अब यह कोई रहस्य नहीं रहा कि स्थानीय अर्थव्यवस्था के दिन लद चुके हैं। स्थानीय अर्थव्यवस्था के तार सम्पूर्ण देश से ही नहीं वरन अब वैश्विक अर्थवयवस्था से भी जुड़ चुके हैं। तीन दशक पूर्व भारत सहित अनेक देशों की अर्थव्यवस्था संरक्षित थी। सरकारी नीतियां ऐसी होती थी कि विदेशी पूंजी और सामग्री भारतीय अर्थव्यस्था पर प्रभाव नहीं डाल पाती थीं, किंतु अब विश्व के सारे बाजार आपस में जुड़ चुके हैं। आपके क्षेत्र में पैदा होने वाला प्याज, कपास और सोयाबीन भी मूल्य के हिसाब से देश की अलग अलग मंडियों अथवा विदेशों की ओर रुख कर लेता है। ऐसे में आवश्यक है कि स्थानीय व्यापारी भी देश और दुनिया की अर्थव्यवस्था पर नज़र रखे।
दुनिया के कुछ देश ऐसे हैं जो संयुक्त होकर विश्व की अर्थव्यवस्था को आकाश में उड़ा सकते हैं या अपने बोझ से उसे जमीन में भी धंसा सकते हैं। प्रथम पंक्ति के देश हैं अमेरिका, चीन और जापान। दूसरी पंक्ति में रूस, भारत, यूरोपीय देश तथा कुछ अन्य देश आते हैं। पिछले कुछ वर्षों से चीन और भारत की आर्थिक प्रगति की रफ़्तार तो तेज है किंतु अमेरिका, जापान एवं अन्य देशों की अर्थव्यवस्था कछुए की चल से चल रही है। लगभग दस वर्षों से यही कहानी चल रही थी किन्तु अब स्थिति में सुधार आता नज़र आता है। सन् 2018 के लिए ये अनुमान लगाए जा रहे हैं कि अमेरिका और जापान की सुस्त पड़ी अर्थव्यवस्था पुनः पटरी आ जाएगी।
आर्थिक सहयोग एवं विकास की संस्था ने पेरिस में संकेत दिए कि जापान और अमेरिका की अर्थव्यवस्था में दस से बीस प्रतिशत तक सकारात्मक बदलाव आ सकता है। अमेरिका की फ़ेडरल बैंक ने भी अमेरिका की जीडीपी में वृद्धि, बेरोजगारी में कमी और महँगाई की दर में सामन्य वृद्धि की बात कही है। भारत की अर्थव्यवस्था नोटबंदी और जीएसटी के झटके से उभर जाने के संकेत दे रही है। चीन की अर्थव्यवस्था एक अल्प विश्राम के बाद पुनः दौड़ने के लिए तैयार दिख रही है। यदि ऐसा होता है तो अगले वर्ष हम दुनिया की अर्थव्यवस्था में एक बड़ा सकारात्मक बदलाव देखेंगे।
किन्तु आर्थिक विकास के मार्ग इतने निष्कंटक भी नहीं होते। सीधे चलते मार्ग पर अवरोध खड़े हो जाते हैं। यहाँ उन संभावित चुनौतियों की चर्चा करना भी जरुरी है जो विकास के मार्ग में आड़े आ सकते हैं । पहली चुनौती राजनैतिक है। उत्तरी कोरिया का जिद्दी तानाशाह यदि अपनी हरकतों से बाज नहीं आया और उसने अमेरिका को युद्ध में उलझाया तो विश्व की अर्थव्यवस्था पुनः अपनी पटरी छोड़ देगी। कुछ अन्य देश भी आपस में उलझे हुए हैं उनमे ईरान के साथ सऊदी अरब, फिलिस्तीन के साथ इसराइल, भारत के साथ पाकिस्तान प्रमुख हैं।
मध्यपूर्व में हालात बेहतरी की ओर हैं किन्तु सीरिया की राख में चिंगारी तो छुपी हुई है ही। अतः व्यापारियों की नज़र मध्यपूर्व के घटनक्रम पर भी होनी चाहिए। उधर चीन की सेनाओं द्वारा पडोसी देशों की सीमाओं पर आक्रामक रुख दिखाना इन देशों की अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव डालता है और उन्हें अपनी सामरिक दक्षता बढ़ाने के लिए धन खर्च करना पड़ता है जिससे विकास के मार्ग में अवरोध खड़े हो जाते हैं। अर्थव्यवस्था के सामने तीसरी बड़ी चुनौती है तेल की कीमतें। मध्यपूर्व के तेल उत्पादक देशों की घरेलु राजनीति में अनेक प्रकार की उथल पुथल जारी हैं जो तेल की कीमतों पर असर डाल सकती है। बढ़ती तेल की कीमतें अर्थव्यवस्था पर विपरीत प्रभाव डाल सकती हैं। उसके उलट डॉलर की अधिक मजबूती तेल के भावों को गिरा सकती है। तेल के भावों के निचले स्तर भी अर्थव्यवस्था के लिए खतरा बन सकता है। वैसे ही यूरोप के लिए ब्रिटेन का यूरोपीय संघ से बाहर निकलना यूरोप और ब्रिटैन सहित वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए एक चुनौती लेकर आएगा और उसे कई तरह से प्रभावित करेगा।
कुल मिलाकर यदि विश्व में शांति बनी रही, दुनिया को किसी भू-राजनैतिक अथवा प्राकृतिक विपदा का सामना नहीं करना पड़ा और आर्थिक रूप से किसी सुदृढ़ राष्ट्र ने विश्व के हितों की अवहेलना करते हुए केवल अपने देश के हित में ही निर्णय नहीं लिया तो हमारा अनुमान है कि आर्थिक दृष्टि से विश्व के लिए सन् 2018 बेहतर होने की सम्भावना है क्योंकि वर्तमान वर्ष में आर्थिक बुनियाद में थोड़ी मज़बूती आ चुकी है। अतः आगामी वर्ष में व्यापार और व्यवसाय पिछले वर्षो की तुलना में बेहतर रहेगा। पूंजी निवेश के लिए अवसर मिलेंगे। जिसके खातों में नकद धन रहेगा वे इस अवसर को भुनाकर मुनाफा कमा सकेंगे। रोज़गार बढ़ेगा। विश्व की जीडीपी भी बढ़ेगी। भारत अपनी साख को और अधिक मज़बूत करेगा जिससे विदेशी पूंजी का प्रवाह भारत की ओर बढ़ेगा। चीन की बढ़ती आर्थिक ताकत को संतुलित करने के लिए अमेरिका और जापान का झुकाव भारत की ओर होगा।