Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

गांधी Vs मोदी: आखिरी मोर्चे की लड़ाई शुरू हो चुकी है

हमें फॉलो करें गांधी Vs मोदी: आखिरी मोर्चे की लड़ाई शुरू हो चुकी है
webdunia

पीयूष बबेले

, शुक्रवार, 5 अगस्त 2022 (11:15 IST)
भारतीय राजनीति में जो एक सिलसिला पिछले कई साल से चल रहा था, वह अपने आखिरी मोर्चे पर पहुंच चुका है। श्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी ने पहले क्षेत्रीय दलों को अपना ग्रास बनाया। इसमें भाजपा के सहयोगी और भाजपा से मुकाबला करने वाले दोनों तरह के दल शामिल थे।
 
हर क्षेत्रीय दल के साथ अलग-अलग तरह की रणनीति अपनाई गई। राष्ट्रीय जनता दल को कमजोर करने के लिए श्री लालू प्रसाद यादव को जेल में डाला गया। उनके ऊपर बहुत पुराने जमाने के मुकदमे झाड़ पोंछकर निकाले गए। लेकिन श्री यादव ने हार नहीं मानी और वह और उनके पुत्र अभी मैदान में डटे हैं।
 
श्री नीतीश कुमार कहने को भारतीय जनता पार्टी के साथ हैं, लेकिन इस लंबे साथ में वे धीरे-धीरे कमजोर पड़ते गए। आज स्थिति यह है कि विधानसभा में उनकी पार्टी की सदस्य संख्या बहुत नीचे जा चुकी है और वे भाजपा के हाथों की कठपुतली मुख्यमंत्री हैं।

भाजपा का एक अन्य पुराना सहयोगी दल शिवसेना रहा है। शिवसेना ने मराठी अस्मिता के नाम पर अपने लिए मुख्यमंत्री पद मांगा और जब नहीं मिला तो भाजपा से संधि विच्छेद कर कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के सहयोग से सरकार बनाई। लेकिन अंततः भाजपा ने शिवसेना को ठाकरे विहीन कर दिया। भाजपा के सबसे पुराने सहयोगी श्री बाला साहब ठाकरे के बेटे श्री उद्धव ठाकरे को भाजपा ने फिलहाल ठिकाने लगा दिया। भाजपा के तीसरे सबसे पुराने सहयोगी पंजाब के अकाली दल हैं। अकाली दल की राजनीतिक स्थिति भी आप सब से छुपी नहीं है।
 
उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के श्री मुलायम सिंह और बहुजन समाज पार्टी की सुश्री मायावती ने वर्षों तक भाजपा को देश के सबसे बड़े सूबे की सत्ता से बाहर रखा। लेकिन वहां सीबीआई की दस्तक के बाद मामला ठंडा पड़ गया है। बहुजन समाज पार्टी ने जिस तरह समर्पण किया उसके बाद उत्तर प्रदेश की विधानसभा में उसके पास सिर्फ एक विधायक बचा है। समाजवादी पार्टी के श्री अखिलेश यादव ने विधानसभा चुनाव में डटकर मुकाबला किया है, लेकिन उनके दरवाजे पर घूमती सीबीआई और दूसरी तरह के शिकंजे ने उनकी आवाज को कुंद कर दिया है।

बंगाल में सुश्री ममता बनर्जी की पार्टी को विधानसभा चुनाव के पहले भाजपा ने तकरीबन खत्म कर दिया था। शारदा चिटफंड घोटाले और दूसरे मामले उजागर करके भाजपा ने तृणमूल कांग्रेस के ज्यादातर नेताओं को भाजपा में आने के लिए विवश कर दिया था। लेकिन सुश्री ममता बनर्जी ने हार नहीं मानी और चुनाव में शानदार जीत दर्ज की। उसके बाद बहुत से नेता पाला बदलकर वापस तृणमूल में गए। लेकिन अब प्रवर्तन निदेशालय की कार्यवाही नए सिरे से तृणमूल में पलीता लगाने की कोशिश कर रही है। तृणमूल ने जिस तरह से राष्ट्रपति पद के लिए अपना प्रत्याशी बनाया और बाकी विपक्षी पार्टियों ने उसके लिए सहयोग दिया, लेकिन उपराष्ट्रपति चुनाव में भाजपा के प्रत्याशी के खिलाफ वोट डालने से मना कर दिया, उससे पता चलता है कि शिकंजा उससे कहीं ज्यादा मजबूत है, जितना बाहर से दिखाई देता है।

