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लोकतंत्र को खोखला करता राजनीति में परिवारवाद

हमें फॉलो करें लोकतंत्र को खोखला करता राजनीति में परिवारवाद
- महेश तिवारी
        
विश्‍व का सबसे बड़ा लिखित संविधान हमारे देश का है। भारतीय संविधान में लोकतंत्र का जिक्र किया गया है। भारतीय परिदृश्‍य में लोकतंत्र की बात की जाती है। लोकतांत्रिक देश में परिवार की कल्पना नहीं की जा सकती है। वर्तमान समय में देश की राजनीति में जो माहौल बना हुआ है। वह लोकतंत्र में ही राजशाही व्यवस्था को जन्म देने वाला गूढ़ अर्थ बता रहा है। देश की राजनीति में कुछ राजनीतिक पार्टियों को छोड़ दिया जाए, तो सभी राजनीति दल अपने और परिवार को आगे बढ़ाने के लिए लोकतंत्र को ठेंगा दिखाकर राजनीति में परिवारवाद को बढ़ावा दे रहे हैं। 
 
प्रदेशों की क्षेत्रीय राजनीति में जिस तरीके से अपने हित को साधने के लिए परिवारवादी सोच राजनीतिक पार्टियों में हावी हो रही है, वह स्वस्‍थ लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं कहा जा सकती है। देश की आजादी के बाद लोकतांत्रिक व्यवस्था के अनुसार, सरकार का निर्माण जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में बनी, लेकिन कांग्रेस के उसी शासनकाल में परिवार की शुरुआत हो चुकी थी। जिस देश में लोकतांत्रिक शासन प्रणाली है, वहां पर राजशाही व्यवस्था समाज के स्वरूप के लिए ठीक नहीं कही जा सकती है। 
         
आज देश की राजनीति स्वार्थ हितों के लिए इतनी बेचैन हो गई है कि समाज और देश के हितों का परित्याग कर चुकी ये राजनीतिक पार्टियां प्राचीनकाल की शासन प्रणाली को अपनाने को मोहताज हो चली हैं। जिस शासन व्यवस्था को निरंकुश शासन माना जाता हो, वह वर्तमान परिदृश्‍य में देश के हित में कैसे हो सकती है? आज देश की अधिकतर पार्टियां चाहे वह कांग्रेस हो, सपा, और तमिलनाडु के अन्नाद्रमुक की बात हो। राजनीति में परिवारवाद अपनी पैठ जमा चुका है। 
 
कांग्रेस पार्टी में इंदिरा गांधी और जवाहरलाल नेहरू के समय से ही राजाशाही व्यवस्था हावी हो चुकी थी। देश की स्वतंत्रता में भागीदार कांग्रेस ने ही देश के साथ जिस तरीके का व्यवहार किया, वह उचित नहीं कहा जा सकता है। भाजपा, बसपा इस स्वार्थ हित से प्रेरित नहीं दिख रही है, लेकिन लोकतंत्र में जिस तरीके से परिवार राजनीति में हावी हो रहा है, वह देश के साथ प्रतिभा का हनन भी माना जा सकता है। 
                                    
सपा में विगत दिनों से कलह का दौर जारी है, लेकिन सपा कुनबे में वर्तमान का जिस तरीके से भाई-भतीजावाद उत्तर प्रदेश की राजनीति में पैठ बना चुका है। वह प्रदेश की राजनीति में ठीक नहीं माना जा सकता है। स्‍वस्‍थ लोकतंत्र में यह जरूरी होता है कि सभी के लिए दरवाजा खुला होना चाहिए, फिर वह चाहे राजनीति हो या कोई दूसरा क्षेत्र। राजनीति में बढ़ते परिवारवाद और राजशाही की वजह से ही बिहार में राबड़ी देवी मुख्‍यमंत्री के पद तक जा पहुंचीं। इस तरह के उदाहरण अन्य राज्यों में पेमा खांडू, और चन्द्रबाबू नायडू के रूप में देखा जा सकता है। 
 
राजनीति में एकल प्रभाव होने की हानियां भी होती हैं। किसी एक व्यक्ति का प्रभाव होने के कारण उसके अस्‍वस्‍थ होने आदि की दशा में पार्टी पर प्रभाव पड़ता है, जैसा ताजा उदाहरण तमिलनाडु में देखा जा सकता है, लेकिन लोकतंत्र में जब किसी एक ही व्यक्ति का अधिकार हो जाता है, तो लोकतंत्र प्रभावित हो जाता है। उसके एक ही विचार पर पार्टी के चलने से समाज के लिए उचित फैसले नहीं हो पाते हैं। वह अकेला नेता अपने हितों के लिए समाज से अलग हटकर अपनी स्वार्थपूर्ति की नीति को अपना सकता है। वर्तमान दौर की बात की जाए तो जिस समाजवाद का उदय कांग्रेस के राजशाही व्यवस्था पर हमला करने के बाद हुआ था। आज वह कांग्रेस से हजारों कदम आगे बढ़ चुकी है।
                 
2004 में जब मनमोहन के हाथ में यूपीए की सरकार आई, तो लगा कि कांग्रेस परिवारवाद की परिपाटी को छोड़कर आगे समाज के विकास को अपना एजेंडा बनाएगी। फिर 2014 के लोकसभा चुनाव में जिस तरीके से युवराज को कांग्रेस ने मोदी के खिलाफ खड़ा किया, उससे जगजाहिर हो गया कि कांग्रेस अपनी पुरानी लीक पर ही चलेगी। क्षेत्रीय सियासत में जिस तरीके की भाई-भतीजावाद का खेल चल रहा है। उससे क्षेत्र में विकास का मुद्दा तो कहीं खो सा गया है। अपने हितों के लिए चुनाव में जातिवादी व्यवस्था को कायम रखने की फिराक में भी ये राजनीतिक दल पीछे नहीं रहना चाहते हैं। 
 
दलितों और मुस्लिमों के ठेकेदार बनकर अपनी सियासत को चमकाने के लगे हुए है। प्रदेश और कौम के विकास का मुद्दा इनके एजेंडे से खत्म-सा हो चला है। देश में जब हर स्तर पर लोकतंत्र की दुहाई दी जाती है, तो इन परिवारिक कुनबे वाली पार्टियों को भी अपने परिवार को आगे बढ़ाने की नीति को पीछे छोड़कर देश के विकास को महत्व देना होगा। अगर देश में सच्चे अर्थों में लोकतंत्र की बात होनी चाहिए, तो इन पार्टियों को भी राजनीतिक दायरे में  रहकर कार्य करना होगा।

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