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जेएनयू: प्रगतिशील विचारधारा के नाम पर उपद्रवी, मजहबी कट्टरपंथी तत्वों का प्रवेश

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अवधेश कुमार

जेएनयू का दृश्य किसी भी विवेकशील व्यक्ति को अंदर से हिला देने वाला है। विश्वविद्यालय परिसर में भारी संख्या में नकाबपोश लाठी-डंडों, हॉकी स्टिक आदि लेकर छात्रों, शिक्षकों पर हमला कर दें, छात्रावासों में तोड़फोड़ करें, हिंसा करें और फिर आराम से भाग जाएं। यह सब कल्पना से परे है। जो वीडियो सामने आए हैं, उनसे लगता ही नहीं कि यह जेएनयू के स्तर का कोई विख्यात विश्वविद्यालय है। अब पुलिस सक्रिय है, प्राथमिकी भी दर्ज हो गई है। उम्मीद करनी चाहिए कि छानबीन निष्पक्ष होगी और दोषी पकड़े जाएंगे।

हां, हम केवल उम्मीद ही कर सकते कर सकते हैं, क्योंकि जिस तरह की राजनीति इस हिंसा को लेकर हो रही है, उसमें पुलिस पर भी दबाव बढ़ता है। एक स्वर में हिंसा की निंदा हो तो पुलिस निर्भीक और निष्पक्ष होकर जांच करती है, लेकिन अगर एक समूह दूसरे पर हिंसा का आरोप मढ़े और दूसरा पहले पर तथा राजनीतिक दल भी कूद जाएं तो फिर दोषियों और अपराधियों का पकड़ा जाना कठिन हो जाता है। जेएनयू में विचारधारा को लेकर एबीवीपी और वामपंथी संगठनों के बीच संघर्ष नया नहीं है। इस संघर्ष का अंत भी नहीं हो सकता। लेकिन वैचारिक संघर्ष विचारधारा तक ही सीमित होनी चाहिए थी। इसमें हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं। हिंसा करने वाले किसी भी विचारधारा के हो वे अपराधी ही माने जाएंगे। अगर तस्वीर यह बन जाए कि एक तरफ की हिंसा सही और दूसरे तरफ की गलत तो आप वैचारिक टकराव को हिंसक टकराव में बदलने से नहीं रोक सकते।

जेएनयू में जो कुछ हुआ उनके बारे में कोई भी जिम्मेवार व्यक्ति बगैर जांच के निश्चित मत नहीं दे सकता। कारण, ऐसी हिंसा से किसी भी विचारधारा के संगठन को लाभ नहीं मिल सकता। इसलिए अच्छा हो कि छात्र संगठनों, शिक्षक समूहों और राजनीतिक दलों के आरोप-प्रत्यारोप से परे हटकर हम पुलिस की जांच रिपोर्ट की प्रतीक्षा करें।

जेएनयू में जो कुछ भी हो रहा है वह हमें गंभीरता से विचार करने को मजबूर करता है। पिछले अक्टूबर में फीस वृद्धि को लेकर दोनों पक्षों के छात्र संगठनों ने आंदोलन किया था। वामपंथी संगठन और कांग्रेस से जुड़ा एनएसयूआई आंदोलन पर कायम रहा, लेकिन विद्यार्थी परिषद यह आरोप लगाते हुए पीछे हट गया कि हमारी लड़ाई केवल फीस वृद्धि के खिलाफ है इसका राजनीतिकरण किए जाने से हम सहमत नहीं है।

यह आंदोलन पिछले तीन महीनों से चल रहा है। विश्वविद्यालय प्रशासन ने फीस में कटौती भी की और अब इतना ज्यादा नहीं है कि आंदोलन को सही ठहराया जा सके। उसमें आर्थिक रूप से कमजोर छात्रों के लिए भी प्रावधान किया गया। बावजूद अगर अहिंसक तरीके से कोई विरोध प्रदर्शन हो रहा है तो हम उसे रोकने के लिए बल प्रयोग की अनुशंसा नहीं कर सकते। लेकिन अगर आंदोलनरत समूह कक्षाओं का बहिष्कार करें, परीक्षाओं का बहिष्कार करें और इसके लिए बलपूर्वक दूसरे छात्रों को भी मजबूर करें तो यह कानून को हाथ में लेना है। वामपंथी छात्र समूह सेमेस्टर परीक्षाओं के लिए रजिस्ट्रेशन को रोक रहे थे।

