बात उन दिनों की हैं जब मेरे पतिदेव की पोस्टिंग देहरादून में थी। अक्सर होता कि करवा चौथ वाले दिन आसमान बादलों से ढंका रहता और देर रात दिखाई पड़ता। मुझे इस बात की कुछ आदत ही हो चली थी। पर सुबह से रखा व्रत शाम ढलते ही अपना असर दिखाने लगता। दिन तो पूजा की तैयारी, अपनी तैयारी और खाना बनाते निकल गया। पर शाम जब रात की चादर ओढ़ने लगी तो पेट भी बगावत पर उतरने लगा।
नजरें रह रहकर आसमान पर उठती, भगवान अब तो बादलों का साया हटे और चांद अपने सौम्य रूप में दर्शन दें। पर चां द तो रुठे बैठे थे। पतिदेव, मैं और बच्चे कमरे से छत और छत से कमरे के चक्कर लगा कर हार गए पर चांद बादलों की ओट में छिपे रहें।
रात दस बज रहे थे। मैं छत पर गई तो दूर चांद पूरी ओजस्विता से चमक रहे थे। मैंने झट-पट पूजा की, अर्घ्य दिया और आ प्रसाद खाया। पर मजा तो दूसरे दिन का रहा, जब पता लगा कि जिस गोलाकार रोशनी को चांद समझ मैं पूज आई थी, दरअसल वो तो दूर पहाड़ी गांव में जल रहा हाई वॉट का बल्ब था। करवा चौथ बहुत आई पर ऐसी अनोखी नहीं।