कृषि कानूनों के विरोध में जारी धरना लगभग एक वर्ष बाद खत्म हो गया। कोई भी आंदोलन स्थाई नहीं होता। एक न एक दिन आंदोलन खत्म होता ही है। इस आंदोलन को खत्म होना ही था।
लेकिन जिस ढंग से किसान संगठनों के कुछ नेताओं ने अड़ियल रवैया अपनाया था, उससे संदेह होने लगा था कि शायद यह और लंबा खिंच सकता है।
दिल्ली की सीमाएं खाली होने के बाद वे लाखों लोग राहत की सांस ले रहे होंगे, जिनकी दैनिक जिंदगी इस घेरेबंदी से प्रभावित थी। इसी तरह सारे फैक्ट्री मालिक और व्यापारी तथा उनसे जुड़े लोग भी ईश्वर को धन्यवाद दे रहे होंगे कि उन्हें फिर से पूरी गति से काम करने का अवसर दिया।
इनकी चर्चा इसलिए आवश्यक है ताकि देश के ध्यान में रहे कि कृषि कानूनों के विरोध में कुछ किसान संगठनों की जिद के कारण लाखों लोगों की जिंदगी परेशानी से भर गई, अनेक रोजगार खत्म हुए, व्यापार प्रभावित हुए, कारखानों के उत्पादन गिर गए आदि आदि।
इसलिए सरकार द्वारा मांगे माने जाने के बाद जश्न मना रहे इन संगठनों के नेताओं, कार्यकर्ताओं का उत्साह देखकर सच कहें तो उन लोगों के अंदर खीझ पैदा हो रही थी। देश में भी ऐसे लोगों की भारी संख्या है, जो उनके व्यवहार से क्रुद्ध थे। वास्तव में आंदोलन खत्म होना उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना यह खत्म कैसे हुआ। अब धरना समाप्त हो चुका है तो शांत मन से सत्ता और विपक्ष के सभी राजनीतिक नेताओं, विवेकशील और जानकार लोगों को विचार करना चाहिए कि क्या वाकई इस तरह इन धरनों का खत्म करना उचित है?
वास्तव में इसके साथ न तो इससे संबंधित बहस और मुद्दे खत्म हुए और न कृषि और किसानों से जुड़ी समस्याएं ही। प्रधानमंत्री द्वारा राष्ट्र के नाम संबोधन में तीनों कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा तथा बाद में इन नेताओं की ज्यादातर मांगे मांग लेने के बाद विपक्ष एवं विरोधी सरकार का उपहास उड़ा रहे हैं। यह स्वाभाविक है।
भारतीय राजनीति की दिशाहीनता और वोट एवं सत्ता तक सीमित रहने के संकुचित चरित्र में हम आप इससे अलग किसी तरह के व्यवहार की उम्मीद नहीं कर सकते। कोई यह सोचने को तैयार नहीं है कि क्या वाकई यह धरना या आंदोलन इतना महत्वपूर्ण था जिसके सामने सरकार को समर्पण करना चाहिए? लोकतंत्र में जिद और गुस्से से कोई समस्या नहीं सुलझती। कई बार चाहे- अनचाहे आपको झुकना पड़ता है और इसे मान अपमान का विषय नहीं बनाया जाना चाहिए। बावजूद प्रश्न तो उठेगा।
पिछले वर्ष सरकार ने किसानों से 11 दौर की वार्ताओं में और उसके बाद स्पष्ट कर दिया था कि किसी कीमत पर कृषि कानूनों को वापस नहीं लेगी। सरकार ने दृढ़ता दिखाई दी थी। आखिर लंबी प्रतीक्षा के बाद कृषि क्षेत्र में सुधार के साहसी निर्णय किए गए थे। उसमें थोड़ी कमियां हो सकती है लेकिन कुल मिलाकर देश में कृषि से जुड़े विशेषज्ञ, नीतियों की थोड़ी समझ रखने वाले किसान दिल से चाहते थे कि ये कानून लागू हों तथा उद्योगों की तरह निजी क्षेत्र कृषि में भी उतरें।
