चुनाव आयोग द्वारा मतदान तिथियों की घोषणा के साथ लोकसभा चुनाव की औपचारिक शुरुआत हो गई है। जैसा मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार ने पत्रकार वार्ता में बताया कि विश्व के कई महाद्वीपों की जनसंख्या से ज्यादा हमारे देश के मतदाताओं की संख्या है। कुल मतदाताओं की संख्या 96.88 लाख करोड़ है, जिनमें पुरुष मतदाता 49.7 करोड़ तथा महिला 47.01 करोड़ हैं। इस चुनाव में 10.5 लाख मतदान केंद्र होंगे जहां 55 लाख से ज्यादा इवीएम में लोग वोट डालेंगे।
विश्व के किसी कोने के आम व्यक्ति को एहसास भी नहीं होगा कि इतना बड़ा चुनावी व्यवस्था और तंत्र कहीं संभव है। वास्तव में भारतीय संसद के निचले सदन लोकसभा चुनाव पर हमेशा से विश्व की दृष्टि रही है। विश्व के नेताओं और विश्लेषकों में आज भी ऐसे लोग हैं जो भारत के इतने बड़े चुनाव के शांतिपूर्ण संपन्न हो जाने पर आश्चर्य व्यक्त करते हैं।
स्वतंत्रता के बाद हमारे देश में 17 आम चुनाव तथा लगभग 400 विधानसभा के चुनाव संपन्न हो चुके हैं। अगर छोटे चुनावों को देखें तो 16 राष्ट्रपतियों एवं उपराष्ट्रपतियों का चुनाव भी इसी तरह संपन्न कराया जा चुका है। निश्चित रूप से इसमें चुनाव आयोग की प्रमुख भूमिका होती है लेकिन देश का राजनीतिक प्रतिष्ठान और मतदाताओं का अपनी व्यवस्था के प्रति सम्मान एवं अनुशासन नहीं हो तो यह संभव नहीं हो सकता।
वास्तव में हम अपनी व्यवस्था, राजनीतिक दलों, मतदाताओं की सोच और व्यवहार की आलोचना करते हैं पर संसदीय लोकतंत्र का जो ढांचा, उससे जुड़ी हुई जो व्यवस्थाएं हमारे समक्ष उपस्थित हैं और विश्व समुदाय की प्रशंसा पाती हैं वह इनके बगैर संभव नहीं हो सकता। इस चुनाव की विशेषता यह है कि पहली बार एक करोड़ 82 लाख मतदाता पहली बार अपना वोट डालेंगे। 20 वर्ष से 29 वर्ष के बीच के मतदाताओं की संख्या 19 करोड़ 74 लाख है। इतनी बड़ी युवा आबादी किसी देश का भविष्य होती है और मतदान द्वारा भविष्य के सत्ता और विपक्ष की भूमिका तय करने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
कोई भी व्यवस्था संपूर्ण रूप से दोषरहित नहीं होती। किंतु इतनी संख्या में मतदाताओं को संभालने के लिए लगभग 1.5 करोड़ चुनाव अधिकारी और सुरक्षा कर्मियों के साथ 2100 पर्यवेक्षकों की भूमिका होती है। कुल 3 लाख 40 हजार से अधिक सुरक्षा बल के जवान तैनात होंगे, जिनमें सबसे ज्यादा पश्चिम बंगाल में 92,000 तथा उसके बाद जम्मू कश्मीर में 36,000 होंगे। इसलिए हमारी वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था के संचालन में इन सबकी भूमिका स्वीकार करनी होगी।
लोकसभा चुनाव हम सबको अपने उत्तरदायित्वों का भान कराता ही है यह अवसर इसका भी अहसास कराता है कि जिन्हें हम हर स्तर पर सत्ता शीर्ष पर देखते हैं केवल उनकी ही भूमिका हमारी व्यवस्था तंत्र को आगे ले जाने और बनाए रखने में नहीं होती।
भारी संख्या में लोग समय-समय पर इसमें योगदान करते रहते हैं। यह देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था की संवेदनशीलता है जिसमें चुनाव आयोग यहां तक घोषणा कर चुका है और इसकी व्यवस्था भी है कि जो मतदाता मतदान केंद्रो तक पहुंचने की स्थिति में नहीं हैं वह घर से मतदान का विकल्प चुनते हैं तो उन्हें उपलब्ध होगा। अगर कहीं एक मतदाता ऐसा होगा तो उसके भी मतदान की व्यवस्था कराई जाएगी। यह पहली बार होगा जब 85 से अधिक उम्र और 40 प्रतिशत से ज्यादा दिव्यांग वाले अपने घर से मतदान कर सकेंगे।
चुनाव आयोग द्वारा दिए गए आंकड़ों के अनुसार 85 वर्ष से अधिक उम्र के 82 लाख पंजीकृत मतदाता है, जबकि 2.38 लाख मतदाताओं की उम्र 100 वर्ष से अधिक है। यानी इन मतदाताओं ने अपने देश का पहला आम चुनाव भी देखा होगा या इनमें से कुछ नहीं मतदान भी किया होगा। 88.35 लाख दिव्यांग मतदाताओं की संख्या है। व्यवस्था में कमियां हैं किंतु यही इन सारे लोगों को लोकतांत्रिक प्रक्रिया का अंग बनाने की तैयारी भी दिखाता है।
