लोरी गढ़ने के लिए कभी भी कागज-कलम लेकर लिखने नहीं बैठना पड़ता। वो तो स्नेह की अधिकता होने पर इनके बोल अपने आप होठों पर आते चले जाते हैं। इनमें न छंद का ध्यान रखा जाता है न संदेश का। हां, तुकबंदी व गेयता का निर्वाह ज़रूर किया जाता है। मां का बच्चे से निकटतम साथ होता है।
हर मां अपनी संतान को सर्वोत्तम देना चाहती है फिर चाहे वह भौतिक दौलत हो या संस्कार की। नन्हा शिशु लोरी का अर्थ नहीं समझता परन्तु गीत की स्वरलहरी उसे नींद की दुनिया में ज़रूर ले जाती है। इसमें परिजनों का शैक्षिक, आर्थिक, सामाजिक स्तर कुछ भी हो, लोरी साझी बपौती है जिसे हर क्षेत्र में वहां की बोली में गाया जाता है..
भारतीय संस्कृति व धर्मशास्त्रों में मिलता है कि सदियों से हमारे यहां लोरियों का महत्व रहा है।
गोस्वामी तुलसीदास जी अपने रामचरित मानस में बालकांड के छठवें विश्राम में लिखते हैं कि माताएं पालने पर या गोद में लेकर शिशुओं को प्रिय ललन आदि कहा करती हैं। देखिए –
हृदय अनुग्रह इंदु प्रकासा। सूचत किरन मनोहर हासा।।
कबहुं उछंग बहूँ बर पलना। मातु दुलारई कहि प्रिय ललना।।
माता कौशल्या बालक श्री राम को सुलाने के लिए लोरी गाती हैं। तुलसीदास ने गीतावली में लिखा है -
पौढ़िये लालन पालने हौं झुलावौं,
कद पद सुखं चक कमल लसत लखि
लौचन भंवर बुलावौ.
मार्कण्डेय पुराण में मदालसा का एक प्रसिद्ध प्रसंग है जिसमें मदालसा अपने बच्चों को सुलाने के लिए सुंदर लोरियां गाती है। मदालसा को ही लोरी की जननी कहा जाता है। कहते हैं कि सर्वप्रथम मदालसा ने ही अपने पुत्र अलर्क को सुलाने के लिए लोरी गाई थी। इसका विवरण मार्कण्डेय पुराण के 18-24 वें अध्याय में मिलता है।
मदालसा विश्वावसु गन्धर्वराज की पुत्री तथा ऋतुध्वज की पटरानी थी। इनका ब्रह्मज्ञान जगद्विख्यात है। पुत्रों को पालने में झुलाते-झुलाते इन्होंने ब्रह्मज्ञान का उपदेश दिया था। वे अनासक्त होकर अपने कर्तव्य का पालन करती जिसके फलस्वरुप उनके पुत्र बचपन से ही ब्रह्मज्ञानी हुए। आज भी वे एक आदर्श मां हैं क्योंकि वैष्णव शास्त्रों में वर्णन आता है कि पुत्र जनना उसी का सफल हुआ जिसने अपने पुत्र की मुक्ति के लिए उसे भक्ति और ज्ञान दिया।
महारानी मदालसा ने अपने 6 पुत्रों को वैराग्य की लोरी सुना-सुनाकर साधु बना दिया। महाराजा के निवेदन पर अपने सातवें पुत्र को राजनीति की शिक्षा देकर उत्तराधिकारी बनाया।
मदालसा जो लोरी अपने पुत्रों को सुनाती थी, वह यह है :
"शुद्धोsसि बुद्धोsसि, निरंजनोsसि ।
संसारमाया परिवर्जितोsसि ।
संसारस्वप्नं त्यज मोहनिद्रां
मदालसा वाक्यमुवाच पुत्रम् ।।"
सूरदास जी द्वारा मां यशोदा और बालकृष्ण के सन्दर्भ में लिखी ये लोरी मां-बेटे के बीच हो रही अजर अमर नटखट बाल लीला का ही एक रूप है। माता जसोदा पलने में लेटे बालकृष्ण को सुलाने के लिए निंदिया रानी को बुला रहीं हैं। कुछ लोग इसे लोरी मानते हैं कुछ लोग इसे गीत भी कहते हैं-
जसोदा हरि पालनैं झुलावै,
हलरावै, दुलराइ, मल्हावै जोइ-जोइ कछु गावै।
मेरे लाल को आऊ निंदरिया काहैं न आनि सुवावै
तू काहैं नहिं बेगहिं आवै, तोकौं कान्ह बुलावै....
वह हमेशा उन्हें लोरी गा गा कर ही सुलाने का प्रयास करतीं थीं। एक और स्थान पर माता जसोदा की लोरी के एक प्रसिद्ध पद का उल्लेख मिलता है-
आओ री निंदिया कान्ह बुलावहिं, काहे न निंदिया आय सोवावहिं...
