देश का चौथा स्तंभ माना जाने वाला मीडिया कई बार बहुत लाचार और बेबस नजर आता है। टीवी की स्क्रीन पर यहां से वहां भागते, एनर्जेटिक रिपोटर एक ही कहानी को अलग- अलग 6-7 तरीकों से बता बताकर थक जाते होंगे, उस खबर की बोझिलता के नीचे दब जाते होंगे, लेकिन उनकी मजबूरी है कि उन्हें बार- बार वही सब कहना और दिखाना पड़ता है जो घटना के पहले या दूसरे दिन सामने आ चुका है।
पिछले दो हफ्तों से न्यूज की स्क्रीन पर सिर्फ श्रद्धा वालकर और उसकी हत्या करने वाले आरोपी आफताब अमीन पूनावाला की ही तस्वीरें तैरती नजर आ रही हैं। मीडिया कभी श्रद्धा की लाश के टुकड़ों की बात करता है तो कभी आफताब के शातिराना होने की। कभी वो पॉलीग्राफ टेस्ट की बात करता है तो कभी नार्को टेस्ट। कभी उसकी इन्वेस्टिगेशन में उस फ्रीज का जिक्र आ जाता है, जिसमें श्रद्धा की लाश रखी गई थी तो कभी मोबाइल और हत्या में इस्तेमाल किए गए हथियार के बारे में बताया जाता है।
आलम यह है कि ध्यान से टीवी नहीं देखने वाले को भी पूरा इन्वेस्टिगेशन याद हो जाता है। यह सब करते हुए दोपहर हो जाती है, और फिर शुरू हो जाता है सास, बहू और साजिश का आयोजन। बीच में कभी कुछ राजनीति और चुनावी बयानबाजी आ जाती हैं।
यह सब देखकर ऐसा लगता है कि इन दिनों खबरों के मामले में मीडिया कितना गरीब हो चुका है। उसके पास दिखाने के लिए कोई खबर नहीं है, उसके पास अपना खुद का कोई इन्वेस्टिगेशन नहीं है। मीडिया की इस लाचारी पर कई बार तरस आता है। श्रद्धा के मर्डर की गुत्थी अभी सुलझी नहीं थी कि अब एक और नृशंस हत्या सामने आ गई है, जिसमें पत्नी और बेटे ने मिलकर अपने पति की हत्या कर दी। इस हत्या में मृतक पति को काटकर 22 टुकड़े कर दिए। बस यह खबर आते ही मीडिया को अब समय काटने के लिए कुछ और रॉ-मटेरियल या असला मिल गया है। जिसको घोल घोलकर वो ऐसा बना देगा जिसके बारे में जांच करने वाली पुलिस टीम को भी नहीं पता होगा।
मीडिया अब आने वाले कुछ दिनों तक हत्याएं की ये खबरें दिखाता रहेगा। इन्हीं खबरों में उसका दिन गुजर जाएगा और शाम को वो किसी पैनल को एक बुलाकर बे-नतीजा बहस करवा लेगा। बस, हो गया मीडिया का काम।
देश में आम लोगों के मुद्दों, गरीब और असहाय लोगों की योजनाओं, बढती महंगाई और बेरोजगारी को लेकर मीडिया को अब कोई खास सरोकार नहीं रहा। वो सिर्फ वही दिखाता है जिससे उसकी टीआरपी बढ़े और सुर्खियां मिले। जहां से टीआरपी नहीं मिलती वो खबर उसके किसी काम की नहीं। मीडिया का कुछ काम अपराध कथाओं से चल जाता है और कुछ काम राजनीतिक और फूहड़ बयानबाजियों से।
नोट : आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी अनुभव हैं, वेबदुनिया का आलेख में व्यक्त विचारों से सरोकार नहीं है।