यही अप्रोच हमारे चुनाव प्रणाली को आज काफी सहज, सरल, सुगम और सुरक्षित बनाने में प्रमुख कारण रहा है। अगर एप्रोच में संवेदनशीलता और स्पंदनशीलता नहीं हो तो न इतना ज्यादा मतदाता जागरूकता अभियान चलाने और न ही सुरक्षा से लेकर मतदान को भ्रष्टाचार व कदाचार से मुक्त रखने के लिए इतना भारी भरकम तंत्र उपयोग में लाया जाता। एक समय था जब भारत में महिलाओं का मतदान प्रतिशत कम होता था। किंतु अब यह स्थिति बदली है।
विधानसभाओं से लेकर लोकसभा चुनावों में अनेक स्थानों पर मतदान करने वाली महिलाओं की संख्या ज्यादा रही है। वैसे भी 12 राज्यों में महिला मतदाताओं की संख्या पुरुष मतदाताओं से ज्यादा हो गई है। यानी महिलाओं में भी स्वयं को मतदाता के रूप में पंजीकृत कराने की जागरूकता बढ़ी है। इसकी कल्पना काफी पहले नहीं थी। चुनाव आयोग के आंकड़े बताते हैं कि लगातार आम चुनाव में मतदान प्रतिशत बढ़ रहा है।
यह सब यूं ही नहीं हुआ है। चुनाव आयोग और अन्य संस्थाएं मतदाता जागरूकता अभियान चलाते हैं तो इसके साथ अगर मतदाताओं को अपनी सुरक्षा का विश्वास नहीं हो तो काफी संख्या मतदान केंद्रों तक नहीं जाएंगे। देश में जब राजनीति के अपराधीकरण का दौर था, बाहुबली मत लूटते थे, हत्या तक करते थे तब काफी संख्या में आम लोग मतदान करने से दूर रहते थे। यह स्थिति बदल गई है। इनमें चुनाव आयोग, न्यायपालिका मीडिया सबकी भूमिका है। किंतु राजनीतिक दलों को अलग कर दें तो इसका विश्लेषण पूरा नहीं होगा।
राजनीतिक दलों ने अपराधियों और भ्रष्टाचारियों को अपने यहां स्थान दिया, उनको महत्व दिया, टिकट दिया माननीय विधायक व सांसद से लेकर मंत्री तक बनाया। किंतु दूसरी ओर राजनीतिक दलों ने उनके विरुद्ध आवाज़ भी उठाई और अनेक दलों ने धीरे-धीरे ऐसे लोगों को अपने यहां महत्व देना काम किया है। चुनाव आयोग ने कई बातें कहीं हैं जो हम सबके लिए चिंता का विषय होना चाहिए। इस बात पर चिंता व्यक्त किया है कि पिछले विधानसभा चुनावों में 3400 करोड़ अवैध धन पकड़े गए। यह बहुत बड़ी राशि है और लोकसभा चुनाव में भी न जाने कितने करोड़ पकड़े जाएंगे।
वास्तव में बाहुबलियों के प्रभाव से चुनाव काफी हद तक मुक्त हुआ है लेकिन धनबल का वर्चस्व बढ़ता गया है। हर चुनाव में देखा गया है कि अलग-अलग तरीकों से उम्मीदवार के लोग मतदाताओं तक धन पहुंचाने की कोशिश करते हैं। धनबल के प्रभाव पर आयोग ने चिंता व्यक्त की है तो यह सबकी जिम्मेदारी है कि आयोग और प्रशासन को सहयोग करते हुए चुनाव को धन के प्रभाव से मुक्त करने में सहयोगी बने। इसी तरह चुनाव आयोग ने फेक न्यूज़ को लेकर भी बात की है। आयोग ने चेतावनी भी दी है।
सोशल मीडिया और कई बार मुख्य मीडिया के माध्यम से अलग-अलग तरीकों से ऐसे झूठ फैलाए जाते हैं जो पहली दृष्टि में देखने पर लगते हैं सच ही होंगे। किसी आरोप में ऐसे झूठे आंकड़े और तथ्य होते हैं तथा स्रोत तक लिख दिए जाते हैं जिनका कोई अता-पता नहीं होता। इसी तरह जातीय सांप्रदायिक वोटों के ध्रुवीकरण की दृष्टि से भी झूठ समाचार फैलाने की लगातार कोशिश होती है।
इन सब पर दृष्टि रखना, इसके पीछे के लोगों को पकड़ना तथा इन्हें नियंत्रित करना अत्यंत कठिन कार्य है। इसमें आम मतदाताओं का सहयोग आवश्यक होता है। हालांकि इसके चक्कर में अगर सही समाचार और तथ्य हों तो उनको आरोपित करके न फंसाया जाए इसका भी ध्यान रखा जाना चाहिए।
सभी जातीय और धार्मिक बातें विद्वेष के लिए नहीं होती। उदाहरण के लिए अगर सनातन पर हमले का उत्तर दिया जाए या श्रीराम मंदिर का मुद्दा उठे और इसमें दूसरे किसी समुदाय के प्रति घृणा, विद्वेष या किसी के विरुद्ध हिंसा के लिए उकसाने का भाव नहीं हो तो यह आचार संहिता का उल्लंघन नहीं हो सकता।
कुल मिलाकर विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक चुनावी प्रक्रिया को अधिक से अधिक पारदर्शी स्वच्छ शांतिपूर्ण और सुरक्षित बनाने की जिम्मेवारी सब पर है। चुनाव आयोग ने कहा है कि हम पिछले दो साल से परिश्रम कर रहे थे। चुनाव आयोग की अपनी सीमाएं हैं। उसे भी आचार संहिता से लेकर अन्य मामलों में स्थानीय पुलिस और न्यायालय की ही शरण लेनी पड़ती है। देखना होगा हम सब इन मामलों में कितना जिम्मेवार और सतर्क होने की भूमिका निभा पाते हैं।
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)