-हे नींद आजा, तुझे कान्हा बुला रहा है. तू आकर उसे सुलाती क्यों नहीं। एक बार कान्हा को मां जसोदा श्री राम प्रभु की राम कथा लोरी के रूप में गा कर सुना रहीं थीं। कृष्ण गहरी नींद में भी उस लोरी को अवचेतन में सुन रहे थे। कहते हैं इसे सुनते समय वे हुंकारा भी देते जा रहे थे। लोरी का इतना गहरा असर हुआ कि गहरी नींद में जाते हुए उन्हें अपने पूर्व जन्म की याद आ गई और वे अपने रामरूप को याद कर कह उठे- “हे सौमित्र मेरा धनुष कहां है? मेरा धनुष कहां है? मेरा धनुष कहां है?” इस बात का उल्लेख कृष्णकर्णामृत के (2.7) में प्राप्त होता है।
रामो नाम बभूव हुं तदबला सीतेति हुं तौ पितु-
र्वाचा पञ्चवटीतटे विहरतस्तामाहरद्रावणः ।
निद्रार्थं जननी कथामिति हरेर्हुङ्कारतः शृण्वतः
सौमित्रे क्व धनुर्धनुर्धनुरिति व्यग्रा गिरः पातु नः ॥२. ७१॥
बचपन में हम सबने भी सुनीं हैं लोरियां मां, दादियां, नानियां सुनाती थीं। घर के बड़े में पुरुषों / पिता के मन में भी जब ममता जागती है, तब भी लोरी सुनाई देती है। लोरियां मां के दूध के बाद ममता का सबसे मीठा भाव है। संगीत और शब्द का नैसर्गिक सरल और सुलझा हुआ रूप।
अधिकतर लोरियां स्वतःस्फूर्त होतीं है। शांत रात्रि में जब बच्चा गोद में आता है तब हृदय में पैदा होने वाले स्पंदन से निकलती हैं ये मीठी मधुर लोरियां। कभी धुन नहीं होती तो कभी शब्द नहीं होते…ध्वनि होती है, भावनाएं होती हैं। लोरियां बनती बिगड़ती रहती हैं।
अक्सर याद नहीं रहती, याद नहीं रखी जाती। कभी कभी मां का हृदय शब्दों को यादगार लोरियों में बदल देता है। कभी आरतियां व भजन कीर्तन भी लोरी का रूप ले लेते हैं।
विज्ञान भी कहता है और डॉक्टरों का भी कहना है कि मां लोरी के माध्यम से बच्चे पर अच्छे संस्कार के बीज रोप सकती है। मां की आवाज़ सेतु की तरह होती है जो गर्भ में पल रहे बच्चे को बाहर की दुनिया से जोड़ती है। लोरी सुनते हुए शिशु को आनंद की अनुभूति होती है। उसके भीतर एक तरह के आनंद रस का प्रवाह होता है।
जिससे वह रोमांचित भी होता है। उसके भीतर ग्रहण शक्ति का विकास होता है। गर्भ के 24वें सप्ताह में ही बच्चा मां की आवाज़ सुनने लगता है।मां और बच्चे के बीच बातचीत और लोरियों का पुराना इतिहास है।
कई शोध बताते हैं कि बच्चों में ताल और लय को समझने की अदभुत क्षमता होती है। ऐसा माना जाता है कि मां की लोरियां सुनने से बच्चे और मां का रिश्ता और गहरा हो जाता है। दरअसल, कोई भी बच्चा सबसे पहले अपनी मां की आवाज़ को ही पहचानना शुरू करता है। विशेषज्ञों की मानें तो लोरी इस पहचान को मज़बूती देने में काफ़ी मदद कर सकती है। चूंकि लोरी गाने पर बच्चा अपनी मां की आवाज़ को ज़्यादा देर तक सुन पाता है, इसलिए मां के साथ उसका जुड़ाव भी गहरा हो जाता है। ज्यादातर लोरियों में स्नेह, करुणा और संरक्षण की बातें ही होती है। कई लोरियों में देश के इतिहास को दोहराया जाता है।
भारत के अधिकांश हिस्से में बच्चों को जो लोरियां सुनाई जाती है उनमें चंदा मामा का जिक्र होता है। चंदा मामा दूर के एक प्रचलित लोरी है। कीनिया में मां लोरियों में अक्सर लकड़बग्घे का जिक्र करती हैं। ताकि बच्चा डर से सो जाए। कीनिया के ग्रामीण इलाकों के जंगलों में लकड़बग्घे पाए जाते हैं शायद ये इसकी प्रमुख वजह है। स्वीडन में कुछ लोरियों में बच्चों को भाषा सिखाने की कोशिश होती है तो कुछ लोरियां शिक्षाप्रद होती हैं।
