Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

मनुष्य भी प्रकृति का अंश है

हमें फॉलो करें मनुष्य भी प्रकृति का अंश है
webdunia

अनिल त्रिवेदी (एडवोकेट)

, शनिवार, 11 जुलाई 2020 (17:00 IST)
अनिल त्रिवेदी (एड्वोकेट)
 
मनुष्य का आकार एक निश्चित क्रम में होता है। जीव के जीवन में गति होती है। जीव के जीवन में स्पंदन होता है। प्रकृति सनातन है। बिना स्पंदन के जीवन की कोई गति नहीं। गतिहीन व्यक्ति समाज को आकार नहीं दे सकता। गतिशील व्यक्ति ही समाज को तात्कालिक रूप से आकार देता आभासित महसूस होता हैं, पर मूलत: यह मानवी ऊर्जा का अस्थायी एकत्रीकरण ही होता है।
 
गतिशीलता प्रकृति का सनातन स्वरूप है। जीव प्रकृति का आकार है, पर प्रकृति सनातन निराकार स्वरूप में गतिशील रहकर प्रत्येक जीव को स्पंदित रखती है। जीव का स्पंदन ही जीवन के सनातन आकार को गतिशीलता प्रदान करता है। आकार से निराकार और निराकार से आकार की अभिव्यक्ति ही प्रकृति का सनातन स्वरूप है, जो एक निरंतर गतिशील स्वरूप में व्यक्ति से समाज में चेतना के स्वरूप में स्पंदित होती रहती है।
मनुष्य के जन्म से यानी साकार स्वरूप में आने से मृत्यु के क्षण यानी निराकार में विलीन होने तक ही मनुष्य का व्यक्तिगत जीवन मानते हैं, पर निराकार स्वरूप पाया मनुष्य, स्मृतिस्वरूप जीवन का हिस्सा बन जाता है। मनुष्य ही इस प्रकृति का अनूठा जीव है, जो अपने निराकार विचारों को साकार करने की क्षमता रखता है। इस धरती पर ही मनुष्य ने जीवन के रहस्यों को जानने, समझने और उजागर करने के जितने प्रयास किए हैं, उतने अन्य किसी जीव ने नहीं। इसी से मनुष्य के मन में प्रकृति पर विजय का विचार जड़ जमाता जा रहा है।
 
प्रकृति मनुष्य को जीभर खेल, खेलने देती है, मनुष्य को रोकती नहीं। पर अपने निराकार और सनातन स्वरूप से मनुष्य के मन में यह भाव बार-बार पैदा करती है कि मनुष्य और प्रकृति के बीच संबंध जय-पराजय के नहीं, अनंत सहजीवन के हैं। मनुष्यों के जीवनभर हाड़तोड़ मेहनत के पश्चात अधिकतर मनुष्यों को यह आत्मज्ञान कालक्रमानुसार हो जाता है कि मनुष्य भी मूलत: प्रकृति का अंश ही है, उससे कम या ज्यादा नहीं।
 
मूलत: प्रकृति और मनुष्य एक-दूसरे से ऐसे घुले-मिले या मिले-जुले हैं कि मूलत: दोनों को एक-दूसरे से पृथक किया ही नहीं जा सकता है। इसे समझने के लिए यह धरती, मनुष्य, सारे जीव-जंतु, पेड़-पौधे सब पंचतत्वों से अभिव्यक्त हुए हैं। इन सबके आकार स्वरूप में भिन्नता होते हुए भी जीवन और स्पंदन में अभिन्नता होती है।
मनुष्य अपने कृतित्व और विचारों से खुद भी और दूसरे मनुष्यों से भी प्रभावित होता है और एक-दूसरे को परस्पर प्रभावित भी करता है। मनुष्य में मानवीय मूल्यों को समाज में विस्तारित करने और लोगों के बीच नफरत, कटुता, वैमनस्य का विस्तार करने की भी बराबरी से क्षमता होती है। मोहब्बत और नफरत, अपनत्व और कटुता, सौमनस्य और वैमनस्य उठती-गिरती लहरों की तरह ही मन की अभिव्यक्तियां हैं, जो हर मनुष्य के मन-मस्तिष्क में दिन-रात की तरह आती-जाती रहती हैं।
 
