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एक विचार, सिर पर सवार होता है तो जुनून बन जाता है

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विजय मनोहर तिवारी

कोई भी विचार आत्मा की गहराई में उतरकर ही धर्म का स्वरूप धारण करता है। परख की इस प्रक्रिया में सदियों का समय और पीढ़ियों के प्रयास लगते ही हैं। हर सदी के अपने सवाल होते हैं।

हर पीढ़ी के अपने प्रश्न होते हैं। वह विचार तर्क और प्रश्नों से जूझते हुए ही मनुष्य के भीतर अपनी जगह बनाता जाता है और एक दिन सत्य के रूप में आत्मा में पहले प्रविष्ट और फिर प्रतिष्ठित हो जाता है। मंद-मंद आंच पर धीमी गति की यह प्रक्रिया बहुत धैर्य धारण करने की है। यही तप है। यही तपस्या है। यही साधना है। सनातन धर्म की नींव ऐसी ही साधना पर खड़ी है।

जब कोई विचार सिर पर सवार होता है और सिर पर ही सवार रहता है तो वह जुनून बन जाता है। तब एक किस्म के जोश, जिद और जल्दबाजी में वह होता है। तर्क और प्रश्न से वह बचता है। वह ताकत से आगे बढ़ता है। विरोध को सहन नहीं करता। अपनी मनमानी व्याख्या को दूसरों पर थोपने में वह आनंदित होता है। वह अस्त्रों के बूते पर प्राप्त शक्ति से अपने अनुयायियों की संख्या का पशुबल की तरह इस्तेमाल करता है।

मानवीय मूल्यों से विहीन ऐसा घातक विचार धर्म की गहराई को छूता भी नहीं है। वह एक पंथ की शक्ल में धर्म होने का आधारहीन दावा जरूर करता है। मगर आज ये तत्वज्ञान की चर्चा कुछ ताजा घटनाओं के संदर्भ में है।

दिल्ली की नाक के नीचे गुरुग्राम में कुछ सिरफिरे सड़कों और पार्कों में नमाज करने पर आमादा हुए। उडुपी के कॉलेज की जांबाज लड़कियों को अचानक हिजाब में पढ़ाई करने का जुनून सवार हो गया। हर कहीं लाउड स्पीकरों पर पांच वक्त का ऐलान- ए- मजहब।

जमीनों को कब्जाने के लिए मनमाने ढंग से हरी चादरें डालकर मजारें और दरगाहें बनाना। रेल के डिब्बों और प्लेटफार्मों पर इबादत में बैठ जाना। अफगानिस्तान के गुरुद्वारों से सिखों को भागने पर विवश करना। पाकिस्तान या बांग्लादेश में मंदिरों पर हमले और मूर्तियों को सरेआम तोड़ना। कश्मीर के मूल निवासियों को बेइज्जत करके हमेशा के लिए बेदखल करने का दुस्साहस। आखिर, ये सब किस चीज के लक्षण हैं?

यह एक ऐसे विचार के लक्षण हैं, जो सिर पर जुनून की तरह सवार हो गया है। जबकि उसे एक वास्तविक धर्म के स्तर तक पहुंचने के लिए आत्मा की गहराई तक की लंबी यात्रा करनी है और वह इसके लिए तैयार नहीं है। यह विक्षिप्त होने के स्पष्ट लक्षण हैं।

आत्मा की गहराई में पहुंचा हुआ धर्म अपने अनुयायियों के चेहरों पर शांति और भीतर करुणा के भाव पैदा करता है। तब हर तरह की हिंसा बेमानी हो जाती है। हिंसा जिस क्रोध की अभिव्यक्ति है, उसका भी शमन अनिवार्य हो जाता है। सब तरह के विकारों से मुक्ति एक ध्येय बन जाती है ताकि मरने के पहले मनुष्यता अपनी गरिमा का ऊंचा तल छू ले।

जिस भारत ने अपने 10 हजार साल के इतिहास में मानव को महामानव बनाने के सूत्र खोजे हों और दुनिया को सिद्धांत और प्रयोग के स्तर पर अपने अपूर्व योगदान से विस्मित किया हो, उस समाज में ऐसा जिद्दी विचार हर नागरिक के लिए घातक है।