शायद ही ऐसा कोई बच्चा होगा जो मां के रहते लोरी बिना सुने ही सो जाता हो.. बच्चे को जब बोलना भी नहीं आता तब भी वो लोरी की भाषा को समझता है। बच्चे के दिमागी विकास में मदद करती है लोरी। लोरी से बच्चे को अच्छी नींद आती है, बच्चों के ऊपर किसी जादू की तरह असर करती है। बच्चे की भाषा पर पकड़ को बढ़ाती है, बच्चे को निडर बनाती है लोरी।बच्चे का बौद्धिक और भावनात्मक विकास भी होता है, इस तरह लोरी बच्चे को खुद पर भरोसा करना भी सिखाती है।
ऐसा कहते हैं कि ‘लोरी’दरअसल अंग्रेज़ी भाषा के शब्द ‘lullaby’ का हिंदी अनुवाद है। परन्तु हमारे सदियों पुरातन धर्मशास्त्रों में इसका उल्लेख मिलता है।जिस प्रकार मंदिरों में देवता के जागरण के समय प्रातः स्मरण और सुप्रभातम गाए जाते हैं उसी प्रकार रात्रिकाल में रात्रिसूक्त और निशारती/ शयनारती इसी का शास्त्रीय स्वरूप है। ‘lullaby’ इसका अर्थ है – बच्चा चुप हो जाए और सो जाए। आज से करीब चार हज़ार साल पहले बेबीलोनिया में पहली बार किसी मां ने अपने बच्चे को लोरी सुनाई थी।
एक प्यारी सी लय में मीठे से शब्दों को पिरो कर लोरी बनाई और गाई जाती है। हमारे समाज में कुछ लोरियां काफ़ी लंबे समय से गाई जाती रही हैं। ऐसी लोरियों को पारंपरिक लोरियां कहा जा सकता है। यहां यह बात खास ध्यान देने की है कि अन्य देश की लोरियों में जहां बच्चे को किसी बात का डर दिखा कर सुलाने का संकेत मिलता है
वहीं भारत की लोरियों में उसके मन को शांत करने या उसमें धर्म, सदाचार, निडरता, निर्भीकता के संस्कार डालने या प्रकृति प्रेम बढ़ने के सन्देश प्राप्त होतें हैं। कुछ लोरियां खासतौर पर हिंदी फ़िल्मों के लिए लिखी गई थीं, जो बाद में बेहद लोकप्रिय हो गईं। धीरे से आ जा री निंदिया... नन्ही कली सोने चली हवा धीरे आना....ऐसी लोरियों को फ़िल्मी लोरियां कहा जा सकता है।
मुझे आज भी याद है कि किस तरह मेरी नानी/मां/मौसी/बुआ/दादी/दीदी/बाबूजी बचपन में मुझे लोरी गाकर सुलाया करते थे। लोरी की आवाज़ कानों में पड़ते ही मैं कब नींद की आगोश में चली जाती थी, पता ही नहीं चलता था।लोरी सुनते हुए सपनों के संसार में खो जाने के सुखद अहसास को मैं आज भी बहुत याद करती हूं।
इससे मां-बच्चे के रिश्ते में अधिक प्रगाढ़ता, सरसता व मधुरता आती है इसलिए वह माला में मोती की तरह लोरियों में पिरोती रहती है अपने शब्दों को। उस समय मां के चेहरे से मानो खुशी टपक-टपक जाती है। वह भूल जाती है- काम की थकान।
होंठों पर नगमा, गोद में अपना और इस तरह बालक-पालन की सीढिय़ां चढ़ती चली जाती है वह। लोरी पुराने समय से सुनी-सुनाई जा रही है और बालक-बालिका दोनों के लिए एक सी, कोई अंतर नहीं। ममता कभी भेद करती ही नहीं। लोरी सुन कर ऐसा लगता था कि जैसे हम चांद-तारों की दुनिया में हों, दिनभर की सारी थकान, मधुर लोरियों के सुनने के साथ ही कपूर सी उड़ जाती थी।
आज कितना दिल करता है, उस दौर जन्मे बच्चों का कि वो प्यारी सी मीठी मधुर सी लोरियां, काश फिर से एक बार, कोई अपना ही सुना दे। हमारा खोया बचपन खोई हुई लोरियों में भी बसा है। जो बस वही प्रेम और ममता से सराबोर ही कोई लौटा सकता है। लेकिन आज बचपन में, कहां लोरियां सुनने को मिलती हैं?
लेकिन हमारी ये कोशिश होनी चाहिए की लोरियां जिंदा रहें और कहीं ये गुमनामी में दम ना तोड़ दें। आप भी लोरी गढ़ें और नूतन-पुरातन को मिला कर अपने नन्हे-मुन्नों को संगीत लोक की सैर कराइए., इसमें खोना कुछ नहीं, पाना ही पाना है....