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ख़ामोश! मुल्क में अब सवाल पूछना मना है?

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श्रवण गर्ग

, मंगलवार, 9 फ़रवरी 2021 (19:42 IST)
कांग्रेस के तेईस बड़े नेताओं ने जब पार्टी में सामूहिक नेतृत्व के सवाल पर अस्पताल में इलाज करवा रहीं सोनिया गांधी को चिट्ठी लिखी और चुपके से उसे मीडिया को जारी भी कर दिया तब दो चिंताएं ही प्रमुखता से प्रचारित की गईं या करवाई गईं थीं। पहली यह कि नेतृत्व के मुद्दे को लेकर एक सौ छत्तीस साल पुरानी पार्टी में व्यापक असंतोष है। और दूसरी यह कि ‘गांधी-नेहरू परिवार’ पार्टी पर अपना आधिपत्य छोड़कर ‘सामूहिक नेतृत्व’ की मांग को मंज़ूर नहीं करना चाहता जिसके कारण कांग्रेस लगातार पराजयों का सामना करते हुए विनाश के मार्ग पर बढ़ रही है।

कथित तौर पर इन ‘ग़ैर-मैदानी’ और ‘राज्यसभाई’ नेताओं की सोनिया गांधी को लिखी गई चिट्ठी के बाद जिन तथ्यों का प्रचार नहीं होने दिया गया वे कुछ यूं थे : पहला, इतने ‘परिवारवाद’ के बावजूद कांग्रेस में अभी भी इतना आंतरिक प्रजातंत्र तो है कि कोई इस तरह की चिट्ठी लिखने की हिम्मत कर सकता है और उसके बाद भी वह पार्टी में बना रह सकता है। इतना ही नहीं, बजट सत्र में पार्टी की तरफ़ से राज्यसभा में बोलने वालों में वे ग़ुलाम नबी आज़ाद और आनंद शर्मा भी शामिल थे जो सोनिया गांधी को चिट्ठी लिखने वालों में प्रमुख थे।

दूसरा यह कि क्या ऐसी कोई आज़ादी दुनिया के सबसे बड़े राजनीतिक दल भारतीय जनता पार्टी में उपलब्ध है? उसके अनुमानित अठारह करोड़ सदस्यों में क्या कोई यह सवाल पूछने की हिम्मत कर सकता है कि पार्टी और सरकार हक़ीक़त में कैसे चल रही हैं? क्या उस ‘परिवार’ की भी कोई भूमिका बची है जिसे यह देश बतौर ‘संघ परिवार’ जानता है?

कांग्रेस की तरह सत्तारूढ़ दल में भी क्या ‘सामूहिक नेतृत्व’ की मांग या उसकी कमी को लेकर कोई चिट्ठी कभी लिखी जा सकती है और फिर ऐसा व्यक्ति पार्टी की मुख्यधारा में बना भी रह सकता है? लोगों को कुछ ऐसे नामों की जानकारी हो सकती है जिन्होंने कभी चिट्ठी लिखने का साहस किया होगा पर उनकी आज क्या स्थिति और हैसियत है, अधिकारपूर्वक नहीं बताया जा सकता।

क्या कोई पूछना चाहेगा कि एक सौ पैंतीस करोड़ देशवासियों के भविष्य से जुड़े फ़ैसले इस वक्त कौन या कितने लोग, किस तरह से ले रहे हैं? हम शायद अपने आप से भी यह कहने में डर रहे होंगे कि देश इस समय केवल एक या दो व्यक्ति ही चला रहे हैं। संयोग से उपस्थित हुए इस कठिन कोरोना काल ने इन्हीं लोगों को सरकार और संसद बना दिया है।

किसानों के पेट से जुड़े क़ानूनों को वापस लेने का निर्णय अब उस संसद को नहीं करना है जिसमें उन्हें विवादास्पद तरीक़े से पारित करवाया गया था, बल्कि सिर्फ़ एक व्यक्ति की ‘हां’ से होना है। किसानों के प्रतिनिधिमंडल से बातचीत भी कोई अधिकार सम्पन्न समिति नहीं बल्कि एक ऐसा समूह करता रहा है जिसमें सिर्फ़ दो-तीन मंत्री हैं और बाक़ी ढेर सारे नौकरशाह अफ़सर।

कोई सवाल नहीं करना चाहता कि इस समय बड़े-बड़े फ़ैसलों की असली ‘लोकेशन’ कहां है! देश को सार्वजनिक क्षेत्र के मुनाफ़ा कमाने वाले उपक्रमों की ज़रूरत है या नहीं और उन्हें रखना चाहिए अथवा उनसे सरकार को मुक्त हो जाना चाहिए, इसकी जानकारी बजट के ज़रिए बाद में मिलती है और संकेत कोई बड़ा पूर्व नौकरशाह पहले दे देता है।

हो सकता है आगे चलकर यह भी बताया जाए कि राष्ट्र की सम्पन्नता के लिए सरकार को अब कितने और किस तरह के नागरिकों की ज़रूरत बची है। किसान कांट्रेक्ट पर खेती के क़ानूनी प्रावधान के ख़िलाफ़ आंदोलन कर रहे हैं और सरकार में वरिष्ठ पदों पर नौकरशाहों की कांट्रेक्ट पर भरती हो रही है। फ़ैसलों की कमान अफ़सरशाही के हाथों में पहुंच रही है और वरिष्ठ नेता हाथ जोड़े खड़े ‘भारत माता की जय’ के नारे लगा रहे हैं।

स्वर्गीय ज्ञानी ज़ैल सिंह ने वर्ष 1982 में राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी के सिलसिले में कथित तौर पर इतना भर कह दिया था : मैं अपनी नेता का हर आदेश मानता हूं। अगर इंदिरा जी कहेंगीं तो मैं झाड़ू उठाकर सफ़ाई भी करूंगा', और देश में तब के विपक्ष ने बवाल मचा दिया था। आज खुलेआम व्यक्ति-पूजा की होड़ मची है जिसमें न्यायपालिका की कतिपय हस्तियां भी शामिल हो रही हैं।

माहौल यह है कि हरेक आदमी या तो डरा हुआ है या फिर डरने के लिए अपने आपको राज़ी कर रहा है। इसमें सभी शामिल हैं यानी सभी राजनीतिक कार्यकर्ता, नौकरशाह, मीडिया के बचे हुए लोग, व्यापारी, उद्योगपति, फ़िल्म इंडस्ट्री। और, अगर सोमवार को संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर प्रधानमंत्री का उद्बोधन सुना गया हो तो, तमाम ‘आंदोलनजीवी’ और ‘परजीवी’ भी। संभवतः देश के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी में वृद्धि की ‘दर’ को इसी ‘डर’ के बूते दो अंकों में पहुंचाया जाएगा।

पुरानी भारतीय फ़िल्मों में एक ऐसी मां का किरदार अक्सर शामिल रहता था, जो अचानक प्राप्त हुए किसी सदमे के कारण जड़ हो जाती है, कुछ बोलती ही नहीं। डॉक्टर बुलाया जाता है। वह नायक को घर के कोने में ले जाकर सलाह देता है, ‘इन्हें कोई बड़ा सदमा पहुंचा है। इन्हें दवा की ज़रूरत नहीं है, बस किसी तरह रुला दीजिए। ये ठीक भी हो जाएंगी और बोलने भी लगेंगीं! देश भी इस समय जड़ और किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया है। उसे भी ठीक से रुलाए जाने की ज़रूरत है, जिससे कि बोलने लगे।दिक़्क़त यह है कि देश की फ़िल्म में नायक और डॉक्टर दोनों ही नदारद हैं।
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)

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