कश्मीर राज्य को भारतीय जनता पार्टी कभी जीत नहीं सकती थी, इसलिए वहां की पार्टियों को अप्रासंगिक बनाने के लिए पूर्ण राज्य का दर्जा ही समाप्त कर दिया गया। पूर्वोत्तर के राज्यों में क्षेत्रीय दलों की कोई स्थिति नहीं बची है। वे या तो भाजपा में मिल चुके या भाजपा के फ्रेंचाइजी मॉडल पर काम कर रहे हैं।

ऐसे अन्य उदाहरण पाठक स्वयं जोड़ सकते हैं। तो फिर बचा कौन?
 
बची है कांग्रेस पार्टी। उसकी अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी और सांसद श्री राहुल गांधी। भाजपा ने उनकी कितनी ही सरकारें गिरा दी, उनके कितने ही नेता खरीद लिए, उनके आर्थिक स्रोत बंद कर दिए, लेकिन श्री राहुल गांधी ने श्री मोदी की चौखट पर सलामी नहीं दी। तमाम पुराने मामले निकाली गए, श्री राहुल गांधी के ऊपर मानहानि के केस लगाए गए, चरित्र हनन का हथियार अपनाया गया, विदेशों से सांठगांठ के आरोप लगाए गए, लेकिन श्री राहुल गांधी नहीं झुके।

जब यह सारे हथकंडे काम नहीं आए तो श्रीमती सोनिया गांधी और श्री राहुल गांधी के खिलाफ प्रवर्तन निदेशालय में कई वर्ष पहले समाप्त कर दिया गया मामला फिर से जिंदा किया गया। दोनों नेताओं को पूछताछ के लिए कई कई दिन तक प्रवर्तन निदेशालय के कार्यालय बुलाया गया।

जब वहां भी कुछ नहीं निकला तो प्रवर्तन निदेशालय ने नेशनल हेराल्ड और यंग इंडिया की संपत्ति सीज करने की कार्रवाई शुरू की। और सबसे बढ़कर सूत्रों के हवाले से वे झूठी खबरें प्रसारित करना शुरू की जिनसे किसी को सजा मिले या ना मिले, उसका मान मर्दन अवश्य हो जाए।

इतनी प्रक्रिया के बाद या इससे कम कोशिश में भी ज्यादातर क्षेत्रीय दल खुलकर या चिलमन के पीछे से भाजपा के शरणागत हो चुके हैं। लेकिन श्रीमती सोनिया गांधी दूसरी मिट्टी की बनी है। केंद्रीय मंत्री श्रीमती स्मृति ईरानी के संसद में हल्ला मचाने पर श्रीमती सोनिया जी ने साफ शब्दों में कह दिया: डोंट टॉक टू मी। और ईडी की सारी कार्रवाई के बाद श्री राहुल गांधी ने कह दिया: मैं मोदी से नहीं डरता।

यानी अब भाजपा के अलोकतांत्रिक अश्वमेध यज्ञ के घोड़े के सामने श्री राहुल गांधी खड़े हो गए हैं। विपक्षी दलों को निगल जाने के भाजपा के अभियान के सामने भारत की सबसे पुरानी कांग्रेस पार्टी खड़ी हो गई है।

भाजपा को अपने इस अभियान को सफल करना है तो गांधी परिवार को राजनैतिक रास्ते से हटाना होगा। क्योंकि गांधी परिवार ने दंडवत होने से या रास्ता छोड़ देने से इनकार कर दिया है। सत्ता के चारों हथियार साम, दाम, दंड, भेद गांधियों को झुकाने में नाकाम रहे हैं।

