इंदौर अपने स्वाद के लिए जाना जाता है, यहां की बोली में भी एक कसैला स्वाद है, मूड ख़राब होने पर जबान में कभी- कभी कड़वाहट सी भी उभर आती है.
कभी कहीं भियो राम सुनाई आता है तो मूंह में सीताफल सा घुल जाता है.
किंतु मूलतः और अंततः यह शहर अपने भोजन और अल्पाहार के स्वाद के लिए ही लोकप्रिय है. कई दूसरे शहरों में पोहा, जलेबी, सेव आदि को इंदौर के नाम से चला रहे हैं. कुछ तो महज़ जीरावन डालकर उसे इंदौरी बना देते हैं. अपनी दुकान चलाने के लिए आपको सिर्फ 'इंदौर का प्रसिद्ध' बस इतनाभर ही लिखना होता है.
अब इसी इंदौर नाम और स्वाद का लाभ लेने के लिए यहाँ सैकड़ों- हज़ारों होटल्स, दुकानों और रेस्तरांओं की एक नई परत इस शहर के स्वाद की तासीर को ढंक रही है. इसके नाम को मंद कर रही है.
रेड- ब्लू, ब्लैक रंग से पुती दीवारें, वुडन कलाकारी, पत्थरों की नक्काशी, लाउड म्यूजिक, एल्विस प्रिस्ले, जिमी हेंड्रिक्स, चे ग्वेरा और जिम मॉरिसन के पोर्ट्रेट और कैरिकेचर. इन होटल्स की मेहराबी एंट्री में आप ख़ुद को खोजते रह जाएंगे कि आप 30 और 40 के दशक के रॉक और पॉप म्यूजिक के दौर में हैं या मुगल- काल में. या कि सिगार के उड़ते धुएं के बीच चे ग्वेरा की क्यूबन रिवोल्यूशनरी के दौर में पहुंच गए हैं!
पता नहीं कहाँ से रंग चुराए हैं, कहाँ से रेस्टोरेंट्स के नाम, साइन बोर्ड और उनके टेक्स्ट चुराए हैं, रेस्तरांओं में ब्लिंक करती तमाम रंगों की रोशनी एक मायालोक में लेकर जाती है. मुझे महसूस होता है मैं अभी अभी अपने सफ़ेद घोड़े को रेस्त्रां के बाहर बांध के आया हूँ.
कई बार लगता है मुझे मोक्ष मिल चुका है, और मैं स्वर्ग में तफ़री करने निकल आया हूँ
मैं यहाँ से एक छोटा ग्लास चाय पीकर बाहर निकलता हूँ तो लगता है, रिंदों ने शराब के टैंकर मेरे ऊपर उड़ेल दिए हैं.
आधुनिक फ़ूड श्रृंखला की इस अजीब और बेहद ही बे-स्वाद फेहरिस्त में आपका पेट, ज़बान और आत्मा एक औसत स्वाद के लिए बेचैन हैं. बेनूर है.
मैं खाने के लिए मरा जा रहा हूँ, लेकिन यहां खाने के स्वाद के इतर सबकुछ है, देखने के लिए एक पूरी दुनिया मौजूद है. किंतु पेट के लिए स्वाद और रस से भरी अन्न की एक अदद थाली तक नहीं है.
मैं खाने के लिए यहां आता हूँ-- और एक दृष्टा के रूप में भूखे पेट चला आता हूँ. घर लौटकर किसी हारे हुए बादशाह की तरह अपनी माँ से खिचड़ी या मूंग की दाल और रोटी मांगता हूं.
चाहे रेस्त्रां चले जाइये या ऑनलाइन ऑर्डर कर दीजिए, भोजन की दुनिया चौतरफा नष्ट हो चुकी है. स्प्लेंडिड तीन सितारा में खाने के बाद आपका ज़ेहन अपनी स्मृति में सिर्फ भारी बिल का बोझ लेकर घर लौटता है.
फिर किसी दिन बम्बई बाज़ार या रानीपुरा तरफ किसी गंदी मटमैली और बे-नाम होटलों का रूख़ करता हूँ. मटन या पाये खाता हूं-- और अपनी ज़बान पर थोड़ी मिर्च, थोड़ा तेल लगाकर लौट आता हूँ. मियां भाई के मसालों से भी भरोसा उठ चुका है.
मुझे अक्सर लगता है, मैं सिर्फ और सिर्फ ख़राब भोजन बनाने की वजह से किसी बेरे या विशेषज्ञ शेफ़ की हत्या कर सकता हूँ. बे-स्वाद भोजन हत्या की वाजिब वजह हो सकती है, नहीं?
भूख की याद में. भोजन की दुनिया पूरी तरह से नष्ट हो चुकी है.
(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी अनुभव हैं, वेबदुनिया का इससे कोई संबंध नहीं है।)