गर्मी की छुट्टियां वैसे हमारे लिए लॉक डाउन का ही एक प्रकार हुआ करती थी। बल्कि ये कह सकते हैं कि अघोषित कर्फ्यू ही लगता था। ननिहाल हो या ददिहाल सभी जगह यही आलम। शाम घाम(धूप) जब कम होती तब घर से बाहर निकल के धमा-चौकड़ी मचा सकते थे।
पर कभी घर के अंदर रहने का बंधन या मलाल नहीं हुआ। बल्कि उस समय के खेल-खिलौनों ने हमें हमेशा नया पाठ पढ़ाने के साथ साथ भरपूर आनंद दिया। ऐसा आनंद जिसको शब्दों में परिभाषित नहीं किया जा सकता। केवल चिर जीवन महसूस किया जा सकता है। इनकी खास बातें ये हैं कि इनमें पैसे का खर्च शायद नाममात्र रहता होगा।
वो भी मुझे याद आता है कि हम सभी खिलौने हाथों से खुद अपने भाई-बहनों के साथ बनाते थे। वो भी घर में पड़े हुए सामानों से। कबाड़ और फेंकी हुई चीजें, कपड़े, ढ़क्कन, सेल, लकड़ी के राड़े (जिनकी भूसी बनती है पशुओं के खाने के लिए) और भी अनंत सामान।यदि मैं कहूं कि पैसे न के बराबर और आनंद अनमोल तो अतिशयोक्ति न होगी।
खिलौना ऐसी किसी भी वस्तु को कहा जा सकता है जिस से खेलकर आनंद हो। खिलौनों को अक्सर बच्चों से संबंधित समझा जाता है लेकिन बड़े लोग भी इनका प्रयोग करते हैं। भारत में खिलौनों का प्रयोग अति-प्राचीन है और सिन्धु घाटी सभ्यता के खंडहरों से भी यह प्राप्त हुए।
आपको ये जान कर आश्चर्य होगा कि ये सारे खिलौने किसी जेंडर के गुलाम नहीं हैं। बस अंतर इतना था कि लड़की होने से रुझान गुड्डे-गुड़िया, रोटा-पानी, घर-घर खेलने में भी रहा। उसमें भी बाजार की गुड़िया/टेडी बीयर या बर्तन-भांडों की कभी जरुरत नहीं पड़ी। नानी, मौसी, दादी, भुआ या कोई भी जो बच्चों की जिम्मेदारी सम्हाल रहा हो कपड़ों की बना देते।
एक रेक्टेंगल कपड़े में जैसी, जितनी बड़ी गुडिया / गुड्डा बनाना हो दुगुनी साईज के कपड़े में पुराने नरम कपड़े भर कर उन्हें रोल कर के डबल फोल्ड कर लिया जाता। चेहरे जितनी जगह छोड़ कर कस कर एक चिन्दी बांध देते। हाथों के लिए अनुपात से एक पतली लकड़ी या टाईट कपड़े को ही उस फोल्ड में फंसा देते और फिर से कस के एक पतला चिन्दा बांध देते।
छाती और हाथ बन कर तैयार. नीचे के हिस्से के जो दो फोल्ड किया हिस्सा आता उसको या तो ऐसे ही रहने देते या दो भागों में पैरों को बना देते। काजल से आंख, कंकू या कभी आपको लिपस्टिक नसीब हो जाए तो उसके होंठ बना दिए जाते। सजाने के लिए कानों में मोती टांक दिए जाते और नाक में नगीना। गले में हार, हाथों में चूड़ियां व इच्छा हो तो पायल भी पहना देते। किसी भी सुंदर सी चुनरी या कपड़े के वस्त्र पहना लेते।
सर में पीछे की और काले ऊन से लटकते लम्बे बाल या काले कपड़े की छोटी सी पोटली बना कर जूड़े की तरह सिल दिया जाता।उसमें मन-मुताबिक सजावट कर देते।एक रुपैय्ये का खर्चा नहीं और प्यारी सलोनी-सुंदर गुड़िया तैयार। हमारी जान है कि उसी में बस जाती। वो हमारी भावनाओं का भंडार होती।
हमारी ही परछाई। हमारा उठाना-बैठना, खाना-पीना, सोना-जागना, रोना गाना सब कुछ उसी के साथ होता। गोदी में एक तरफ हमेशा लटकी रहती। मजाल है कि कोई उसको हमारी मर्जी के बगैर छु तो ले। आसमान सर पर उठा लेते। ऐसी मासूम, नर्म, सुंदर और प्यार से बनाई हुई अनमोल गुड़िया का सुख अब कहां? स्टैण्डर्ड कैसे मेन्टेन हो? अपनी विलासिता कैसे दिखाएं?