ये वही विचार है, जिसने अभी-अभी इस देश के तीन टुकड़े कर डाले थे। वह किसी जिन्ना के सिर पर सवार जिन्न की तरह प्रकट हुआ था। पाकिस्तान को बनाने वाले सरहद पार नहीं गए, क्योंकि यहां उन्हें सेक्युलर खलीफा मिल गए थे। वे सेक्युलरिज्म के दरवाजे से भीतर ही बने रहे। उनकी जमातें यहीं जड़ें जमाए रहीं। बेशर्मी से वे अब शाहीनबाग सजा रहे हैं। हिजाब पहनाकर औरतों को आगे कर रहे हैं। उन्हें सड़कें नमाज के लिए चाहिए। चौराहों और पार्कों पर उन्हें मस्जिदें और मजार बनाने से रोकना गुनाह है।

सरकारों में बने रहने के लिए सेक्युलर खलीफाओं ने उनसे वोटों के बदले सीटों के सौदे किए। मदरसों और मस्जिदों के मजहबी कामगारों को सरकारी खजानों से वेतन बांटे हैं। कब्रस्तानों की हिफाजत की है। आधार कार्ड भले ही न हो मगर विक्टिम कार्ड उनकी शेरवानियों की ऊपर की जेब में ही रखा है।

मगर 2014 के बाद से अपनी दाढ़ियों से टपकते तिनकों को देखकर बौखलाए हुए हैं। अब सरकारी जाजम पर रोजा इफ्तारी राष्ट्रीय पर्व नहीं रह गया है। औरतों के हक में तीन तलाक का दरवाजा बंद कर दिया गया है। हज सब्सिडी के फैसले का मतलब था कि यह सवाब काफिरों के टैक्स से हासिल नहीं होगा। मदीने वाले को अपनी रकम से सलाम करने जाइए या मत जाइए।

भारत के एकमात्र असल अल्पसंख्यक पारसियों को न संविधान से समस्या है, न सनातन परंपराओं से। वे दूध में शक्कर की तरह घुले हुए भारत को मिठास से भरने वाली पुरुषार्थी कौम हैं। जैन और बौद्ध भारत की मिट्टी से ही जन्में हैं, इसलिए सनातन के सारे तत्व उनमें समाए हुए हैं। वर्ना वे त्याग, क्षमा, अहिंसा और करुणा के मानवीय मूल्यों के आधार पर ध्यान मुद्रा में विराजित क्यों हैं?

गौतम बुद्ध और महान तीर्थंकर तो समृद्ध राज परिवारों से आए थे। अपने विचार को थोपने के लिए वे भी जिहाद की घोषणा करके सशस्त्र सेनाएं आगे कर सकते थे और अरब तक फैल सकते थे। मगर तब वे सिर पर सवार पागलपन ही होते, पवित्र धर्म नहीं!

सनातन परंपरा अपने विवेक से केवल पवित्र और सिद्ध संदेश का अनुगमन करती है। विक्षिप्तों की तरह किसी स्वयंभू संदेशवाहक के पीछे दौड़ नहीं लगाती। वह तर्क से सत्य को सिद्ध और स्वीकार करती है।

इस्लाम और ईसाइयत के विचार को मनुष्य की आत्मा की गहराई तक पहुंचने में अभी सदियों का समय लगेगा। चूंकि बेलगाम और खून से रंगे हाथों में इनकी कमान जा पहुंची है, इसलिए वह अपने बुद्धिमान अनुयायियों को बाहर निकलने के लिए ही विवश कर रही है।

इसलिए दुनिया के मुस्लिम और ईसाई मुल्कों में अपना पंथ छोड़ने वाले तेजी से बढ़ रहे हैं। वे अपनी नई यात्रा शुरू कर रहे हैं। उन्हें एक ऐसे धर्म की तलाश है, जो उन्हें भीतर से शांत करे। वे सारे फसादों को देख रहे हैं और उसकी जड़ों को उनसे बेहतर कोई नहीं जानता। इंडोनेशिया के मुस्लिम राष्ट्रपति की बेटी की सनातन धर्म में वापसी कुछ ही हफ्तों पहले की संसार की सबसे हाईप्रोफाइल खबर थी।

इस्लाम जिस अरब मूल का 1400 साल पुराना आविष्कार है, उसके वर्तमान सियासी रहनुमाओं को भी समझ में आ गया है कि दुनिया भर में शक की निगाह से देखा क्यों जा रहा है? धमाकों की वजह केवल बम-बारूद है या कोई विचार, जो सिर पर प्रेत की तरह सवार है?

