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हामिद मियां से चन्द सवाल...

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सुशोभित सक्तावत

हामिद अंसारी को लगता है कि आज भारत में मुसलमान ख़ुद को असुरक्षित महसूस करता है! ये वही हामिद अंसारी हैं, जो भारत के दूसरे सबसे बड़े संवैधानिक पद यानी उपराष्ट्रपति के रूप में दो कार्यकाल पूरे करने वाले पहले व्यक्त‍ि हैं। कोई नहीं कह सकता कि अंसारी का मुस्ल‍िम होना उनके उपराष्ट्रपति बनने में कहीं आड़े आया था। हां, यह ज़रूर कहा जा सकता है कि वास्तव में अंसारी का मुस्ल‍िम होना उनके उपराष्ट्रपति बनने में मददगार अवश्य रहा था!
 
कहा तो एपीजे अब्दुल कलाम के बारे में भी यही गया था कि भाजपा ने अल्पसंख्यकों के मन में अपनी छवि को अधिक स्वीकार्य बनाने के लिए उन्हें देश का राष्ट्रपति बनाया था। 
 
ये और बात है कि देश ने कभी भी एपीजे को एक मुस्ल‍िम की तरह नहीं देखा। और तो और, स्वयं एपीजे ने कभी ख़ुद को मुस्ल‍िम की तरह देखा।
 
लेकिन हामिद अंसारी के बारे में यही बात इतने निश्च‍ित रूप से शायद नहीं कही जा सकती!
 
एपीजे अब्दुल कलाम से याद आया, अब तक तीन मुसलमान इस देश के राष्ट्रपति बन चुके है! चौथे एम. हिदायतुल्ला भी देश के कार्यवाहक राष्ट्रपति रह चुके हैं। 
 
एक मुसलमान इस देश का उपराष्ट्रपति तो बन ही चुका है, केंद्र में गृहमंत्री और विदेशमंत्री भी बन चुका है। अनेक मुसलमान अनेक राज्यों के मुख्यमंत्री बन चुके हैं। एक मुसलमान इस देश में क्रिकेट टीम का कप्तान बन चुका है और बॉलीवुड के बीसियों शीर्ष सितारे मुसलमान रहे हैं। 
 
दुनिया में इकलौता भारत ही ऐसा देश होगा, जहां एक "सताई गई क़ौम" को सार्वजनिक जीवन में इतने बड़े पदों पर और इतने व्यापक प्रभावक्षेत्र के साथ काम करने के अवसर मिले हैं। 
 
अमेरिका में अवश्य एक अश्वेत राष्ट्रपति बना था, किंतु क्या आपको किसी इस्लामिक देश में वहां के अल्पसंख्यकों के इतने बड़े पदों पर आसीन होने या समाज में इतना व्यापक प्रभावक्षेत्र होने की कोई सूचना है? मिले तो बताइएगा। 
 
क्योंकि सच तो यही है कि आज भारत दुनिया में दूसरा सर्वाधिक मुस्लिम आबादी वाला देश है और बहुत जल्द ही वह इस मामले में नंबर वन पर आने वाला है। और यह हालत तब है, जब एक पूरा विशुद्ध इस्लामिक मुल्क 1947 में पाकिस्तान के रूप में मुसलमानों को दिया जा चुका है।
 
1947 में भारत की आबादी 39 करोड़ थी। बंटवारे के बाद इनमें से 3 करोड़ पाकिस्तान चले गए, 3 करोड़ पूर्वी पाकिस्तान चले गए और साढ़े 3 करोड़ यहीं पर रह गए। भारत को ही तोड़कर बनाए गए दो नए मुल्कों में बहुसंख्यक और स्वयं भारत में सबसे बड़े अल्पसंख्यक! भई वाह, मुस्ल‍िमों की "दुर्दशा" की ये बहुत अच्छी तस्वीर है!
 
