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जज्बाती भाषणों का डोज, धूमिल होती जनता की आशा

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अनिल शर्मा

लोकतंत्र में जनता बेवकूफ होती है या समझदार इस बात में कन्फ्यूजन है, क्योंकि ताजा मामला नागरिकता का है कि आपके पास क्या सबूत है कि आप भारत के नागरिक हो। ऐसे में लगता है कि भाजपा का शायद ये ख्वाब हो कि केवल भाजपा को वोट देने वाले ही इस देश में रहें।

भले ही आपके दादा-परदादा सतयुग से यहां खेती करते, मजदूरी करते या नौकरी करते आ रहे हो, वर्तमान हालात तो यह है कि आपको सबूत देना है। चूंकि भाजपा हाल के कुछ चुनावों में या तो काफी सीटें हार चुकी है या वोट परसेंट कम हो गया है यानी भाजपा बनाम मोदी का जादू उतरने लगा है।

दूसरी तरफ राममंदिर को छोड़कर कुछ ही मुद्दे या विषय ऐसे हैं, जिन पर जज्बाती भाषण देकर भाइयों और बहनों की धड़कनें धड़क उठती हैं। देश की ज्वलंत समस्याओं पर ध्यान देने की बजाए विदेशों के सफर में टाइम पास करने वाले प्रधानमंत्री के पास देश की गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी या अन्य समस्याओं की समीक्षा करने का फालतू समय इसलिए नहीं है, क्योंकि उनके आसपास साहब लोग सब गुड है बता देते होंगे।

जनता कांग्रेस के राज में भी परेशानी थी और तंग आकर भाजपा को अपना हितैषी समझकर सत्तानशीं करा दिया, लेकिन भाजपा नेताओं ने भी जनता को ऐसे विकास कार्य में लगा दिया कि फल-फूल वाले पेड़ों को जड़ों से उखाड़कर शो-पीस बने छोटे-छोटे खुद छाया के लिए तरसते पेड़ों का वृक्षारोपण करा दिया। जज्बाती भाषणों के जोर पर बनी भाजपा सरकार के नेताओं ने अपनी और अपनों की गरीबी भले ही दूर की हो, लेकिन देश की जनता आज भी अपनी सुरक्षा, भूख, स्वास्थ्य आदि-इत्यादि को लेकर परेशान है। (कुछ विकास कार्य जरूर हुए हैं) लेकिन हम तो ट्रम्प का वेलकम करने में लगे हैं इसलिए तो मलिन बस्तियों को दीवारों से किले का माफिक ढंक दिया गया कि आओ ट्रम्प भाई इस गरीब देश में 100 करोड़ से अधिक खर्च करके तुम्हारा वेलकम है।

ट्रम्प भी आ गए कि चलो अमेरिका के चुनाव में कम से कम अमेरिका में रह रहे भारतीयों के वोट तो मिलेंगे। जनता को भिड़ा दिया वेलकम ट्रम्प करने। अब कुछ दिनों तक जनता भूल जाएगी कि गैस सिलेंडर 1000 रुपए के आसपास आ पहुंचा है। बिजली के बिलों के तो भाव अनाप-शनाप हो गए हैं। प्याज से लेकर हर तरह की शाक-सब्जी या अन्य खाद्यान्न के भाव भी 2 से 20 परसेंट के हिसाब से चढ़े हुए हैं। यानी गरीब जनता को तो फांका करना ही है। क्योंकि ठेकेदार या निजी संस्थान गऊ के धुले तो है नहीं कि जो जनता बनाम अपने कर्मचारियों का हित (बिना स्वार्थ) का ध्यान रखते हो।

आर्थिक पहलू
भारत में आर्थिक मोर्चे पर स्थितियां सही नहीं दिख रही हैं। कुछ माह पहले दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था माने जाने वाले भारत में जीडीपी वृद्धि दर घटकर 5.7 प्रतिशत के स्तर पर आ गई है। यह तो उन तमाम चीजों में से महज एक है जो सही प्रतीत नहीं हो रही हैं। नोटबंदी या विमुद्रीकरण निश्चित रूप से खेल बिगाड़ने वाला कदम साबित हुआ क्योंकि इसके कारण गरीब और यहां तक कि मध्यम वर्ग भी एकाएक भारी परेशानियों से घिर गए। जो लोग हर रोज मामूली नकद कमाई करके किसी तरह अपना जीवन यापन करने पर विवश थे उनके पास अचानक नकदी का भारी टोटा हो गया। ऐसे गरीब लोग जो छोटे-मोटे कारोबार में लगे हुए थे उन्हें अपना व्यवसाय बंद करना पड़ गया और वे अपने गांव वापस लौटने पर मजबूर हो गए।