प्रशासन ने रजिस्ट्रेशन के लिए ऑनलाइन व्यवस्था की तो इन्होंने सर्वर केंद्र पर कब्जा कर उसका तार काट दिया। जो छात्र रजिस्ट्रेशन करने जा रहे थे उनको जबरन भगाया जाता था। उनके साथ मारपीट भी हुई। विद्यार्थी परिषद के लोगों का कहना है कि जो छात्र रजिस्ट्रेशन कराना चाहते थे हम उनका समर्थन करते हैं और उनके साथ गए थे। जो नया वीडिया आया है उसमें जेएनयू छात्र संघ की अध्यक्ष कुछ छात्रों का नेतृत्व कर रहीं हैं जिनके हाथों में डंडे हैं। वे पत्थर चलाते भी दिख रहे हैं। यानी जो दृश्य हमने पहले देखा वह पूरे प्रकरण का एक भाग है। वास्तव में इसे मिलाकर ही पूरे प्रकरण को देखा जाना चाहिए।

यहां एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि अगर कोई छात्र संगठन या कई संगठनों का समूह कक्षाओं को रोक रहा है, बलपूर्वक छात्रों को रजिस्ट्रेशन कराने से रोकता है, छात्रों, शिक्षकों को सरेआम डराता-धमकाता है, नेट के सर्वर सेंटर पर कब्जा कर लेता है तो उनके खिलाफ कानूनी तौर पर कार्रवाई करने में समस्या क्या है या थी? विश्वविद्यालय प्रशासन इतना दब्बू और कमजोर क्यों नजर आता है कि कोई भी छात्र संगठन कानून हाथों में लेकर मनमानी करें और उसके खिलाफ कुछ न किया जाए? इससे पता चलता है कि जेएनयू के अंदर कितनी विकट और जटिल चुनौतियां पैदा हो गई हैं।

यह स्थिति एक-दो दिनों में नहीं हुई है। वर्षों से वहां विचारधारा का टकराव चलता रहा है। जब एक पक्ष यानी विद्यार्थी परिषद काफी कमजोर था तकरार भी कम होते थे। वामपंथी समूह का वर्चस्व जेएनयू में लंबे समय से रहा है। एक समय ऐसा था जब कांग्रेस से जुड़े छात्र संगठन एनएसयूआई के साथ भी उनका टकराव होता था। भाजपा के शक्तिशाली होने के बाद एनएसयूआई वामपंथी छात्र संगठनों के सहयोगी की भूमिका में आ गई है। वैचारिक विभाजन छात्रों तक सीमित नहीं है। शिक्षकों, प्रशासनिक अधिकारियों और कर्मचारियों सभी के बीच वैचारिक विभाजन है। जेएनयू में जो यह ज्यादा दिखता है, क्योंकि वामपंथी उसे क्रांतिकारी विचारों के रक्षित केन्द्र मानते रहे हैं और दूसरे विचार का प्रसार उनको एकाधिकार तोड़ना लगता है।

क्रांतिकारी एवं प्रगतिशील विचारधारा के नाम पर असामाजिक-उपद्रवी एवं मजहबी कट्टरपंथी तत्वों का वहां प्रवेश हो चुका है। हमने फरवरी 2016 में वहां भारत विरोधी नारे के दृश्य देखे थे। उसके बाद जेएनयू में क्या हुआ यह सबके सामने है। उससे यह साफ हो गया कि जेएनयू किस-किस तरह के अवांक्षित तत्वों का आश्रयस्थल एवं गतिविध्यों का केन्द्र बन चुका है। मकबूल बट्ट से लेकर अफजल गुरु तक की बरसी मनाना जेएनयू के अंदर घनीभूत हो चुके वैचारिक विकृति के ही प्रमाण थे। इन सबका अब वहां प्रखर और प्रभावी विरोध हो रहा हो। वर्तमान हमले और प्रतिहमले को देखने के बाद यह मानने में कोई हर्ज नहीं है कि असामाजिक और उपद्रवी तत्व प्रभावी हो चुके हैं।

