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Human rights: मानवाधिकार परिषद का अस्वीकार्य रवैया

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अवधेश कुमार

संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद द्वारा नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के खिलाफ उच्चतम न्यायालय में हस्तक्षेप याचिका दाखिल करने को स्वाभाविक ही हैरत से देखा जा रहा है। देश का एक वर्ग नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ है और विदेशों में भी इसे मुद्दा बनाने की कोशिश चल रही है। मानवाधिकार परिषद का तेवर हाल में भारत के अनुकूल नहीं रहा है। किंतु यह उम्मीद नहीं थी कि वह भारत के उच्चतम न्यायालय तक आ जाएगा।

जाहिर है, मानवाधिकार परिषद की ओर से यह असाधारण कदम है और यह यू ही नहीं हो सकता। विदेशी मीडिया के माध्यम से यह खबर बार-बार आ रही थी कि नागरिकता संशोधन कानून के विरुद्ध विश्वव्यापी वातावरण बनाने को लेकर दुनियाभर की मानवाधिकार संस्थाओं और संगठनों का दरवाजा खटखटाया जा रहा है। भारत की एक बड़ी लौबी की सक्रियता के कारण एमनेस्टी इंटरनेशनल से लेकर ग्रीन पीस जैसे संगठन खुलकर भारत सरकार का विरोध कर रहे हैं। मानवाधिकार परिषद का यहां तक आना इस बात का प्रमाण है कि मानवाधिकार लौबी ने उसे तैयार करने में सफलता पाई है।

27 फ़रवरी 2020 को संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त मिशेल बाशेलेट ने जिनीवा में मानवाधिकार परिषद के 43वें सत्र के दौरान ही भारत में नागरिकता संशोधन क़ानून के बाद के हालात और राजधानी दिल्ली में हुई हिंसा पर बयान देकर अपना रुख स्पष्ट कर दिया था। उनकी पंक्तियां देखिए- सभी समुदायों के भारतीयों ने बड़ी संख्या में आमतौर पर शांतिपूर्ण ढंग से क़ानून के प्रति विरोध दर्ज कराया है और सेक्यूलरवाद की लंबी परंपरा को समर्थन दिया है।

मैं कुछ गुटों द्वारा मुस्लिमों के खिलाफ़ हमले करने के मामलों में पुलिस की निष्क्रियता और शांतिपूर्ण ढंग से प्रदर्शन कर रहे प्रदर्शनकारियों पर पुलिस बल द्वारा अत्यधिक बल प्रयोग की रिपोर्टों से चिंतित हूं। अब इसने व्यापक रूप से अंतर-सामुदायिक हमलों का रूप ले लिया है और रविवार 23 फ़रवरी, से अब तक 34 लोगों की मौत हो चुकी है।

‘ये पंक्तियां कितनी एकपक्षीय एवं पूरे मामले को गलत रंग देने वाली है यह बताने की आवश्यकता नहीं। मिशेल ने जम्मू कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी किए जाने के फ़ैसले के बाद पैदा हुए हालात के संदर्भ में भी कहा कि भारी संख्या में सैन्य बलों की मौजूदगी से स्कूलों, व्यापारिक प्रतिष्ठानों और लोगों की आजीविका प्रभावित हुई है और अत्यधिक बल प्रयोग और सुरक्षा बलों द्वारा मानवाधिकारों के गंभीर हनन के आरोपों की जांच के लिए कोई क़दम नहीं उठाया गया है’

तो मिशेल का भारत विरोधी रवैया एकदम स्पष्ट था। साफ है कि वो भारत विरोधी मानवाधिकार लौबी से प्रभावित होकर ही बयान दे रहीं थीं। किंतु वो इस सीमा तक जाएंगी इसकी कल्पना करना मुश्किल था। निस्संदेह, यह प्रश्न उठेगा कि क्या संयुक्त राष्ट्रसंघ से जुड़े किसी निकाय को संसद द्वारा बनाए गए कानून के खिलाफ उस देश की उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाने का अधिकार है? देश के अंदर 160 से ज्यादा याचिकाए नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ उच्चतम न्यायालय में लंबित है। न्यायालय को जो फैसला देना होगा देगा। साफ है कि मानवाधिकार परिषद ने इसे अंतरराष्ट्रीय मामला बनाने के लक्ष्य से ऐसा किया है। स्वाभाविक ही भारत इसका कड़ा प्रतिवाद करेगा और उसने किया है।

विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रवीश कुमार ने कहा कि सीएए भारत का अंदरूनी मामला है और यह संसद के कानून बनाने के संप्रभुता के अधिकार से संबंधित है। उनका यह कहना भी सही है कि भारत की संप्रभुता से जुड़े किसी भी मामले में विदेशी पक्ष को दखल देने का कोई हक नहीं है। वस्तुतः उन्होंने इस पर विस्तृत बयान जारी किया। इसमें कहा गया है कि भारत इस बात को लेकर भी पूरी तरह स्पष्ट है कि सीएए वैध कानून है और यह भारतीय संविधान के सभी मूल्यों को ध्यान में रखकर बनाया गया है। यह विभाजन की त्रासदी के बाद उपजी मानवाधिकार संबंधी समस्याओं को सुलझाने के लिए हमारी प्रतिबद्धताओं से जुड़ा कानून है। हमें यकीन है कि हमारे कानूनी पक्ष को उच्चतम न्यायालय द्वारा सही ठहराया जाएगा।

वास्तव में हर देशवासी को भले वह नागरिकता कानून का समर्थक हो या विरोधी इस पर एकजुट होना चाहिए कि हमारे अंदरुनी मामले में किसी विदेशी संस्था को दखल देने का अधिकार नहीं है। भारत के नागरिक को पूरा अधिकार है कि वो कानून को न्यायालय में चुनौती दे, लेकिन बाहरी संस्था का आना हस्तक्षेप है और इसलिए यह आपत्तिजनक और अस्वीकर्य है। यह अलग बात है कि गहरे रुप से विभाजित राजनीति तथा वैचारिकता के आधार पर खेमेबंदी का शिकार बौद्धिक वर्ग ऐसा नहीं करेगा। लेकिन आम लोग तो प्रखर विरोध कर ही सकते हैं। उच्चतम न्यायालय भी देखेगा कि इस वैश्विक संस्था को याचिका दायर करने का अधिकार है या नहीं।

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने पिछले साल दिसंबर में कहा था कि नागरिकता कानून पर संयुक्त राष्ट्रसंघ की निगरानी में जनमत संग्रह करवा लें। इसे ठुकराते हुए संयुक्त राष्ट्रसंघ महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने 21 दिसंबर 2019 को कहा था कि संयुक्त राष्ट्र जनमत संग्रह के मामले में सिर्फ राष्ट्रीय सरकार के अनुरोध पर ही जुड़ता है। हालांकि बयान देते हुए गुटेरेस के प्रवक्ता स्टीफन डुजैरिक ने नागरिकता संशोधन कानून पर हो रहे प्रदर्शन और हिंसा पर चिंता जताई थी। इसका एक मतलब हुआ कि संयुक्त राष्ट्र सहित अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की नजर नागरिकता संशोधन कानून तथा इसे लेकर हो रहे प्रदर्शनों पर लगातार बनी हुई है। भारत की कूटनीति लगातार सक्रिय है और जवाब भी दे रही है। उसके बाद से संयुक्त राष्ट्रसंघ का कोई बयान नही आया।

प्रश्न यह भी है कि क्या मानवाधिकार परिषद के कार्य और क्षेत्राधिकार में यह आता है? संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद् की स्थापना 15 मार्च, 2006 को संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा मानवाधिकार परिषद् गठित करने के पारित प्रस्ताव के तहत हुआ था। जैसा हम जानते हैं संयुक्त राष्ट्र संघ ने मानव अधिकार आयोग की स्थापना वर्ष 1946-47 में आर्थिक एवं सामाजिक परिषद् की एक कार्यात्मक समिति के रूप में की थी। परिषद की स्थापना के साथ आयोग को 16 जून, 2006 को समाप्त कर दिया गया तथा 19 जून, 2006 को परिषद् की प्रथम बैठक आयोजित की गई। इसके 47 सदस्य है जिनका चुनाव प्रत्येक तीन वर्ष के लिए संयुक्त राष्ट्रसंघ महासभा द्वारा किया जाता है।

