पर्यावरण मित्र बनने के गुण बच्चे को घुट्टी में ही दीजिये वरना जो त्रास हम आप भुगत रहे हैं उससे बद्तर की काल्पना तो कीजिये, चक्कर आ जायेगा। संवेदनशीलता को खत्म होते हम देख रहे हैं। मानवीयता/इंसानियत के गुणों का धीरे-धीरे होता खात्मा हमें चेतावनी दे रहा है।
									
			
			 
 			
 
 			
					
			        							
								
																	सांसों का संघर्ष हमें प्रकृति का श्राप क्यों नहीं लगता? भविष्य के लिए चेतना जरुरी है। धरती सजाइए, उसके कर्ज से मुक्ति के रास्ते निकालिए। इसकी शुरुवात अपने घरों से कीजिये। अपने बच्चों से जो आने वाले कल के कर्णधार होंगे।
									
										
								
																	उन्हें साझेदारी, सहृदयता, संवेदनशीलता का पाठ पढ़ाएं। हमारे बड़े खाने की चीजों का लेन-देन बच्चों को खेल-खेल में सिखाते थे। पशु-पक्षी को भी उनके ही हाथों से दाना-खाना दिलवाते। घर का हरा कचरा, रोटी, सूखे-हरे पत्ते, अन्य खाने का सामान गली महल्ले के पशुओं के लिए सम्हाल लिए जाते थे। यहां तक कि वे पशु-पक्षी उस घर और सदस्यों को पहचानते थे जहां उन्हें सामग्री मिलती। नहीं मिलने पर जोर-जोर से रंभाते, आवाजें लगाते, दरवाजे भी भड़ीकते याद दिलाने के लिए। पूरा अधिकार होता था उनका हम पर। घर पर।
									
											
									
			        							
								
																	कई तरह की चिड़ियाएं, गिलहरियां यहां तक कि मोर भी आ जाया करते थे छतों, मैदानों पर। सांपों को भी मारना पाप होता था। जहरीले जानवरों को भी पकड़ बोरे में बंद कर दूर छोड़ा जाता था। चींटी मरने पर भी टोकने वाली पीढ़ी अब नदारद हो चली है। नन्हे दिलों पर हिंसक और क्रूर मशीनी खेलों की छाप पड़ रही है। एकल परिवार हो चले हैं, माता-पिता के पास बच्चों के लिए समय नहीं।
									
											
								
								
								
								
								
								
										
			        							
								
																	चींटी से लेकर हाथी तक के जीव-जंतुओं के संरक्षण को हमारे धर्म से कहीं न कहीं जोड़ा है। पेड़-पौधों की महत्ता को आदर भाव के साथ स्वीकार किया है। बचपन में चींटी के बिलों में भी आटा बुरकने वाला मेरा ये देश आज प्रकृति के असंतुलन का कोप भजन बना हुआ है। क्यों?  क्या हम बेपरवाह लोग प्रकृति की उदारता का नाजायज फायदा नहीं उठाने लगे? उनकी विनम्रता, देने के स्वभाव को कायरता नहीं समझने लगे? उन बेजुबानों पर घात नहीं करने लगे। जानते हुए भी कि सृष्टि का निर्माण एक-दूसरे के समन्वय के लिए हुआ है। हम मानव तो पूर्णरूप से पर्यावरण पर ही जिन्दा हैं। चाहे वो आतंरिक हो या बाहरी।
									
			                     
							
							
			        							
								
																	पढ़े लिखे लोग जानते हैं कि पर्यावरण दो शब्दों 'परि' एवं आवरण से मिलकर बना है। जिसमे 'परि' शब्द का अर्थ है चारों ओर से' तथा आवरण शब्द का अर्थ है 'घेरे या ढके हुए' से होता है। इस प्रकार हमारे चारों ओर के आवरण को ही पर्यावरण कहा जाता है। चारों ओर के आवरण के भीतर जो कुछ भी सम्मिलित है, पर्यावरण के अंतर्गत ही आता है पर्यावरण एक व्यापक शब्द है। पर्यावरण का से आशय समूचे भौतिक एवं जैविक विश्व से है जिसमे जीवधारी रहते है, बढ़ते है, पनपते है और अपनी स्वाभाविक प्रकृतियों का विकास करते हैं। किताबों में भी पढ़ते हैं पर अमल कहां करते हैं?
									
			                     
							
							
			        							
								
																	धर्म के साथ साथ पर्यावरण संरक्षण अनिवार्य शर्त होना चाहिए। लकड़ियों और ऑक्सीजन की कमी से उपजा ये मौत का तांडव हमारे लिए अंतिम सबक है। घुट्टी में पिलाइए अपने बच्चों को पेड़-पौधे और पशु-प्राणिमात्र से प्रेम करना। सिखाइए उन्हें बीज सहेजना, रोपना, उन्हें पालना-पोसना। वैसे ही जैसे आप उन्हें जी जान से बड़ा कर रहे। बताइए उन्हें काल का क्रूर तांडव तहस-नहस कर देता है जीवन। मौन रह कर। चुपचाप। बिना आवाज किये। हर लेते हैं ये सारी खुशियां हमारी, वैसे ही जैसे हमें उन्हें काटते समय उनकी सिसकियां नहीं सुनाई देतीं। समझाइए बच्चों को ये भी कि लेते हैं प्रतिशोध वे गिन-गिन के अपना और अपने साथियों का वैसे ही जैसे हम उन्हें सताते हैं। उनकी बदहाली करते हैं। उनका विनाश करते हैं।
									
			                     
							
							
			        							
								
																	जो अकल्पनीय त्रास भोगा है हमने विगत वर्षों में उतना काफी है या और भुगतना बाकी है? यदि चाहते हैं कि आगे ये नरक और विनाश थमे तो तुरंत माफ़ी मांगिये प्रकृति और पर्यावरण से। बच्चों के सोलह संस्कारों के साथ जोड़िये नए अनिवार्य संस्कार पर्यावरण–रक्षा अपने अपने धर्मों के साथ। पाप मुक्त होने का यही एक मार्ग है। सिर्फ एक दिन के लिए संकल्प से नहीं बल्कि आजन्म और पीढ़ी दर पीढ़ी को निभाने के वचन से....