जितनी बड़ी संख्या में छात्रों को रजिस्ट्रेशन कराने से रोका गया, उनके साथ हिंसा हुई उससे नाराजगी है। अब यह साफ हो गया है कि दिन के आरंभ में रजिस्ट्रेशन का समर्थन करने के कारण विद्यार्थी परिषद के छात्रों पर हमले हुए जिनमें कई बुरी तरह घायल हुए। संभव है उन्होंने बाहर अपने संपर्क के लोगों को वहां की कठिनाइयां बताई हो और फिर जवाब में हमला हुआ हो। दुर्भाग्य यह है कि भाजपा विरोधी पार्टियां जिस तरह से पूरे कांड को संघ परिवार द्वारा प्रायोजित बताकर आग में पेट्रोल डाल रहीं है उससे टकराव बढ़ेगा। इससे बड़ी त्रासदी और क्या हो सकती है कि अस्पतालों में घायल से मिलने में भी नेतागण यह देख रहे थे कि वे किस संगठन से जुड़े हुए हैं। विद्यार्थी परिषद के घायल कार्यकर्ता उनके लिए अछूत थे।

विचार करने की जरुरत है कि कोई सत्तारूढ़ पार्टी हिंसा कराकर कौन सा लक्ष्य प्राप्त करेगी? दिल्ली की कानून व्यवस्था केंद्र सरकार के जिम्मे है तो वह जानबूझकर अशांति क्यों पैदा करना चाहेगी? नौबत यहां तक आ गई है तो उसके लिए किसे दोषी ठहराया जाए इस पर विचार करना पड़ेगा ताकि इससे निपटा जा सके। अगर वामपंथी विचारधारा के छात्र समूह जेएनयू पर अपने वर्चस्व को अधिकार समझते हैं तो यह उनकी समस्या है। वामपंथी दल यदि यह मानते हैं कि वे संघ और भाजपा विरोध के नाम पर अपने छात्र समूहों के साथ खड़ा होकर हाशिए से फिर राजनीति की मुख्यधारा में आ सकते हैं तो इससे बड़ी नासमझी कुछ नहीं हो सकती। इससे हालात और खराब होंगे। तो फिर?

इस टकराव को रोकने के लिए क्या किया जाए? यह केवल कानून और व्यवस्था का प्रश्न नहीं है। पुलिस की भूमिका कानून तोड़े जाने के बाद आरंभ होती है। कानून तोड़े जाने की पृष्ठभूमि को रोकने में मुख्य भूमिका विश्वविद्यालय प्रशासन, शिक्षकों, छात्रों और सामाजिक समूहों की ही हो सकती है। राजनीतिक दलों की भूमिका की हम अनुशंसा इसलिए नहीं कर सकते क्योंकि भाजपा के विरोध में मौका ढूंढने वाले राजनीतिक दल कभी नहीं चाहेंगे कि टकराव खत्म हो और सरकार को घेरने का अवसर उनके हाथ से निकल जाए। विचारधारा के स्तर पर असहमति और मतभेद खत्म नहीं हो सकता, लेकिन यह दुश्मनी और शारीरिक हिंसा में न बदले इसका उपाय करना होगा। जो हिंसा कर रहे हैं उनके खिलाफ कार्रवाई हो। साथ ही ऐसे लोग, जो किसी राजनीतिक विचारधारा से नहीं जुड़े, आगे आएं, जेएनयू विश्वविद्यालय प्रशासन, छात्र संगठन, शिक्षक संगठन सभी से बातचीत करें, उनके बीच संवाद कराने की कोशिश हो। सबको समझाया जाए कि विचारधारा के संघर्ष का मतलब यह नहीं कि हम एक दूसरे के दुश्मन हो जाएं। संवाद की यह प्रक्रिया सतत् चले। जब भी टकराव की नौबत आए उनके बीच मध्यस्थता हो सके इसकी औपचारिक संस्थानिक व्यवस्था हो। जिनका ब्रेनवाश किया जा चुका है कि आरएसस-भाजपा हमारी दुश्मन है और उसको खत्म करना हमारा लक्ष्य वे शायद ही बदले। लेकिन कोशिश करने में क्या समस्या है।

(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)

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