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गुरुनानक देव: सनातन धर्म संस्कृति के विराट दर्शन

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कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल

भारतीय सनातन धर्म-संस्कृति के कालजयी अतीत में दृष्टिपात करने पर हम पाते हैं कि सम्पूर्ण विश्व में जागृति एवं ईश्वरीय शक्ति चेतना के प्रसार के लिए महापुरुषों, संत-महात्माओं के साथ ही स्वयं भगवान ने इस पावन पुण्य भूमि में समय-समय पर अवतीर्ण होकर सम्पूर्ण सृष्टि के उत्थान एवं जनकल्याण की प्रतिष्ठा कर समन्वय स्थापित किया है।

हमारी सनातन संस्कृति की यही विशेषता रही है कि जीवन दर्शन में स्थूल एवं सूक्ष्म की व्याख्या करने के लिए भौतिक ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण सृष्टि की अध्यात्मिक उन्नति का पथ प्रशस्त किया है।

इन्हीं तारतम्यों में विराट सनातन संस्कृति की गोद से जैन एवं बौध्द पंथ का प्रादुर्भाव होने के साथ ही सिक्ख पंथ की ज्योति को आलोकित किया है। सामाजिक-आर्थिक, लौकिक-पारलौकिक एवं आत्मिक परिशुद्धता को अपने जीवन की सार्वभौमिक प्रयोगात्मक सिध्दि के माध्यम से समन्वय-शांति-सौहार्द का पल्लवन करने का दर्शन देने वाले महान संत गुरूनानक देव जी महाराज का जन्म साल 1469 में कार्तिक पूर्णिमा को तलवंडी वर्तमान ननकाना साहब (वर्तमान पाकिस्तान) में हिन्दू परिवार में हुआ था।

गुरूनानक देव को बाल्यकाल से ही आध्यात्मिक, दयाभाव एवं प्रेमानुभूति, समरसता की प्रवृत्ति एवं अभिरुचि ने उन्हें आत्मा से परमात्मा के मिलन की ओर प्रेरित किया, जिससे उनका जीवन मनुष्य मात्र ही नहीं बल्कि जीवकल्याण के लिए समर्पित हो गया।

वे सामाजिक कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए गृहस्थ धर्म के पालन का भी दायित्व संभालते हुए समाज के सृजनात्मक पक्ष को मजबूती प्रदान करने की बात को स्थापित कर एक अलग दृष्टिकोण दिया।

उनका जन्म एक ऐसे समय में हुआ था जब सम्पूर्ण भारतीय समाज, सामाजिक विसंगतियों एवं कुरीतियों से घिरा होने के कारण अपने धर्म एवं सामाजिक उन्नति से कट सा गया था। चूंकि उस दौर में भारतीय समाज बाहर से आए बर्बर, अरबी इस्लामिक आक्रांताओं की क्रूरतम त्रासदी में परतंत्रता की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था जिससे हीन ग्रस्त भावना एवं भय का वातावरण हर क्षण बना रहता था इस कारण सम्पूर्ण सनातन भारतीय समाज जीवन एवं मृत्यु के बीच की लड़ाई से जूझ रहा था।

गुरू नानक जी के जन्म से पूर्व एवं उनके जीवनकाल के वक्त इस्लामिक आक्रांताओं द्वारा भारतीय संस्कृति को नष्ट करने के लिए जबरन धर्मांतरण एवं सनातनी परम्पराओं के पालन पर प्रतिबंध के साथ ही अनेकों अन्तरात्मा को कंपा देने वाले अत्याचारों की सुनामी आ गई थी जिसकी वजह से भारतीय संस्कृति की परस्पर समानता एवं बन्धुत्व की धार्मिक एवं सामाजिक शैली खण्डित होकर दूषित सी हो गई थी।

इन्हीं कारणों के फलस्वरूप सनातन हिन्दू समाज में कुरीतियां एवं सामाजिक विद्रूपताओं ने संगठित समाज में भेदभाव की विभिन्न दरारें डालकर आन्तरिक तौर पर खोखला कर दिया था। गुरूनानक जी ईश्वरीय प्रेरणा के माध्यम से गहन चिन्तन करते हुए इन समस्याओं के निदान हेतु उपायों एवं समाज को सशक्त करने के लिए तत्पर रहते थे।

इन्हीं विचारों को समाज में ढालने के लिए उन्होंने ईश्वरीय सत्ता के प्रति आस्था एवं धर्मपरायणता का संदेश प्रसारित करने का ध्वज उठाकर चल पड़े। इसके लिए सर्वप्रथम उन्होंने जातिगत भेदभावों को दूर करने एवं धर्म शास्त्रों के अध्ययन-अध्यापन का अभियान व्यापक स्तर पर शुभारंभ किया।

गुरूनानक जी की इसमें भी कुछ दृष्टि ऐसी ही रही होगी कि यदि भारतीय सनातन संस्कृति को अक्षुण्ण रखना है तो समाज को सशक्त करना होगा। इसके लिए सामाजिक भेदभावों को दूर करते हुए उन्नति हेतु वैचारिक तौर पर सम्पूर्ण सनातन हिन्दू समाज को दृढ़ता प्रदान करने के कार्य करने होंगे, क्योंकि वैचारिक अनुष्ठान के बिना संगठित होने का भाव अपनी उत्कृष्टता को प्राप्त नहीं कर पाएगा।

