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‘दीप’ हमारी सभ्यता और संस्कृति की अलौकिकता का प्रतीक है

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कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल

भारतीय धर्म-दर्शन में दीप का अपना अलग महत्व है। हमारे त्यौहार , दैनंदनी, पूजा-पाठ सभी दीपक के साथ रीतिबद्ध रहते हैं। प्रत्येक शुभ कार्य के पूर्व दीप प्रज्वलन की अनूठी परंपरा सनातन काल से चली आ रही है, जिसमें सम्भवतः हमारे पूर्वजों का इस पध्दति के पीछे का यही उद्देश्य रहा होगा कि दीप के प्रकाश के साथ ही अंधकार का हरण होता है।

अंधकार के नाश के साथ ही नवोत्साह, नवचेतना का प्रारंभ होता है तथा इसके साथ शुभ्रता के वातावरण में कार्यों के कुशल संपादन की आधारशिला रखी जाती है। दीप का अर्थ महज उसकी लौ से उत्पन्न प्रकाश से नहीं है, अपितु उसके पीछे हमारी अन्तश्चेतना की आत्मिक अनुभूति एवं भावात्मक लगाव भी जुड़ा हुआ है। चूंकि आधुनिक समय में प्रकाश के लिए विभिन्न तकनीकें उपलब्ध हो चुकी हैं जिससे किसी भी सीमा तक का प्रकाश विभिन्न आयामों में प्राप्त किया जा सकता है। किन्तु क्या उससे ‘दीप’ का भाव कभी प्राप्त किया जा सकता है?

दीपक हमारे अन्त:चक्षुओं का प्रतिबिम्ब भी है जो सतत हमारे भौतिक एवं आध्यात्मिक विभागों के मध्य समन्वय का सेतु बनने का कार्य करता है। दीप की सतत ज्वलित लौ, हमारी अन्तरात्मा के साथ सीधे सम्पर्क एवं साम्य स्थापित करने की अनुभूति प्रदान करती है।

प्रत्येक शुभकार्य के साथ दीप प्रज्वलन की रीति लगभग यह सुनिश्चित कर देती है कि प्रारंभ किया गया कार्य कुशलतापूर्वक अपनी सम्पन्नता को प्राप्त करेगा व उसमें जीवन मूल्यों व संस्कारों के साथ आगे का पथ प्रशस्त होगा। ‘दीप’ क्या तेल-बाती एवं पात्र के संयोग की निष्पत्ति मात्र है? याकि इसके अलावा अन्य हेतु भी है जिसके कारण दीप ने अपनी यह महत्ता प्राप्त कर ली कि वह हमारे जीवन के सुख-दु:ख दोनों में बराबर का सहभागी-मार्गदर्शक बनकर साहचर्यता के साथ प्रत्येक परिस्थिति में दृढ़तापूर्वक अपनी जलती हुई ‘लौ’ के साथ जीवन की राह दिखलाता और बतलाता है।

दीप का अपने समवेत ढंग से जलना एवं उसकी ‘लौ’ में उतार-चढ़ाव के साथ अनवरत अपने क्षेत्र में प्रकाश बिखेरना इस बात का द्योतक है कि जीवन के इस रणक्षेत्र में अपने मूलस्वरूप तथा स्वभाव के साथ जलते हुए सकारात्मकता तथा निस्वार्थ भाव से समूचे संसार की भलाई करना ही ध्येय होना चाहिए। दीप यह भी प्रेरणा प्रदान करता है कि जीवन का अंत सुनिश्चित है। इसलिए जब तक जीवन है तब तक भला करते रहिए व परहित की भावना को जीवन का ध्येय बनाकर चलते रहें।

दीपक अज्ञानता और अंधकार के भय को नष्ट कर ज्ञान और प्रकाश पुंज से सर्वत्र दीप्ति उत्पन्न कर सम्पूर्णता के आनंद को प्रसारित करने का अमोघ अस्त्र है। दीप हमारे बिखरे जीवन को समेटने की युक्ति है तथा अदम्य साहस एवं कर्मठता की जिजीविषा का दर्शन है। दीप उन मूल्यों के सम्यक निर्वहन करने का श्रेष्ठतम मानक है जिनमें जीवन का अर्थ ही ‘परोपकार’ में जीवन की आहुति समर्पित करने से है।

दीप, नैराश्य के समय आशा की किरण बनता है तो आह्लाद के समय उत्साह के साथ सर्वोत्कृष्ट करने का मार्गदर्शन प्रदान करता है।