स्व. चौधरी देवीलाल ने कृषि को उद्योग के समक्ष मानने की आवाज उठाई तो व्यापक समर्थन मिला था। सच यही है कि कुछ किसान संगठनों के नेता और कार्यकर्ता भले इसे विजय मानकर उत्सव का आनंद लें , देश भर में कृषि और किसानों की समस्याओं को समझने और उसके समाधान की रास्ता तलाशने की दिशा में विचार करने वाले निराश हैं और उनके अंदर खीझ भी पैदा हो हुई है।
सरकार ने न केवल कृषि कानूनों की वापसी की बल्कि जो अनावश्यक और झूठ पर आधारित मांगे इन लोगों ने रखी उन सबको स्वीकार कर लिया। 26 जनवरी को राजधानी दिल्ली में ट्रैक्टरों से पैदा किए गए आतंक और मचाए गए उत्पात देश भूल नहीं सकता। कानून की वैसी धज्जियां उड़ाने वालों के खिलाफ कार्रवाई स्वाभाविक थी। सरकार के इस रुख के बाद तो दोषी माने ही नहीं जा, सकते। लाल किले पर देश को अपमानित करने वाले अब सही माने गए।
जिन पुलिसवालों को उन्होंने दीवारों से छतों से धक्का देकर गिराया और घायल हुए उनके बारे में कोई आवाज उठाने को तैयार नहीं। इन धरनों में खालिस्तान समर्थक तत्व अपने झंडे- बैनर तक के साथ देखे गए, लाल किले पर उधम मचाने वालों में वे शामिल थे। मीडिया में उनकी तस्वीरें वीडियो उपलब्ध है।
सारे मुकदमे वापस होने का मतलब यही है कि उन्हें दोषी नहीं माना गया। पराली कई सौ किलोमीटर के क्षेत्रों में प्रदूषण के मुख्य कारणों में से एक साबित हो चुका है। उसे रोकने के लिए प्रोत्साहन और कानूनी भय दोनों प्रकार के कदम आवश्यक थे। अब इसकी कोई बात करेगा नहीं। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पराली जलाने के विरुद्ध झंडा उठाए थे और केंद्र की निंदा करते थे। उनको चुनाव लड़ना है, इसलिए दिल्ली का प्रदूषण मुद्दा नहीं।
जिन्हें शहीद बताकर मुआवजे की मांग की गई उनके निधन के लिए किन है जिम्मेवार माना जाए? जब सरकार की ओर से एक बार भी बल प्रयोग हुआ नहीं, न गोली चली न लाठी चली लेकिन मुआवजा मिलनी चाहिए। हैरत की बात यह है कि केंद्र सरकार जिसे नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एक दृढ़ संकल्पित सरकार मानी गई उसने इस सीमा तक मांगे मानी।
दिल्ली के इर्द-गिर्द मुट्ठी भर धरनाधारी रह गए थे। देश में कहीं भी इनके समर्थन में किसी प्रकार का आंदोलन या प्रदर्शन नहीं था। भारी संख्या में लोग इनके विरूद्ध आवाज उठा रहे थे। यह बात अलग है कि इनके समानांतर लोग विरोध में कहीं सड़कों पर नहीं उतरे। आज भाजपा के पास अपनी इतनी ताकत है कि वह चाहती तो इनके समानांतर सड़कों पर उतर कर इनका विरोध कर सकती थी। इसलिए यह जरूरी था, क्योंकि कृषि कानूनों के विरोध में जारी आंदोलन एजेंडाधारियों के आंदोलन में परिणत हो चुका था।
उसमें कहीं पर निगाहें कहीं पर निशाना वाला माल मामला साफ दिख रहा था। देश विरोधियों की ताकत इसमें लग गई थी। खालिस्तानी तत्व भारत से लेकर दुनिया भर मेंर सक्रिय थे। आंदोलन के कार्यक्रमों, इसे बढ़ाने संबंधी वर्चुअल बैठकों में कनाडा, अमेरिका, ब्रिटेन और पाकिस्तान तक के भारत के दुश्मन शामिल हुए थे। यह सारी सच्चाई सरकार के सामने थी। इनसे टकराने की आवश्यकता थी या इनके सामने झुक जाने की? यह ऐसा प्रश्न है जिस पर सभी को गंभीरता से विचार करना चाहिए।