सबसे बड़ी बात ये है कि फुर्सत ही कहां है इन एकल परिवार के पास। अपने बच्चों को ये सब सिखाने की। रिश्वत के रूप में दिए गए खिलौने, जिद पूरी करने, एकलौते होने और दिखावा भी इसकी बड़ी वजह हो सकती है।
ऐसे ही कई चीजों से कई आकृति के खिलौने, बिल्ली, चूहे, मुर्गा, मेंढक, कबूतर, तोता, हाथी और भी न जाने क्या क्या। जो आप कल्पना कर सकते हों। बस थोड़ी सी कुशलता, परिकल्पना से सभी कुछ तैयार हुआ जाता जिसे जो चाहिए। इसमें मोजों से लेकर घर के कई पुराने कपड़ों का इस्तेमाल किया जाता। सारे बच्चे बेहद खुश होते। पूरा पूरा दिन इनसे खेल-खेल कर बिता देते।
घर-घर खेलने में पुराने दीपकों के बर्तन, घर में उपलब्ध छोटे बर्तन, ढेरों ढक्कन, डिब्बियां, पत्ते सभी काम आते। उन्हीं से चूल्हा बना लिया जाता तीन दिए उल्टे रख कर या उसी के समकक्ष कोई और चीज।
उसी की कढ़ाई, डंडियों की चम्मचें, और भी जो आपको ठीक लग रहा हो। कोई बंधन जो नहीं। किसी बड़ी टेबल या दो ऊंची चीजों के बीच कपड़े को तान कर टेंट नुमा खोंस-खांस कर झिलमिल सितारों का घर बना लिया जाता। वही आल इन वन हवेली होती हमारी। इसमें हमारे परिवार के भी सभी सदस्य कई बार शामिल हो जाते चाहे वे भाई हों या अन्य। शादी जो रचानी होती थी गुड्डे-गुड़िया की।
बाकि खेलों की गतिविधियां स्वत: ही संचालित होती रहतीं जैसे हम अपने घरों या समाज, आस-पास के वातावरण से ग्रहण करते। इसलिए कहते हैं न कि बच्चे कोरी मिटटी होते हैं। हम जैसे चाहें उन्हें आकार दे सकते हैं।तो ये वो खेल ही हैं जो सब कुछ सिखाते हैं। इस खेल का आनंद ही निराला होता था। अपनी मर्जी का सब कुछ।
यही नहीं स्कूल-स्कूल भी खेला करते। इसी बहाने क्लास में हुई पढाई का होमवर्क, रिविजन सब कुछ परवारे ही हो जाता था। बाकि खेलों में तो अंग मंग चौक चंग, पांचे, एकी-बेकी, मकड जाल, घड़ी में कितने बजे?, ऊँगली पहचान, राजा मन्त्री चोर सिपाही, झूम ताली झूम, फुगड़ी फटाका, अक्कड़ बक्कड़ बम्बे भों, पोशम्पा भाई पोशम्पा, रस्सी जोर, डमशराज, फिल्मों के नाम, अन्त्याक्षरी, लंगड़ी, टव्वा, खूंटा बांध, दीवार पर गेंदों को बढ़ते घटते क्रम में अलग-अलग ऐक्शन वा मूवमेंट के साथ कैच करना, एकाग्रता के लिए मोती की, परमल की, धानी की, माला पिरोने का खेल।
साथ ही पुराने पात्र-पत्रिकाओं के फोटो, नक़्शे आदि को टुकड़ों में कर देते फिर उन्हें सबसे कम समय में ज़माने का खेल। ऐसे ही कई खेल जिनमें शरीर और दिमाग की वर्जिश होती। स्वस्थ प्रतिस्पर्धा होती, सामाजिकता की भावना जागृत होती।हार-जीत को पचाने की क्षमता बचपन से ही विकसित हो जाती जिससे अवसाद के अवसर उत्पन्न नहीं होते। जिनसे जीवन संघर्ष के उतार-चढाव आसानी से सहन किये जाते।
सबसे अहम बात इनमें आपका कोई पैसा खर्च नहीं होता। सभी कुछ आप घर में ही जुटा लेते हैं। इसलिए घर से बाहर जाने और जा कर खेलने की भी कोई आवश्यकता नहीं होती। ये सामान्यतया खेले जाने वाले खेलों की कड़ियां हैं जो अंचलों और स्थान के साथ-साथ बदल सकते हैं पर मूल भावना एक ही होती हैं।
खेल में हम प्रकट कर देते हैं कि हम किस प्रकार के व्यक्तित्व के लोग हैं। अतः हम अपने बच्चों के अच्छे व्यक्तित्व विकास के लिए उन खेलों का, खिलौनों का चयन करें जो उनके समग्र विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करें। क्योंकि खेल हमें जीवन में गंभीर होना भी सिखाते हैं। इस कड़ी में इतना ही।
ये सभी खेल खेले हैं आपने, आपसे बड़ों ने। उनसे पूछिए, सीखिए क्योंकि इन खेलों में से कुछ में गीत हैं, रिदम हैं, व्यायाम हैं, मनोरंजन है, घर में बांध के रखने की क्षमता भी है। फिर मिलेंगे जल्द ही उन खेल-खिलौनों के साथ जिनमें बड़ों को आनंद मिले और छोटों को मनोरंजन के साथ साथ ज्ञानार्जन। जिसे हम कहेंगे- हिंग लगे न फिटकरी, रंग आये चोखा। घर में रहें, स्वस्थ रहें।