दीप के निर्माण एवं उसके गुणों के प्राकट्य तक में कई सारी संरचनाओं का संयोजन होता है जो जीवन को सुगठित करने में अपना योगदान देते हैं। वास्तव में दीप हमारे मनोमस्तिष्क के सम्पूर्ण तंत्र का एकाकार रुप है जिसमें हम अपने जीवन का निहितार्थ ढूंढ़ सकते हैं।

हमारी आद्य भारतीय सनातन वैदिक परम्परा की दैनन्दिनी में ही दीप प्रज्वलन- ॐ असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मामृतं गमय॥

अर्थात् हे! परब्रह्म परमात्मा हमको असत्य से सत्य की ओर ले चलो। अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो और मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो। के मंत्र के साथ किया जाता है।

दीप की लौ के एकाकार दर्शन एवं उसमें ध्यानकेन्द्रित करने पर जो आत्मिक शांति का भाव प्राप्त होता है उसकी उपस्थिति में जीवन आध्यात्मिक उन्नति को प्राप्त करता है। इस आध्यात्मिक भाव के साथ ही जीवन में बाह्य थपेड़ों/कारकों द्वारा निर्मित कलुषित एवं ध्वंसात्मक वृत्तियों का निर्मूलन होता है। दीप की लौ हमारे अन्तर्ज्ञान एवं स्थूल से लेकर सूक्ष्म विषयों के सद्-मार्ग तथा नवोन्मेष का पथप्रदर्शित करती है।

हम दीपक की ज्योति को परब्रह्म का स्वरूप मानकर उसकी अर्चना करते हैं और अपने कुशलक्षेम का मनोरथ मांगते हैं, किन्तु यहां भी हम सभी के अन्दर सम्पूर्ण जगत के कल्याण की भावना निहित होती है।

दीपक जीवन में नीरसता से सरसता, अंधकार से प्रकाश, दु:ख से सुख, सुख से शांति, चिन्ता से मुक्ति और स्वयं को आहुत करते हुए सभी के लिए अपना जीवन दान कर प्रसन्नता का पथ प्रशस्त करने की दिशा दिखलाता है। दीप प्रज्वलन का हमारे धर्मग्रंथों में आध्यात्मिक एवं पौराणिक उल्लेख रहा है जो विभिन्न युगों के ईश्वरीय अवतारों के कालक्रम से लेकर वर्तमान समय तक उसी निष्ठा और भक्ति के साथ चलता आ रहा है। यह क्रम जीवन के सम्पूर्ण वाङमय के सम-विषम परिस्थितियों में समन्वय तथा प्रकृति के अनुसार संचालन का बोध स्पष्ट करता है।

क्या हमने कभी यह प्रयोग किया है कि- हम जब कभी भी गहरी  निराशा के भंवर जाल में डूबे होते हैं,तथा उस समय हमारे मनोभावों में अशांति एवं अवसाद का स्तर लगभग अपने चरम पर होता है याकि हमारी मनोदशाओं को दिग्भ्रमित करता है। ठीक ऐसी ही परिस्थितियों याकि सामान्य परिस्थितियों में हम जब भी जीवन में निरुत्साहित महसूस करते हैं।

उसी समय– पूजा का दीपक जलाकर उसके समक्ष बैठने पर हमारे जीवन में निराशा का आवरण धीरे-धीरे छंटने लगता है तथा हम स्वयं में एक नई शक्ति का संचार अनुभव करते हैं। आखिर! यह चमत्कार कैसे हो जाता है? इस पर विचार करें तो यह स्पष्ट होता है कि कोई न कोई केन्द्र हमारी चेतना एवं ‘दीप’ के मध्य अवश्य है जो हमें क्षण भर में ही ऊर्जावान बना देता है। यह तो उसी दीप की शक्ति-सौन्दर्य का एक सामान्य सा उदाहरण है। दीप में निहित शक्तियां एवं भावों का क्षेत्र व्यापक है जिसे अन्तर्दीप एवं बाह्य-दीप के मध्य के केन्द्र का मिलान कर प्राप्त किया जा सकता है।

हमारे जीवन का कोई भी ऐसा शुभकार्य नहीं होता है जो दीपप्रज्वलन के साथ शुरु न होता हो :― दीपों की इसी पवित्रता, महत्ता, श्रेष्ठता के लिए हमारी संस्कृति में दीपोत्सव का अपना अलग एक पावन पर्व ‘दीपावली’ मनाया जाता है। यह पर्व राष्ट्र की संस्कृति के आधारस्तंभ जगन्नियंता भगवान श्रीराम प्रभु के चौदह वर्ष के वनवास की समाप्ति पर उनके अयोध्या आगमन की प्रसन्नता में अयोध्यावासियों द्वारा किए गए दीप प्रज्ज्वलन के साथ ही यहां की जीवन की पध्दति का अनिवार्य अंग बन गया।

