Biodata Maker

Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia

आखिर भारत कैसे बना धार्मिक अल्पसंख्यकों का सुरक्षित ठिकाना

Advertiesment
हमें फॉलो करें Religious minorities in India
webdunia

डॉ.ब्रह्मदीप अलूने

, सोमवार, 13 मई 2024 (12:11 IST)
पाकिस्तान की आर्थिक राजधानी कराची में पिछले साल मार्च में एक अल्पसंख्यक अधिकार मार्च निकाला गया। देश के कई इलाकों से हजारों अल्पसंख्यक और हाशिये पर पड़े लोग इस मार्च में सम्मिलित हुए। उनके हाथों में बैनर थे जिसमें वे सरकार से मांग कर रहे थे कि  धार्मिक अल्पसंख्यकों के सामने आने वाले गंभीर मुद्दों के समाधान के लिए तत्काल कार्रवाई  की जाएं। धार्मिक अल्पसंख्यकों की महिलाओं और लड़कियों के अपहरण, उत्पीड़न, जबरन धर्मांतरण और विवाह और बलात्कार को रोकने के लिए कड़े कदम उठाएं जाएं। भारत में भी ऐसे मार्च निकलते है लेकिन उसके उद्देश्य भी कमाल के होते है। भारत में अल्पसंख्यक अधिकार दिवस हर साल 18 दिसंबर को मनाया जाता है। अल्पसंख्यकों की स्थिति में सुधार करना और उनकी राष्ट्रीय,भाषाई,धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान के बारे में जागरूकता फैलाना राज्य सरकार की जिम्मेदारी माना जाता है और इसमें सभी भाग लेते है।

15 अगस्त 1947 को भारत का धर्म के आधार पर विभाजन हुआ और मुसलमानों के लिए एक अलग देश पाकिस्तान बना। 1971 में पाकिस्तान का भाषा और संस्कृति के आधार पर एक और विभाजन हुआ तथा एक नया देश बांग्लादेश बना। इन तीनों देशों की भाषा,संस्कृति और जीवन में असंख्य समानताओं के बाद भी धार्मिक आधार पर आंकड़ें भारत और अन्य देशों की व्यवस्थाओं में गहरा अंतर बताते है।

पाकिस्तान को ईसाईयों के लिए सबसे खराब देश माना गया है वहीं हिन्दू और सिखों के लिए पाकिस्तानी जमीन बुरा स्वप्न साबित हुई है। पाकिस्तान सरकार द्वारा आयोजित 1951 की जनगणना के अनुसार,पश्चिमी पाकिस्तान में 1.6 फीसदी हिंदू आबादी थी,जबकि पूर्वी पाकिस्तान जो अब बांग्लादेश है,में 22.05 फीसदी थी।

1950 के दशक में दुनिया में पाकिस्तान की जनसंख्या की हिस्सेदारी 1.49 फीसदी थी। जो 2024 में बढ़कर 3.02  फीसदी हो गई है। 1950 के दशक में जनसंख्या की दृष्टि से पाकिस्तान 13 वें स्थान पर था जो अब पांचवें पायदान पर पहुंच गया है। यह भी दिलचस्प है की पाकिस्तान 1971 में विभाजित हो गया था लेकिन इसके बावजूद यहां की जनसंख्या वृद्धि दर में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। हालांकि यह वृद्धि धार्मिक बहुसंख्यकों में हुई जबकि धार्मिक अल्पसंख्यक स्थिर रहे। इसका प्रमुख कारण धार्मिक उत्पीड़न से उपजा पलायन रहा।

पाकिस्तान से अलग होकर बना देश बांग्लादेश भी अल्पसंख्यकों के लिए कब्रगाह साबित हुआ है। बांग्लादेश में 2022 की राष्ट्रीय सरकारी जनगणना के अनुसार,देश में हिंदुओं का प्रतिशत 2011 में कुल जनसंख्या के 10  फीसदी से घटकर 2022 में 8 फीसदी हो गया है। पत्रकार दीप हलदर और अकादमिक अविषेक बिस्वास द्वारा लिखित किताब Being Hindu in Bangladesh: An Untold Story में दावा किया गया है कि बांग्लादेश में हिंदू विनाश की भावना से पीड़ित हैं। बंगलादेश में कट्टरपंथी ताकतें यदि हिन्दुओं को निशाना बनती रही तो अगले तीन दशकों में बांग्लादेश में कोई भी हिंदू नहीं बचेगा।