साक्षरता बनाम सरकारी योजना
देश की गरीब जनता को साक्षर बनाने और उन्हें शिक्षित करने के लिए सरकारी तौर पर अनेक योजनाएं कार्यरत हैं। निजी शैक्षणिक संस्थानों में भी उन्हें शिक्षा दिए जाने के प्रावधान हैं, वास्तविक रूप से देखा जाए तो पूरी तरह व्यवसाय में डूब गए शिक्षण संस्थानों में गरीबों को शिक्षा मिलती भी है या नहीं (अपवाद भी हो सकता है), विचारणीय है।

जब हमारी साक्षरता दर ब्रिक्स के अन्य सभी सदस्य देशों के मुकाबले कम है और विशेषज्ञों द्वारा यहां शिक्षा की गुणवत्ता अत्यंत निम्नस्तरीय घोषित की जा चुकी है, तो ऐसे में हम यह अपेक्षा कैसे रख सकते हैं कि आम भारतीय तो डिजिटल लेन-देन से अवश्य ही परिचित होगा? अगर ईमानदारी से गरीबों को शिक्षा दी जाने लगेगी तो इन नेताओं और अधिकारियों का पेट कौन पालेगा जो निजी शिक्षण संस्थानों को कागजी कार्रवाई के बलबूते मान्यता दे देते हैं।

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बेरोजगारी
देश में वर्तमान में शिक्षित बेरोजगारों की संख्या गैर सरकारी आंकड़ों के अनुमान के हिसाब से लगभग 55 करोड़ से अधिक होगी, जबकि अशिक्षित अकुशल बेरोजगारों की संख्या लगभग 87 करोड़ से अधिक होगी। बेरोजगारी बढ़ने का सबसे बड़ा कारण जहां अशिक्षा है, वहीं प्रायवेट सेक्टर की बहुलता या ठेकेदारी प्रथा के कारण एक मशीन दस काम का सिद्धांत होने से कोई बैठे ठाले की पगार देने से रहा। भारत में बेरोजगारी दर अक्टूबर माह में बढ़कर 8.5 फीसदी हो गई है, जो साल 2016 के अगस्त माह से अब तक सबसे ज्यादा है। यह आंकड़ा सिंतबर तक 7.2 फीसदी था। मोदी सरकार में नौकरियां आगे भी समस्या की जड़ बनी रहेंगी और उच्च शिक्षा में भारी-भरकम निवेश करने के बाद भी कई युवाओं के सपने बिखर सकते हैं। मोदी सरकार तो जनता को ट्रम्प के वेलकम में लगा चुकी है या फिर बाउंड्री पर आतंकवादियों से लड़ने के लिए, लेकिन देश की बिगड़ी आंतरिक स्थिति से शायद कुछ लेना-देना नहीं।

बढ़ते अपराध और पुलिस
अपराध दिनोदिन बढ़ रहे हैं, विशेषकर महिलाओं, बच्चियों को लेकर। जिन अपराधियों को फांसी की सजा सुना दी गई है, उन्हें कानूनी दांवपेंच की वजह से फांसी टलती जा रही है। अपराधों पर अंकुश लगाने की कागजी कार्रवाई तो चलती ही है, लेकिन वास्तविक कार्रवाई केवल खानापूर्ति जितनी होती है। और अगर किसी कमाऊ ’थाने का मामला हो तो न तो किसी अपराध का पता चलता है न किसी अपराधी का यदि अपराधी पैसे वाला हुआ तो। सबसे बड़ा रोना यह है कि जनता अपनी सहायता के लिए अपराधियों को दंडित करवाने के लिए पुलिस की तरफ आशा भरी निगाहों से देखती है, लेकिन सुनवाई किसी गरीब की नहीं, बल्कि पैसे वालों की होती है (अपवाद भी है मगर इसके उदाहरण दो-चार हो सकते हैं।) क्योंकि पैसे वालों से माल मिलता है।

सबसे बड़ी बात यह कि आज चपरासी की नौकरी के लिए भी लाख-दो लाख रुपए की रिश्वत देना पड़ती है, तो पुलिस में भर्ती की भेंट कितनी होगी। फिर जो पुलिसकर्मी लाखों रुपए खर्च कर इस नौकरी में अपना मकान गिरवी रखकर या बेचकर, खेत वगैरह का सौदा कर या किसी से उधार लेकर या गहने गिरवी रखकर आया है, वो तो सोचेगा ही कि कम से कम नौकरी में लगाए धन की वापसी ही कर ले।

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2011 से 2015 के बीच महिलाओं के विरुद्ध अपराध 41.7 प्रतिशत से बढ़कर 53.9 प्रतिशत तक पहुंच गए हैं। नवजात बच्चियों से लेकर 80 साल की वृद्ध महिला तक यौन हिंसा की शिकार हो रही हैं।

इन तमाम समस्याओं का समाधान करने की बजाए हो यह रहा है कि विदेशों की यात्रा हो रही है, या फिर विदेशी आकाओं का वेलकम। जज्बाती भाषणों से जनता को बहलाया जा रहा है। जो आशा वर्तमान सरकार से जनता ने जगाई थी, वो धूमिल होती जा रही है।

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