राज्यसभा सभापति के रूप में हामिद अंसारी के विदाई समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हामिद अंसारी पर इशारे-इशारे में कई प्रहार किए, ये और बात थी कि मोदी के निशाने पर रहे अंसारी इस दौरान पूरे समय मुस्कराते रहे, और एकाध मर्तबा तो ठठाकर हंस भी पड़े।
 
नरेंद्र मोदी ने कहा कि अलबत्ता अंसारी साहब का एक शानदार डिप्लोमैटिक करियर रहा है, लेकिन उनका एक "बैकग्राउंड" भी रहा है। मसलन, हामिद अंसारी के पुरखे "ख़िलाफ़त" आंदोलन में शरीक़ थे और देश के बंटवारे के लिए ज़िम्मेदार "मुस्लि‍म लीग" का हिस्सा थे।
 
स्वयं हामिद अंसारी एक करियर डिप्लोमेट के रूप में यूएई, अफ़गानिस्तान, ईरान और सऊदी अरब में राजदूत रहे हैं। हामिद अंसारी अलीगढ़ मुस्ल‍िम यूनिवर्सिटी के कुलपति भी रहे हैं। हामिद अंसारी अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष भी रहे हैं।
 
नरेंद्र मोदी यह रेखांकित करने का प्रयास कर रहे थे कि अंसारी के पुरखों से लेकर स्वयं अंसारी तक उनकी गतिविधियों और मानसिक गढ़न के केंद्र में उनकी मुस्लिम पहचान रही है, और यही कारण था कि जब अंसारी ने राज्यसभा सभापति के रूप में दस साल तक कार्य किया, तो संविधान के दायरे में काम करने पर उन्हें थोड़ा असहज अनुभव हुआ हो, जिससे कि अब वे मुक्त होने जा रहे हैं।
 
जाने-अनजाने नरेंद्र मोदी ने एक नए विमर्श को प्रारंभ कर दिया। 
 
यह बातें तो बहुधा कही जाती रही हैं कि हिंदू राष्ट्रवाद और भारतीय राष्ट्रवाद के बीच अवधारणागत स्तर पर एक द्वैत है, किंतु क्या यही बात मुस्ल‍िम पहचान और भारतीय राष्ट्रवाद के बारे में भी नहीं कही जा सकती? यानी अगर आपकी एक सुनिश्च‍ित मुस्लिम पहचान रही हो और आपकी चिंताओं के दायरे में दूसरी चीज़ों से पहले मुसलमान हों तो क्या आप भारतीय संविधान के प्रति सहज रह सकते हैं? ख़ासतौर पर यह तब चिंताजनक होगा, जब आप भारत के श्रेष्ठ संवैधानिक पद पर आसीन हों!
 
इसी परिप्रेक्ष्य में हामिद अंसारी के इस कथन की विवेचना की जानी चाहिए कि "आज मैं देश में जहां भी जाता हूं, एक ही बात पाता हूं कि मुस्लिम समाज में असुरक्षा की भावना घर करती जा रही है!"
 
दस साल तक भारत के उपराष्ट्रपति रहे महोदय पहले भारत के नागरिक हैं या एक मुसलमान हैं, अव्वल तो यही सवाल है!
 
दूसरे, दस साल तक भारत के उपराष्ट्रपति रहे महोदय को मुसलमानों की स्थिति की ही इतनी चिंता क्यों है, अन्य वर्गों की क्यों नहीं, यह दूसरा सवाल है।
 
और तीसरा सवाल यह है कि दस साल तक भारत के उपराष्ट्रपति रहे महोदय अपने इस कथन के पक्ष में क्या साक्ष्य प्रस्तुत कर सकते हैं?
 