मनुष्य चिंता और चिंतन सतत करते रहते हैं। ये दोनों मनुष्य की प्रकृति के हिस्से हैं, पर प्रकृति इस झंझट से दूर है। न चिंता न चिंतन, न वैमनस्य न सौमनस्य, न मोहब्बत न नफरत, न अपनत्व न कटुता। प्रकृति में कोई भाव ही नहीं है। इससे प्रकृति में कभी कोई अभाव नहीं होता। इसी से प्रकृति सदैव प्राकृत स्वरूप में होती है। एक क्रम में निरंतर हर क्षण है, हर कहीं व्याप्त है, अपने सनातन प्राकृत स्वरूप में।
webdunia
प्रकृति ने मनुष्य को अभिव्यक्त किया साथ ही अपने को हर रूप, रंग और भाव में अपने स्वभाव अनुरूप अभिव्यक्त करने की क्षमता दी। पर प्रकृति ने कभी अपने रूप, रंग और स्वभाव में काल अनुसार बदलाव नहीं किया, बल्कि वह सदा सर्वदा अपने सनातन प्राकृतिक स्वरूप में निरंतर जीव और जीवन के क्रम को सदा सर्वदा से और सदा सर्वदा के लिए स्पंदित और गतिशील रखा और रखेगी। यह प्रकृति का प्राकृत और सनातन स्वरूप है।
 
कभी-कभी मनुष्यों को यह लगता है कि मनुष्य के कृतित्व ने प्रकृति यानी कुदरत के क्रम को बदल दिया है। कभी-कभी हमें यह लगने लगता है कि हमारा जीवन अप्राकृतिक हो गया है। हमें अपना जीवन प्राकृतिक बनाना चाहिए। हमारा विकास प्राकृतिक रूप से होना चाहिए। यहां फिर एक सवाल उठता है कि मनुष्य खुद ही जब प्रकृति का अंश है, तो वह अप्राकृतिक कैसे हो सकता है?
 
क्या प्रकृति अपने अंश में अप्राकृतिक हो सकती है? क्या मनुष्य की प्रकृति अप्राकृतिक हो सकती है? दोनों ही स्थितियां संभव नहीं हैं। हमारी इस धरती पर मनुष्यों की जितनी संख्या आज जिस रूप, आकार या संख्या में है, उतनी संख्या में ज्ञात इतिहास में एकसाथ कभी नहीं रही।
 
आज धरती पर प्रकृति को मनुष्यों या जीव-जंतु, पेड़-पौधों से कोई समस्या नहीं हैं। पर इस धरती पर जितने भी मनुष्य हैं, उन सबको एक-न-एक समस्या एक-दूसरे से जरूर है। आज के अधिकांश मनुष्य परस्पर एक-दूसरे को सहयोगी साथी न समझ समस्या समझने लगे हैं। यही हम सबकी समझ में हुआ बुनियादी फेरबदल है जिसमें हम सब उलझ गए हैं।
 
मनुष्य की प्रकृति में समाधान कम, समस्याएं ज्यादा दिखाई पड़ रही हैं। मनुष्य का जीवन भौतिक संसाधनों पर ज्यादा अवलंबित होता जा रहा है। मनुष्य की जिंदगी में राज्य और बाजार के संसाधनों की बाढ़ आ गई। इससे मनुष्य की प्रकृति और प्रवृत्ति में मूलभूत बदलाव यह दिखाई देने लगा है कि हम सब एक बड़े दर्शक समाज में बदलने लगे हैं। मनुष्य की प्रकृति एकांगी होते रहने से मनुष्यों की दूसरे समकालीन मनुष्यों के प्रति सोच और व्यवहार में एक अजीब-सा बनावटीपन दिन-ब-दिन बढ़ता ही जा रहा है।
 
मनुष्य का मनुष्य के प्रति और प्रकृति के प्रति बुनियादी नजरिया व्यापक से संकुचित वृत्ति की ओर बढ़ रहा है। एक स्थिति यह भी उभर रही है कि आर्थिक समृद्धि के विस्फोट से मनुष्यों का वैश्विक आवागमन एकाएक बहुत बढ़ गया है। इससे भी मनुष्य की मूल प्रकृति और प्रवृत्ति में बुनियादी बदलाव हुआ है जिससे सामान्य मनुष्यों के मन में भी यह भाव जग रहा है कि पैसे की ताकत से धरती और प्रकृति के साथ जो मन में आए, वह कर सकते हैं। इसी से अधिकतर मनुष्यों के जीवन की अवधारणा और प्रकृति ही सिकुड़ गई है।
 
इतनी व्यापक धरती और प्रकृति और इतना एकांगी मनुष्य जीवन, विचार और व्यवहार समूची दुनिया में उभरा मानवीय संकट है जिससे प्रकृति के विराट स्वरूप की तरह व्यक्तिगत जीवन में व्यापक होकर हम सब इस संकट से उबर सकते हैं।

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

Venus Transit in Gemini | शुक्र आएंगे मिथुन में, राहु-शुक्र की युति होगी हानिकारक, पढ़ें 12 राशियों पर क्या होगा असर