सारे तत्व संतुलित और समझदार नहीं कि वे मानेंगे कि सरकार ने देश विरोधी तत्वों को हतोत्साहित करने की दृष्टि से तत्काल किसी तरह धरने को खत्म करने के लिए इस सीमा तक समझौता किया है। इससे उन सबका मनोबल बढ़ेगा। सबसे घातक प्रभाव होगा कि जिन लोगों ने लंबे समय से इस आंदोलन या धरने की सच्चाई को लेकर आवाज उठाई, इनका सामना किया, इनके विरूद्ध जनजागरण किया वे सब अपने को अजीबोगरीब स्थिति में पा रहे हैं।
केवल यही तबका नहीं, जो आचरण में निरपेक्ष रहते हुए भी आंदोलन को बिल्कुल गलत राजनीतिक एजेंडा वाला मानकर इनके खत्म होने की कामना कर रहे थे, उन सबको धक्का लगा है। जहां तक राजनीतिक स्थिति का प्रश्न है तो भाजपा का पंजाब में ऐसा आधार नहीं रहा है जिसके लिए इस सीमा तक जाकर किसानों के नाम पर उठाई गई गैर वाजिब मांगें माननी पड़े।
उत्तर प्रदेश में भी इस आंदोलन का व्यापक प्रभाव नहीं था। राकेश टिकैत के कारण जिस एक जाति की बात की जा रही है उसमें संभव है भाजपा का जनाधार कुछ घटा हो और राष्ट्रीय लोकदल की ताकत बढ़ी हो। वह भी इसी कारण हुआ क्योंकि सरकार ने समय रहते इन धरनों को समाप्त करने के अपने कानूनी अधिकारों और संवैधानिक दायित्वों का पालन नहीं किया। 27 जनवरी को इन धरनों को आसानी से समाप्त किया जा सकता था।
सरकार का उस समय का रवैया और वर्तमान आचरण दोनों नैतिकता, तर्क, कृषि, किसान और देश के वर्तमान तथा दूरगामी भविष्य की दृष्टि सेकतई उचित नहीं है। स्वयं सरकार की छवि पर भी यह बहुत बड़ा आघात है। थोड़ा राजनीतिक नुकसान हो तो भी सरकार को इनके सामने डटना चाहिए था।
इससे नुकासन जायादा होगा। स्वाभिमानी और अपने कर्तव्यों के पालन का चरित्र वाले पुलिस और नागरिक प्रशासन के कर्मियों का भी मनोबल गिरा होगा। आने वाले समय में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, अमित शाह और उनके रणनीतिकारों को इन व्यापक क्षतियों को कम करने या खत्म करने के लिए कितना परिश्रम करना होगा इसे बताने की आवश्यकता नहीं। अगर नहीं किया तो देश को जितना नुकसान इससे होगा वह तो है ही, राजनीतिक दृष्टि से भी भाजपा के लिए काफी नुकसानदायक साबित होगा।
जब उनके कार्यकर्ताओं, समर्थकों और उनकी नीतियों का समर्थन करने वाले सरकारी कर्मियों का मनोबल गिर जाएगा तो फिर किस आधार पर सरकार भविष्य की चुनौतियों का सामना करेगी? यह ऐसा प्रश्न है जो देश के सामने खड़ा है। मुट्ठी भर एजेंडाधारी तथा उनके झांसे में आने वाले नासमझ किसान नेताओं के दबाव में सरकार ने बहुत बड़ा जोखिम मोल ले लिया है। इस तरह धरना खत्म कराने के बाद चुनौतियां बढ़ेंगी, क्योकि किसी नए रूप में यो सब खड़े होंगे।
(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी अनुभव हैं, वेबदुनिया का इससे कोई संबंध नहीं है।)