इतना तो निश्च‍ित है कि हामिद अंसारी ने यह नहीं कहा कि भारत में मुसलमानों का "जेनोसाइड" चल रहा है, अलबत्ता अनेक मतिमंद अख़लाक़ और जुनैद का नाम उछालकर यही सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। ये वही मतिमंद हैं, जिन्होंने नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के पूर्व देश के मुसलमानों को यह भय दिखाया था कि अगर मोदी प्रधानमंत्री बन गए तो देश में व्यापक पैमाने पर मुसलमानों का जनसंहार किया जाएगा। चूंकि अभी तक वैसा कुछ हुआ नहीं है और वैसा होने के दूर-दूर तक कोई आसार भी नहीं हैं, लिहाज़ा अगर वैसे किसी अनिष्ट की कामना मन में वे गणमान्यजन दबाए बैठे हों तो कोई आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए। 
 
राजनीतिक गिद्धभोज की नीति सामुदायिक संहार की पूंजी पर ही फलती है!
 
किंतु एक बड़े पद से अभी अभी उतरे हामिद अंसारी वैसा नहीं बोल सकते थे, क्योंकि तब उन्हें अपनी बात को पुष्ट करने के लिए कुछ "डेटा" देना पड़ते। तो उन्होंने एक अमूर्त बात कही कि आज भारत का मुसलमान बेचैन है। अब इस बेचैनी की माप क्या है, यह पता लगाने का तो कोई उपाय होता नहीं है। यह तो एक "हाइपोथेटिकल" चीज़ होती है।
 
फिर भी यह सवाल तो पूछा ही जा सकता है कि आज देश के मुसलमानों में जो असुरक्षा की भावना है, उसका स्वरूप क्या है? 
 
क्या ऐसा है कि इस देश में हिंदुओं के साथ कभी कोई अपराध की घटना नहीं होती, केवल मुसलमानों के साथ ही होती है? वास्तव में सच तो यह है कि बहुसंख्यक होने के कारण हिंदुओं को भारत में पूर्ण सुरक्षा प्राप्त हो गई हो, वैसा नहीं है। देखा जाए तो भारत में सबसे ज़्यादा असुरक्षित तो महिलाएं हैं! वह सबसे "वल्नरेबल कम्युनिटी" है। गनीमत है कि औरतें अपने लिए एक पृथक मुल्क़ की मांग नहीं कर रही हैं! 
 
किंतु तथ्य तो यही है कि ऐसा एक भी "डेटा" नहीं है, जो हामिद अंसारी की इस बात की पुष्ट‍ि कर सके कि भारत में मुसलमानों पर अत्याचार हो रहा है, जबकि शेष समुदाय मज़े में हैं।
 
हामिद साहब ने ये नहीं बताया कि मुसलमानों का हौसला बढ़े, इसके लिए हिंदुस्तान की हुक़ूमत को उनकी क्या ख़िदमत करनी चाहिए? 
 
निश्चित ही, हामिद साहब मन ही मन हिंदुस्तान के एक और बंटवारे की मुराद तो ना पाले बैठे होंगे, क्योंकि 1947 में भी मुसलमानों को यही लगता था कि वे भारत में महफ़ूज़ नहीं हैं, इसलिए उन्हें पाकिस्तान चाहिए। अलबत्ता पाकिस्तान में भी वे महफ़ूज़ नहीं हैं, ये और बात है। और आज भी भारत के मुसलमानों को यही लग रहा है। तो ऐसे में उल्टे सवाल तो यही पूछा जाना चाहिए कि मियां फिर पाकिस्तान बनाने का फ़ायदा ही क्या हुआ, अगर अब भी आपका दिल बेचैन है तो!
 
कहीं इसके पीछे एक क़िस्म का अपरोधबोध तो नहीं है? या दूसरे स्तर पर ऐतिहासिक रूप से शासक होने के बाद अब शासित होने का संतप्त मनोविज्ञान तो नहीं हैं? 
 
भारत में द्रविड़ों, आदिवासियों, पूर्वोत्तरवासियों, यहां तक कि दलितों ने भी अपने लिए पृथक राष्ट्र की मांग नहीं की। सिखों ने खालिस्तान मांगा था, लेकिन आज वे देश की मुख्यधारा में शामिल हैं। किंतु भारत की नियति पर सबसे अनैतिक दावा जिनका था, भारत की चेतना को सबसे गहरे ज़ख़्म जिन्होंने दिए थे, केवल उन मुसलमानों ने अपने लिए "पाकिस्तान" मांगा, और उन्हें मिल भी गया!
 
