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देश के प्रचार तंत्र से क्या अपेक्षा करें?

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अनिरुद्ध जोशी

पूंजीवाद, साम्राज्यवाद, दक्षिणपंथ और साम्यवाद की लड़ाई के बीच भारत के राजनेता और मीडिया से कुछ सवाल पूछने का कोई हक मुझे नहीं है और मतलब भी नहीं है। यदि किसी समस्या का समाधान बातचीत से हो जाता, तो महाभारत का युद्ध नहीं होता और युद्ध ही सभी समस्याओं का एकमात्र विकल्प है तो यह भी जान लेना जरूरी है कि महाभारत में दोनों ही पक्ष युद्ध से बर्बाद हो गए थे। पांडव जीतकर भी सब कुछ हार गए थे। हां, इस युद्ध से दुनिया को कुछ सबक और गीता का ज्ञान जरूर मिला। हालांकि उस सबक या ज्ञान का भारत ने कभी लाभ उठाया या नहीं, यह शोध का विषय हो सकता है।
 
 
सीरिया, इराक, अफगानिस्तान, वियतनाम में न तो किसी की हार हुई और न जीत, लेकिन यह जरूर हुआ कि ये मुल्क बर्बाद हो गए। हालांकि इन मुल्कों को बर्बाद करने में अमेरिका या रूस का उतना योगदान नहीं रहा, जितना कि इसी मुल्क के लोगों का रहा। ये वे ही लोग हैं जिन्होंने अपने ही लोगों के खून की नदियां बहाईं सिर्फ इसलिए कि उन्हें अपनी विचारधारा को स्थापित (लेफ्ट या राइट) करना था। आज यदि शिनजियांग, कश्मीर, चेचन्या और राखिन, नाइजीरिया आदि जगहों को भी सीरिया बनाने की कवायद जारी है तो इसके पीछे एक मकसद है। उन लोगों का जिन्हें यहां के लोगों की जिंदगी से कोई मतलब नहीं है।
 
 
लेकिन यहां उपरोक्त लिखीं बातों का कोई अर्थ नहीं, क्योंकि हम बात कर रहे हैं उस ज्ञान की, जो दुनिया के लगभग सभी ग्रंथों में लिखा है और जिसे सभी अवतारी, पैगंबर, भगवान, प्रॉफेट के अलावा संत और दार्शनिक लोग जानते हैं। यदि कोई नहीं जानता है तो वह है सिनेमा, राजनीति, मीडिया, तथाकथित बुद्धिजीवी और धर्म के ठेकेदार लोग। इस ज्ञान के बारे में चर्चा करने के पहले थोड़ी आलोचना की जाए...!
 
 
यदि आप यह मानते हैं कि मीडिया और राजनीति के सर्वोच्च स्थान पर बैठे लोग बहुत समझदार हैं, तो यह धारणा कितनी सही है इस पर भी शोध होना जरूरी है। क्या वे सभी बाजार और भीड़ के उस तंत्र से प्रभावित हैं, जो उन्हें संचालित करती हैं? क्या वे सभी पर्दे पर कुछ और हैं और पर्दे के पीछे कुछ और? उन्हें उन्हीं वस्तुओं और व्यक्तियों का ज्ञान है, जो उनके जीवन से जुड़े हैं? कोर्स की किताबों के अलावा अन्य ढेर सारी किताबें पढ़कर भी यदि आप समझदार नहीं बने हैं तो वह ज्ञान कचरा ही है। आप पूछ सकते हैं कि समझदार या बुद्धिमान बनने का मापदंड क्या है? और क्या आप (लेखक) ऐसे हैं? लेखक से यह सवाल पूछा जा सकता है कि क्या आप इस देश की मीडिया और राजनेताओं को मूर्ख या बुद्धिहीन मानते हैं?
 
 
इसका सीधा सा जवाब है... नहीं। मूर्ख या बुद्धिहीन व्यक्ति कुछ भी करने में सक्षम हो या न हो लेकिन वह देश को उतना नुकसान नहीं पहुंचाएगा जितना कि खुद को बुद्धिमान, समझदार और ईमानदार समझने वाले लोग पहुंचा रहे हैं। आपके पास लेखक से बेहतर तर्क हो सकते हैं, लेकिन आप उस व्यक्ति से हार जाएंगे, जो भूख से तड़पकर मर गया है, सीमा पर जो शहीद हो गया है, नक्सल एरिया में जिसे गोली मार दी गई है या जिसने मंदिर-मस्जिद के बाहर बैठे एक गरीब पर अपना सब-कुछ लुटा दिया। लेकिन जीवन में कभी मंदिर या मस्जिद नहीं गया।
 
 
उक्त सभी ने अपने जीवन में ऐसा कुछ नहीं किया है कि मरते वक्त उन्हें शर्म महसूस हो, ईश्वर के समक्ष जाने से डरें, पश्चाताप हो या उन्हें मौत का डर सताने लगे। हां, आपने जरूर ऐसा किया होगा। आप समझते हैं कि आप अपना कर्तव्य निभा रहे हैं तो ऐसा नहीं है। आप मोटी तनख्‍वाह के लिए देश में सनसनी फैलाकर देश को बर्बादी की राह पर धकेल रहे हैं। आप ऐसा देश निर्मित करने में लगे हैं जिसमें आपके पोते सांस नहीं ले सकेंगे। आपने सीरिया के हालात देखे हैं। इन हालातों के लिए उन सभी बच्चों के वे दादा और पिता दोषी हैं, जो वॉट्सऐप और फेसबुक के माध्यम से देश में क्रांति ले आए थे। सभी को तहरीर चौक तो याद ही होगा?
 
