के साथ स्वयं भी एक दूसरे को कटघरे में खड़ा कर रहे हैं। जिला पंचायत चुनाव के बाद समय को भांपते हुए जिस तरह का संयम ,धैर्य और बुद्धि चातुर्य का इन्हें परिचय देना चाहिए इनका आचरण उसके विपरीत है। बसपा कह रही है कि कांग्रेस, भाजपा और सपा के शासन में कभी निष्पक्ष चुनाव हो ही नहीं सकता जबकि बसपा के काल में होता है।

कांग्रेस कह रही है कि बसपा भाजपा की बी टीम है। जवाब में बसपा कह रही है कि कांग्रेस के सी का मतलब कनिंग है। 2014 से 2019 तक के चुनाव परिणामों ने साबित किया कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में भाजपा शीर्षतम बिंदु पर है और शेष दल इतने नीचे हैं कि सामान्य अवस्था में उनके वहां तक पहुंचने की कल्पना नहीं हो सकती। पिछले तीन दशकों में कोई भी पार्टी चुनाव परिणामों में भाजपा की तरह सशक्त होकर नहीं बढ़ी। जिला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव परिणामों ने यही संदेश दिया है कि कम से कम अभी उसके बड़े पराभव के दौर की शुरुआत नहीं हुई है।

विपक्षी दलों ने इन सात वर्षों में वैचारिकता, संगठन और राजनीतिक संघर्ष व अभियानों के स्तर पर संदेश तक नहीं दिया कि वे प्रदेश की राजनीति में भाजपा के वर्चस्व को तसशक्त चुनौती देने से संकल्पित भी हैं। चुनाव के पूर्व कुछ दलों से गठबंधन, जातीय एवं सांप्रदायिक समीकरणों को साधने आदि नुस्खे विफल साबित हो रहे हैं।
जिला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव परिणामों के बाद भी विपक्ष की ओर से किसी तरह की राजनीतिक प्रखरता और ओजस्विता नहीं प्रदर्शित हो रही, मिलजुल कर मुकाबला करने का संकेत तक नहीं मिल रहा।

इसमें यह मान लेना कठिन है कि जिला पंचायत अध्यक्षों का चुनाव परिणाम विधानसभा तक विस्तारित नहीं होगा। हां अगर इस चुनाव परिणाम से चौकन्ना होकर सपा, बसपा जैसी पार्टियां कमर कसकर अभी से प्रखर राजनीतिक अभियान चलाने, मुद्दों पर संघर्ष करने का माद्दा दिखाती तो हल्की उम्मीद पैदा हो सकती थी। जब ऐसा है ही नहीं तो फिर इनके पक्ष में परिणाम आने की कल्पना इस समय नहीं की जा सकती।

(आलेख में व्‍यक्‍त विचार लेखक के निजी अनुभव हैं, वेबदुनिया का इससे कोई संबंध नहीं है।)


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