जिन्ना बहादुर ने कहा, "चलो।" और देश के मुसलमां मासूमों की तरह उठकर चल दिए!
 
आज "हिंदू राष्ट्रवाद" के उभार के काल में जिन-जिनको "हिंदू राष्ट्र" शब्द सुनकर शर्म आती है, उनसे ये पूछा जाना चाहिए कि उन्हें ये शर्म सत्तर साल पहले दो-दो "इस्लामिक" राष्ट्रों के निर्माण पर क्यों नहीं आई थी?
 
सन् सैंतालीस में जब "मुस्ल‍िम लीग" के लीडरान कह रहे थे कि हम "बनिया-बामन राज" में नहीं रहेंगे, तब इसके विरोध में दिखना चाहिए था भाईचारे का ऐसा बुलंद नारा कि जिन्ना शर्मसार होकर रह जाते। 
 
वो नारा तब कहां था?
 
वो नारा आज भी कहां है?
 
कहीं "बनिया-बामन राज" में रहने से "परहेज़" की ये बीमारी अभी तक तो क़ायम नहीं है?
 
मेरा मत है कि देश का बहुसंख्यक हिंदू समुदाय तो मुसलमानों के साथ मिलकर रहने और मिलकर चलने के लिए ज़रूरत से ज़्यादा तत्पर है, आलम तो यह है कि "ईद मुबारक़" भी हिंदू भाईलोग एक-दूसरे को ही देते दरयाफ़्त होते हैं, वैसे किसी हिंदू त्योहार की बधाई मुसलमान भाईलोग एक-दूसरे को कभी देते नज़र नहीं आते। किंतु देश की मुख्यधारा का हिस्सा बनने, खुलकर भारत की धारा में सम्मलित होने, और मज़हब के बजाय राष्ट्र को, क़ुरान के बजाय संविधान को महत्व देने के प्रति हिचकिचाहट तो उल्टे मुसलमानों में नज़र आती है!
 
मैं हामिद अंसारी साहब से कहना चाहूंगा कि "सर, मुसलमान अगर भारत में भी ख़ुद को असुरक्षित महसूस करते हैं तो वे और कहां पर सुरक्षित हैं, यह बता दीजिए। दूजे, कहीं ऐसा तो नहीं कि इस असुरक्षा की जड़ें स्वयं मुसलमानों के मनोविज्ञान में कहीं गहरे पैठी हों?"
 
दूध में मिश्री मिल जाए तो फिर पता नहीं चलता कि दूध कहां है और मिश्री कहां पर है, लेकिन तेल की परत पानी पर ऊपर ही ऊपर तैरती रहती है।
 
जहां अलगाव होगा, वहां असुरक्षा होगी।
 
जहां लगाव होगा, वहां भाईचारा होगा।
 
ये कुछ बुनियादी इंसानी उसूल हैं, हामिद साहब!
 
चलते-चलते मैं कहूं कि यह नाम "हामिद" बचपन से ही हम सबका इतना अज़ीज़ रहा है कि कुछ पूछिए नहीं। प्रेमचंद की अनेक कहानियों की तरह "ईदगाह" भी भारत के सामूहिक अवचेतन का अटूट हिस्सा है। ईदगाह का हामिद और हामिद का चिमटा, इसे हम कभी भूलते नहीं। आज पहली बार महसूस हो रहा है कि हामिद तो मुसलमान था! ऐसा पहले कभी सोचा ही नहीं था। हामिद अंसारी साहब ने और कुछ किया हो या नहीं, प्रेमचंद की कहानी के हामिद को अवश्य आज इतने सालों बाद एक मुसलमान की पहचान दे डाली है!

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