वहीं वैज्ञानिकीय दृष्टि से अवलोकन करें तो कार्तिक मास की अमावस्या यानि ‘घोर अंधकार’ की तिथि को इस पर्व को मनाने की रीति ‘अंधकार’ की पराजय एवं विपरीत परिस्थितियों में दृढ़ता के साथ प्रकाश रुपी लक्ष्य को प्राप्त करने का आधार है। यह पर्व इस बात का भी द्योतक है कि सद्प्रयासों से असत्य को पराजित कर सत्य की स्थापना की जा सकती है।

इस प्रकार दीप प्रज्वलन के साथ हमारी उत्सवधर्मिता एवं मानवीय मूल्यों के साथ जीवन का पथानुगमन करने की अन्त:प्रेरणा व श्रेष्ठ मूल्यों की स्थापना का संकल्प है।

यदि इसे इस तर्क के साथ रखा जाए कि पूर्व के समय में केवल और केवल प्रकाश के लिए दीपक जलाया जाता था, तो यह तर्क असंगत माना जाएगा क्योंकि वर्तमान में प्रकाश के विभिन्न यंत्रों के आ जाने के बाद भी दीप-प्रज्वलन की अपनी अनूठी पुण्य-पवित्र महत्ता है।

चाहे कितनी भी विपरीत परिस्थिति क्यों न हो, किन्तु हमारे – जीवन से मरणकाल एवं मरणोपरांत  तक दीपक की ज्योति तथा उसकी अनुभूति हमारे साथ सर्वदा रहती है।

ध्यान करिए कि चाहे जन्म काल में दीप जलाना हो या जीवन चक्र में पूजा-पाठ सहित हमारे षोडश संस्कारों में दीप प्रज्वलन का अपना अलग महत्व क्यों न हो। वहीं विषम परिस्थितियों में दीप हमारे जीवन में सचेतक एवं सहायक का सम्बंध निभाता है।

हमारे यहां किसी भी प्राणी की मृत्यु जैसी दु:ख एवं शोक की असहनीय परिस्थिति में भी अग्निसंस्कार के समय दीपदान से लेकर वार्षिक श्राद्ध/तर्पण तक में प्रतिदिन सांध्यकाल में जीव के मोक्ष प्राप्ति के लिए दीप प्रज्वलित होना अपने आप में अनेकानेक प्रश्नों का उत्तर है। दीप इसका अनूठा उदाहरण प्रस्तुत करता है कि परिस्थिति चाहे कैसी भी हो किन्तु सदाबहार तरीके से दीप अपनी उपस्थिति के माध्यम से जीवन का बोध स्पष्ट करता है। इस प्रकार यह सहज ही समझ लेना चाहिए कि दीप का जीवन में कितना अभिन्न योगदान है।

जीवन में प्रत्येक पर्व, कार्य, अनुष्ठान दीप के बिना अधूरा है। दीपक उत्साह- उल्लास, शांति, सुख, समन्वय, आरोग्यता, स्नेह और आध्यात्मिक एवं आत्मिक शांति प्रदान तो करता ही इसके साथ ही   सरसता, पवित्रता-पुण्यता के अक्षय कोष से जीवन को आप्लावित करता है।

जब सम्पूर्ण विश्व त्राहिमाम कर रहा है विभिन्न प्रकार के नित -नए संकट अपने विभिन्न स्वरुपों में आ रहें जिसकी निष्पत्ति मृत्यु, हताशा, अवसाद से घिरे हुए आवरण में हो रही है। उस समय सम्पूर्ण विश्व को भारत की सांस्कृतिक विरासत के विभिन्न तत्व एक नई राह दिखला रहे हैं कि चाहे परिस्थितियां कितनी भी दुस्कर क्यों न हों हम आत्मतेज एवं अपने अदम्य साहस तथा धीरता के माध्यम से विजयी होंगे। दीप उसी अनूठी संस्कृति की अलौकिकता का प्रतीक है। जीवन के अंधकार को नष्ट करने एवं उत्साह के संचार के लिए राष्ट्र के नाम दीप प्रज्वलन अवश्य करें।

(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)

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