 
सोशल मीडिया, इंटरनेट, टीवी चैनल और अखबार वर्तमान समय में अपनी राह से भटककर उस राह पर चलने लगे हैं जिस राह के आगे अंत में भयावह भविष्य सामने खड़ा मिलेगा। तब आपको समझ में नहीं आएगा कि अब क्या करें? दरअसल, ऐसा नहीं है, तब तक आप बदल चुके होंगे। तब आप पूर्णत: देश के खिलाफ एक नए देश के पक्ष में जीवन को बेहतर बनाने के रास्ते ढूंढ रहे होंगे, जैसा कि 1947 में हुआ। वे सभी लोग एक नया और बेहतर देश बनाने के लिए विभाजित हो गए। लेकिन इसका परिणाम क्या हुआ? आप इसका विश्लेषण कर सकते हैं कि जिस देश ने जलियांवाला बाग कांड किया, आप उनके दोस्त हैं।
 
 
मीडियाकर्मी ऐसे सवाल पूछते हैं जिससे जातिवाद, प्रांतवाद और भाषावाद को बढ़ावा मिलता है। मसलन, वे सवाल करते हैं कि आप दलित हैं तो आपको जीवन में कितनी परेशानी उठाना पड़ी? उस छात्र ने सोचा नहीं था कि उसकी जाति को लेकर कोई सवाल पूछ सकता है। लेकिन इस सवाल से अप्रत्यक्ष रूप से जातिभेद कर दिया गया। समाज में विभाजन करने के लिए ये दलित और ब्राह्मण जैसे शब्द पिछले कुछ सालों में ज्यादा प्रचारित किए गए। उसी तरह हिन्दू और मुसलमानों के बीच भी वैमनस्य को बढ़ाने के लिए उन खबरों पर ज्यादा फोकस किया गया, जो मजहबी न होकर व्यक्तिगत थीं लेकिन उसे हिन्दू और मुस्लिम के झगड़े के रूप में प्रचारित करके स्पष्ट विभाजन कर दिया गया। अब परिस्थितियां बदल गई हैं। अब दोनों ही समुदायों के अधिक से अधिक लोगों के बीच नफरत अपने चरम पर है।
 
 
यह सवाल उठने पर कि आप लोगों के बीच नफरत फैलाने का कार्य क्यों करते हैं? इसके जवाब में वे ऐसी भी इक्का-दुक्का रिपोर्ट निकालकर बता देंगे, जो सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल हो। दरअसल, ऐसी मिसालें तो समाज में स्वत: ही घटित होती हैं लेकिन नफरत को प्रचारित करने का कार्य समाज नहीं करता। आपके द्वारा प्रचारित नफरत के आधार पर ही कोई समाज खुद को असुरक्षित महसूस कर कुछ कदम उठाने का कार्य करता है। बस इतने से ही आपका मकसद पूरा हो जाता है। इसके बाद आपको जहरीली बहस का एक और विषय मिल जाता है।
 
 
आलोचना के बाद अब बात मूल ज्ञान की। आकर्षण का नियम तो सभी जानते ही हैं। लेकिन हम यहां कहना चाहते हैं कि हमारे जीवन में 'भाषा और दृष्य' का बहुत बड़ा योगदान रहता है। इसी से भविष्य निकलता है। यदि हमने भाषा और दृष्य के इस वर्तमान को सुधारा तो निश्चित ही भविष्य सुंदर और सुखी होगा।
 
 
''भाषा और दृष्य'' को सुधारने की जरूरत है। दुनिया खुद-ब-खुद सुधरती जाएगी। दृष्य अर्थात हम जो देख रहे हैं और जो कल्पनाएं कर रहे हैं वह सभी दृष्य में शामिल है। साफ-सुथरी भाषा और साफ-सुथरा दृष्य होना चाहिए। जब हम देखने की बात करते हैं तो यदि हमें कहीं कचरे का ढेर दिखाई देता हो या गंदा आदमी। मेरा मतलब यह भी है कि हमें अच्छे फोटोग्राफ और चित्रों का भी समर्थन करना चाहिए। हमें गंदी सड़क, सिनेमा, इंटरनेट, साहित्य, मीडिया, बहस, कॉमेडी शो, धर्म, परंपरा आदि का विरोध करने के बजाय अच्छे का जिक्र करना चाहिए। आप समझ रहे हैं कि मैं क्या कहना चाहता हूं?
 

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