गुरूनानक देव ने समाज को अपने दूरदर्शी दृष्टिकोण एवं भविष्यदृष्टा की तरह देखा और उसके हिसाब से सरलतम तौर-तरीकों के माध्यम से अलख जगाने का कार्य किया।

वे एक संत महात्मा तो थे ही इसके साथ ही स्पष्ट वक्ता, कवि एवं अपनी मधुर वाणी के द्वारा समाज को प्रेरित करते रहते थे। सामाजिक एकसूत्रता के उदाहरण तौर पर मुखवाणी जपुजी साहिब में कहते हैं-

नीचा अंदर नीच जात, नीची हूं अतिनीच
नानक तिनके संगी साथ, वडियां सिऊ कियां रीस

अर्थात् नीच जाति में भी जो सबसे ज्यादा नीच है, नानक उसके साथ है, बड़े लोगों के साथ मेरा क्या काम।
गुरूनानक देव जी ने समाज की दु:खती नस को पकड़कर उसका उपचार करने का कार्य अपने उपदेशों, रचनाकर्म एवं सामाजिक कार्यों के माध्यम से किया है। लंगर की व्यवस्था की शुरुआत क एक संगत-एक पंगत के द्वारा सामाजिक सद्भाव एवं बराबरी का बुनियादी ढांचा तैयार किया जो कि आधार बिन्दु बना।

उन्होंने अपनी धार्मिक यात्राओं के माध्यम से विभिन्न धर्मों के संत-महात्माओं से विचार-विमर्श एवं धार्मिक स्थलों का भ्रमण कर सभी में एकता के बिन्दु अर्थात् ईश्वर की आराधना की एकरूपता को सिध्द किया। गुरूनानक देव का इन यात्राओं के पीछे स्पष्ट दृष्टिकोण यही था कि अधिक से अधिक लोगों से मिलना-जुलना, उनकी समस्याओं को सुनना एवं सामाजिक एकता को स्थापित करना जो कि परस्पर भावनात्मक जुड़ाव एवं वैचारिक बोध के माध्यम से ही संभव हो सकती थी। उनकी धार्मिक यात्राओं में एक मुस्लिम सहभागी मर्दाना बना जो एकेश्वरवाद की खोज में उनके अपने अंतिम समय तक साथ चलता रहा।

गुरूनानक देव मूर्ति -पूजा, तंत्र-टोटके एवं तात्कालीन समय में व्याप्त बुराइयों का पुरजोर विरोध करते हुए समाधानमूलक नई दिशा दी जिससे समाज में नवचेतना का सूत्रपात हुआ। उन्होंने विभिन्न संस्कृतियों की अच्छाइयों को ग्रहण कर अपने संदेशों के माध्यम से आध्यात्मिक -सामाजिक-राजनैतिक उपदेशों के द्वारा कार्यान्वयन की परम्परा को आधार देकर समरसता को भारतीय सीमाओं तक ही नहीं बल्कि मुस्लिम पवित्र तीर्थों मक्का एवं बगदाद तक अपनी यात्राओं के माध्यम से प्रसारित किया।

गुरूनानक देव ने इस बात को ध्यान में रखते हुए जोर डाला कि भारतीय धर्मांतरित समाज को अपनी संस्कृति की जड़ों से जुड़े रहना चाहिए एवं अपने मूल की ओर चिंतन कर वापस लौटने के यत्न करने चाहिए।

गुरूनानक देव ने धार्मिक कट्टरपंथी इस्लामी आक्रांताओं के मुंह पर तमाचा मारते हुए कहा था कि कोई हिन्दू या कोई मुसलमान नहीं बल्कि सभी भगवान की सृष्टि में उसके द्वारा सृजित प्राणी हैं।

इस संदेश में ही आप गौर करिए तो इसमें गूढ़ार्थ यह छिपा हुआ था कि जबरन धर्मांतरण की कुटिलता में रोक लगे एवं सनातन हिन्दू समाज को उसकी संस्कृति से मृत्यु का भय दिखाकर अलग न करें।

गुरूनानक देव वास्तव में एक महान ईश्वरीय शिल्पी थे जिन्होंने हिन्दू समाज को अपनी संस्कृति से जुड़े रहने के लिए सिक्ख पंथ की बुनियाद रची। वर्तमान में भले ही सिक्ख पंथ एक अलग धार्मिक मान्यता को प्राप्त कर लिया हो किन्तु यह धर्म गुरूनानक देव जी के आदर्शों की बुनियाद में अब सनातन हिन्दू संस्कृति की विराटता में रचा बसा हुआ है।

इस परिपाटी को आगे के क्रम में दशम् गुरूओं ने शस्त्र-शास्त्र एवं दर्शन के माध्यम से प्रसारित कर भारतीय समाज को आन्तरिक एवं बाह्य शक्ति से समर्थ बनाया।

गुरूनानक देव जी का जीवन दर्शन उनके धार्मिक एवं सामाजिक सुधार,कर्तव्यपरायणता ,मानव मात्र के प्रति प्रेम, सद्भाव, समरसता, ईश्वर के प्रति आस्था सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति के लिए अमूल्य निधि है।

वे सदा ही अपनी दिव्यता, सामंजस्य की रसधार से आप्लावित कर विभिन्न आडम्बरों से मुक्ति दिलाने एवं ईश्वरीय चेतना के प्रसार के लिए भगवान के स्वरूप, महान संत एवं समाज उन्नायक के तौर पर सर्वदा वन्दनीय पूज्यनीय एवं अनुकरणीय रहेंगे।

(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)

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