बेंगलुरु की पचपन वर्षीय पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता गौरी लंकेश की उनके घर पर गोली मारकर हत्या कर दी गई। उनकी एक पहचान थी जिसकी वजह से वे सबसे अलग थीं, वो यह कि तर्क और न्याय आधारित बात करना। अपनी इसी खासियत की वजह से गौरी इतनी मशहूर हुई कि विरोधियों के गले की हड्डी बन गई।
गौरी लंकेश की मौत वर्तमान व्यवस्था के ताबूत की आखिरी कील है। उनकी मौत जाया नहीं जाएगी। लेकिन आज अगर मैं चुप रही तो कल मेरे लिए भी कोई आवाज उठाने वाला नहीं होगा। गौरी की हत्या इस बात का प्रमाण है कि वे गौरी से डरते थे और डर इस कदर बढ़ा कि उसकी हत्या करके ही चैन की सांस ली होगी। लेकिन वे इस बात को भूल गए कि किसी इंसान को तो मारा जा सकता है लेकिन उसके विचार को नहीं। आज एक गौरी को मारा है कल हजारों लाखों पैदा होंगी जो उनकी आंखों में आंखे डालकर सवाल करेंगी, हो रहे अत्याचार और अन्याय के खिलाफ।
इस तरह की हत्याओं का ये पहला मामला नहीं हैं। पहले भी आवाज उठाने वालों को मौत के घाट उतार दिया। दाभोलकर, पनसारे, कलबर्गी और गौरी लंकेश में एक ही चीज कॉमन थी, वह ये कि उनकी आवाज जनता की आवाज बनी थी। शोषित, उत्पीड़ित, अंधविश्वास और झूठे आडंबरों के खिलाफ उन्होंने मोर्चा खोल रखा था जो लगातार इंसान को वैज्ञानिक चेतना से लैस करने का काम कर रहे थे। लेखन के जरिए हो या सामाजिक गतिविधियों के जरिए, जिसे उनके विरोधी बर्दाश्त नहीं कर पा रहे थे।
इतिहास भी गवाह है कि वैज्ञानिक सोच और तर्क को हमेशा दबाया गया। लेकिन तर्क आज नहीं तो कल सही साबित तो होता ही है। इस तरह की हत्याओं से यह साबित करने की कोशिश की जाती है कि अगर कोई वैज्ञानिक सोच, तर्क और न्याय की बात करेगा उसका यही हश्र होगा। तो क्या मारे जाने के डर से आवाज उठाना बंद कर दें और सत्ता धारकों की चापलूसी करें? इन हत्याओं पर चुप्पी साथ ली जाए या विरोध किया जाए ताकि उन्हें भी यह पता चले कि उन्होंने व्यक्ति को मारा उसके विचार को नहीं? आज एक गौरी खत्म हुई है तो क्या हुआ सैकड़ों गौरी भी तो पैदा हो गईं। जहां एक तरफ विरोध दर्ज करना होगा वहीं दूसरी तरफ समझने की जरूरत है कि आखिर इस तरह की घटनाओं के विरुद्ध क्या करने की जरूरत है? यह तो तय है कि कोई भी सत्ता में क्यों न हो अगर उसने सत्ता के खिलाफ लिखा है उसका अंजाम बहुत बुरा होता है।
लेकिन सिर्फ विरोध करने से कुछ नहीं होगा, उनका जो असली मकसद था उसको पूरा करने की ताकत भी रखनी होगी। अगर हम ऐसे ही बंद कमरे से आवाज उठाते रहे तो कुछ नहीं होगा। अपनी सोच को पैना करना होगा उनकी हर एक कारवाही पर गौर करना होगा। वरना आज उनकी बारी थी कल हमारी बारी होगी और हमारी मौत पर भी यही हाल होगा।
इस दौरान जो डर का माहौल पैदा किया जा रहा है वह कम खतरनाक नहीं है। डर की राजनीति खेली जा रही है। इसे ही अंदरूनी आतंकवाद कहा जाए, तो गलत नहीं होगा। कोई आपको धर्म के नाम पर मार देगा कोई जाति के नाम पर, अंधविश्वास को बढ़ावा, असली मुद्दों से भटकाने के लिए धर्म, जाति, गाय, मंदिर -मस्जिद, जैसे मुद्दों में उलझा कर रखा जा रहा है ताकि कोई रोटी रोजी की बात ना करे, अपने खिलाफ हो रहे अन्याय की बात ना करे। उनकी यह बात तब तक साबित होती रहेगी, जब तक कि कोई तर्क और वैज्ञानिक सोच को सामने नहीं लाता। और ऐसी सोच को रखने वाले को नक्सली, आतंकी, अधर्मी करार कर उसकी मौत को सही साबित किया जाता रहेगा अखबारों, बेतुके बयानों से, सोशल मीडिया पर गाली गलौज करके या फिर जश्न मना कर। आज भी जो लोग सोशल मीडिया पर उनकी मौत को जायज ठहरा रहे हैं वे इंसानियत का चोला उतार चुके हैं, वे सिर्फ धर्म और जाति की आड़ में ऐसी प्रतिक्रिया कर रहे हैं। उनके लिए यह बात कोई मायने नहीं रखती कि सत्ता की गलत नीतियों के कारण गरीब और गरीब होता जा रहा है और अमीर और अमीर। जो इस न्याय की बात करेगा उसके साथ क्या किया जाना है हुकुमत अच्छी तरह जानती है। जिसकी वजह है कि हुकूमत करना आसान होगी। सत्ता कोई भी क्यों ना हो अपने विरोधियों को नस्तोनाबूद कर देती है। लेकिन वो भूल इतिहास भूल जाती है कि अंधेरे दौर के बाद रौशनी का दौर भी आता है और इस रौशनी को लाने के लिए लोग लगातार प्रयास भी करते है सफल भी होते हैं।