एक कुशल मैकेनिक की तरह सऊदी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान ने ठुकी-पिटी गाड़ी के "मैन्युफैक्चरिंग एरर' को पकड़ लिया है। वे हदीसों की विश्वसनीयता पर सवाल उठाकर इस्लाम की नई व्याख्या कर रहे हैं। तबलीग जमात को आतंक का दरवाजा घोषित करने वाले वे अकेले हैं, जबकि यह काम दिल्ली में निजामुद्दीन मरकज से थोड़े ही फासले पर मौजूद नार्थ-साउथ ब्लाक को करना था।

तबलीग का मुखिया कोरोना काल की पहली लहर में सेल्फ क्वारंटीन में गया था और वह संसार का सबसे लंबा सेल्फ क्वारंटीन सिद्ध हुआ। दो साल से उसका कोई अता-पता नहीं है। मोहम्मद बिन सलमान उसके झुंड को आतंक का दरवाजा कह कर अब तक की सबसे बुरी खबर दे चुके हैं।

अरब के हुक्मरान महिलाओं को नौकरियों में आगे कर रहे हैं। बुर्के और परदे की मजहबी बंदिशें अरब में समेटी जा रही हैं। तेल के खाली होते कुओं ने अरब के भविष्य की नई इबारत लिखने के लिए उन्हें मजबूर किया है और वह इबारत मजहब की स्याही से नहीं लिखी जा रही। अरब के रेतीले इलाकों में अब अक्षरधाम के मंदिर आकार ले रहे हैं। शिक्षा प्रणाली में रामायण और महाभारत की कथाएं शामिल हो रही हैं। थोड़े ही समय में अरब के स्कूलों में टोपियां लगाकर बच्चे रामधुन करते नजर आने वाले हैं। इस्लाम के नाम पर बने पाकिस्तान के मॉडल की भद हर दिन पिट रही है।

दुनिया देखेगी कि आने वाले समय में बहुत जल्दी ही अरब में इस्लाम एक नई शक्ल लेगा और इधर भारत और पाकिस्तान सहित अफगानिस्तान से लेकर बांग्लादेश तक बहुत बाद की सदियों में धर्मांतरित मुसलमान पुरानी खूंटियों को छोड़ने के लिए राजी नहीं हैं। वे नए मुल्लों की तरह तेज बांगें लगा रहे हैं। खिल्ली उड़वाने की ऐसी सेल्फ सर्विस कहीं और नहीं है।


हर कहीं हिजाब और नमाज की जिद में क्या है? क्या हुआ जो दिन में पांच बार दसों दिशाओं से फुल वॉल्यूम में लाउड स्पीकर ऐलाने-मजहब करते हैं? सबको हक दिया है। क्या फर्क पड़ता है? फर्क पड़ रहा है।

यह भारत की सनातन सहिष्णु परंपरा को निर्लज्ज चुनौती है। यह भारत के संविधान की परीक्षा की विकट घड़ी है। भारत के शासकों की इच्छाशक्ति का असल परीक्षण शेष है। यह धीमी गति का जहर है, जो बंटवारे के बाद इन 75 सालों में देश की नसों में बहता हुआ सिर तक आकर फुफकार रहा है। यह शातिर दिमागों में बजबजाते बेहूदा इरादे हैं। वे हर कहीं भारत को शिकार बना रहे हैं।

ये संविधान की कृपा के रास्ते मुल्क को शरिया की दलदल में घसीटने की तरफ बढ़ रहे घातक कदम हैं। जिसे भारतीय मानस ने धर्म के रूप में अपनी आत्मा में उतारा, ये वो बिल्कुल नहीं है। ये सिर पर सवार जानलेवा जुनून है, जिसका हर संभव पैथी से उपचार ही होता है। याचिका, चर्चा या बहस नहीं।

(आलेख में व्‍यक्‍त विचार लेखक के निजी अनुभव हैं, वेबदुनिया का इससे कोई संबंध नहीं है।)

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