यह संयुक्त राष्ट्र महासभा के अधीन है। यह किसी भी देश में मानवाधिकारों के उल्लंघन का गहन विश्लेषण कर सकता है। इसका कार्य सार्वभौमिकरण, निष्पक्षता, वस्तुनिष्ठता एवं सृजनात्मक अंतर्राष्ट्रीय संवाद के सिद्धांतों के अंतर्गत निर्देशित होगा। यह समय पर सभी एजेंसियों एवं निकायों को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करतक है ताकि मानवाधिकार उल्लंघन को व्यवस्थापरक ढंग से रोका जा सके। इसके कार्य एवं अधिकार में कहीं उल्लेख नहीं है कि किसी देश की संसद द्वारा बनाए गए कानून के खिलाफ वह उस देश के न्यायालय में जा सकता है।

वैसे इसके पूर्व भी मानवाधिकार परिषद के साथ भारत का आमना-सामना हो चुका है। 01 जुलाई 2018 को तो भारत ने साफ कहा था कि परिषद की पुनर्रचना होनी चाहिए। भारत ने इसका नया ढांचा तैयार करने के लिए समान विचार वाले अन्य देशों के साथ संवाद भी शुरु किया था। परिषद के तत्कालीन उच्चायुक्त जैद अल हुसैन के नेतृत्व में यूनीवर्सल पीरियाडिक रिव्यू में कश्मीर को लेकर एकपक्षीय रिपोर्ट जारी हुआ था जिसमें पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर की स्थिति को नजरअंदाज किया गया था।

उच्चायुक्त ने नक्सलियों से संपर्क के कारण जेल में बंद एक प्रोफेसर तक की पैरवी करके भारत के प्रति अपने पूर्वाग्रह को जाहिर किया था। जैद कश्मीर पर भारत विरोधी बयान दे देते थे और आतंकवाद पर एक शब्द नहीं बोलते थे। भारत ने महासभा में अभियान चलाया तथा बहुमत देश साथ आए और 31 अगस्त 2018 के बाद उनके कार्यकाल को विस्तार नहीं मिला। किंतु लड़ाई समाप्त नहीं हुई। पुनर्रचना का कार्य शेष है। इस घटना ने बता दिया है कि या तो भारत पुनर्रचना के लिए काम करे या फिर विरोध में परिषद से अलग हो जाए। ध्यान रखिए, जिस समय भारत परिषद की पुनर्रचना की बात कर रहा था उसी समय 21 जून 2018 को अमेरिका ने इससे बाहर होने का ऐलान कर दिया।

अमेरिका ने भी कहा था कि वह परिषद में सुधार चाहता था, लेकिन मानवाधिकार का उल्लंघन करने वाले देश इसे सफल नहीं होने दे रहे। अमेरिका ने कहा था कि परिषद लगातार उन देशों को बलि का बकरा बनाता है जिनका मानवाधिकार के मामले में रिकॉर्ड बेहतर है। अमेरिका भी तीन साल के लिए सदस्य बना था और उस समय उसका डेढ़ साल का कार्यकाल बाकी था। 12 अक्टूबर 2018 को संयुक्त राष्ट्र महासभा के 193 सदस्यों में से 188 के भारी मतों से भारत एशिया प्रशांत कोटे से सदस्य निर्वाचित हुआ था। 1 जनवरी 2019 से इसका कार्यकाल आरंभ हुआ। सीधी बात है। या तो परिषद अपना कदम खींचे या हम उससे बाहर आएं। यह ऐसी संस्था नहीं है जिसमें हमारा रहना अपरिहार्य हो।

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