आखरी मोर्चे की लड़ाई शुरू हो चुकी है। अगर श्रीमती सोनिया गांधी और श्री राहुल गांधी इस लड़ाई को हारते हैं तो भारत में अघोषित तानाशाही का दौर बहुत लंबा चल सकता है।

अगर जनता सत्य को पहचानती है और इन दोनों नेताओं के साथ खड़ी होती है तो देश में लोकतंत्र बचाने की जोरदार लड़ाई होगी। इस लड़ाई की तुलना श्री जयप्रकाश नारायण या श्री राम मनोहर लोहिया की कांग्रेस विरोध की लड़ाई से नहीं की जा सकती। वह लड़ाई लोकतंत्र में अपनी हिस्सेदारी मांगने की लड़ाई थी। यह लड़ाई लोकतंत्र को बचाने की लड़ाई होगी।

इस लड़ाई में कांग्रेस पार्टी को संवैधानिक संस्थाओं का उस तरह का सहयोग नहीं मिल पाएगा, जैसा सहयोग अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप को हटाने के लिए डेमोक्रेटिक पार्टी को मिल गया था। वहां की संस्थाएं दृढ़ता पूर्वक इसलिए खड़ी रही क्योंकि वह समाज सामंती संस्कारों से बहुत पहले बाहर आ चुका है और लोकतांत्रिक मूल्य वहां के नागरिक मूल्य भी हैं।

भारत आज भी अर्ध सामंती समाज है। भारत एक गरीब मुल्क है, जहां जनसंख्या के बहुत बड़े वर्ग के लिए पैसा ही जीवन मूल्य बन चुका है। पैसे का जीवन मूल्य बनना ही हम जैसे बहुत सारे लोगों के नैतिक पतन के लिए जिम्मेदार है। अगर लोगों के अंदर कैरेक्टर नहीं होगा तो संस्थाओं के अंदर कैरेक्टर होने की आशा करना व्यर्थ है। क्योंकि अंततः कोई भी संस्था व्यक्तियों से ही चलती है।

श्री राहुल गांधी इसलिए लड़ रहे हैं कि उनमें कैरेक्टर है। उनके पिता श्री राजीव गांधी में भी कैरेक्टर था और उन्होंने लोकतंत्र के ऊंचे मूल्यों को निभाते हुए अपने प्राणों की आहुति दी। उनकी दादी श्रीमती इंदिरा गांधी में भी कैरेक्टर था और उन्होंने देश के सेकुलर मूल्यों को बचाने के लिए सीने पर गोलियां खाई। उनके दादा श्री फिरोज गांधी के अंदर भी कैरेक्टर था और कांग्रेसी सांसद होते हुए भी लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए उन्होंने संसद में प्रधानमंत्री और अपने ससुर पंडित जवाहरलाल नेहरू का विरोध करने में संकोच नहीं किया। उनके परनाना पंडित जवाहरलाल नेहरु में भी कैरेक्टर था, उन्होंने भारत को अमेरिका या सोवियत संघ के दो ध्रुवों की आर्थिक, सामरिक या राजनीतिक गुलामी नहीं करने दी और भारत को अपनी नीतियों से एक संप्रभु राष्ट्र बनाया।

इसलिए इस लड़ाई में अब अगर परीक्षा होनी है तो हम आम नागरिकों की होनी है। अगर हम में कैरेक्टर होगा तो देश में लोकतंत्र बचेगा और अगर हम ठकुर-सुहाती कहने लगे तो चंद दिनों में हम तानाशाह की पालकी को कंधा दे रहे होंगे।
लड़ाई शुरू हो चुकी है, आप तो करिए आप किस तरफ हैं।
(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं।)

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

पुत्रदा एकादशी का पूजन मुहूर्त और महत्व क्या है