 
लेकिन भारत का मानस बहुत स्पष्ट रहा। सरदार वल्लभभाई पटेल ने आज़ादी के आंदोलन के दौरान कहा था कि हिंदू मुस्लिम एकता तभी आ सकती है जब बहुसंख्यक हिम्मत दिखाएं और अल्पसंख्यकों की जगह ख़ुद को रखकर देंखे,यहीं बहुसंख्यकों की सबसे बड़ी समझदारी होगी। महात्मा गांधी को तो भारत के सर्व धर्म समभाव पर इतना भरोसा था कि वे यूरोपीय धर्मनिरपेक्षता को भारत के लिए गैर जरूरी समझते थे,संभवतः यहीं कारण था कि मूल संविधान  की प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्षता जैसे किसी शब्द की जरूरत ही नहीं समझी गई। भारतीयों का सर्वधर्म समभाव पर भरोसा प्राचीन काल से बना रहा। भारत में कभी भी किसी राजा ने धर्म के आधार पर नागरिकता का कोई प्रावधान नहीं किया।  यहीं कारण रहा की इस्लाम,ईसाई और पारसी भारत की जमीन पर बसे और खूब फलें फूलें।

मध्यकालीन भारत सुलह-ए-कुल या धर्मों के बीच शांति और सद्भाव की अवधारणा पर जोर दिया गया। वहीं भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन शुरू से ही धर्मनिरपेक्ष परंपरा और लोकाचार द्वारा चिह्नित किया गया था। संविधान में भी समानता,स्वतंत्रता,नागरिक,क़ानूनी,सांस्कृतिक और राजनीतिक अधिकार सभी नागरिकों को प्राप्त है और इसमें कोई भेदभाव नहीं किया गया। 1952 के आम चुनाव में नेहरू की जीत को धर्मनिरपेक्षता की जीत तौर पर देखा गया। ऐसा कहा जाने लगा कि भारत की बहुसंख्यक हिन्दू आबादी ने पाकिस्तान के इस्लामिक राष्ट्र बनने के बावजूद धर्मनिरपेक्ष भारत पर अपनी मुहर लगा दी है और साझी संस्कृति में रहने के लिए तैयार है।

भारत में पारसी,जैन,बौद्ध,सिख,ईसाई और मुस्लिम धर्म को अल्पसंख्यक माना जाता है। हाल ही में प्रधानमंत्री की इकोनॉमिक एडवाइज़री काउंसिल ने भारत की जनसंख्या में अल्पसंख्यकों की हिस्सेदारी के जो आकंडे जारी किए है उसके अंतर्गत 1950 से 2015 के बीच हिंदुओं की आबादी 7.82  फीसदी घटी है। वहीं 1950 में भारत की कुल आबादी में मुसलमानों की जो हिस्सेदारी थी उसमें 43.15  फीसदी की बढ़ोतरी हुई है।  इस दौरान ईसाईयों और सिखों की आबादी में भी अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। 

भारत में हिंदुओं की आबादी करीब 78 फीसदी है लेकिन कई राज्यों जैसे पंजाब,लद्दाख,मिज़ोरम, लक्षद्वीप,जम्मू कश्मीर,नागालैंड,मेघालय और अरुणाचल प्रदेश में हिंदुओं की आबादी के मुकाबले दूसरे धर्म के लोग ज्यादा हैं।  मतलब इन राज्यों में हिंदू अल्पसंख्यक है।  

दरअसल भारत का राष्ट्रवाद उपनिवेशवाद का विरोधी था,जिसके केंद्र में बहुसंख्यकवाद नहीं बल्कि बहुलतावाद था। युगों युगों से भारत के लोकाचार और संविधान में यह बहुलतावाद प्रतिबिम्बित हुआ तो अल्पसंख्यकों के लिए यह खुशहाली और प्रगति का कारण बन गया। वहीं भारत के पड़ोसी पाकिस्तान और बांग्लादेश ने बहुसंख्यकों की धर्म पर आधारित व्यवस्थाओं को अंगीकार कर धार्मिक अल्पसंख्यकों के अधिकारों को बेरहमी से कुचल दिया। यहीं कारण है की भारत में जहां अल्पसंख्यकों की आबादी बढ़ रही है वहीं पाकिस्तान और बांग्लादेश में अल्पसंख्यक खत्म होने की कगार पर है।
(इस लेख में व्यक्त विचार/ विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/ विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई जिम्मेदारी नहीं लेती है।)

 

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

रामानुजाचार्य जयंती 2024: जानें जन्म कथा और उनके उपदेश