टैरिफ को लेकर मची खलबली के बीच अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने एक और महत्वपूर्ण निर्णय लिया है। उन्होंने एच-1बी वीजा पर वार्षिक 1,00,000 डॉलर की नई फीस लगाने की घोषणा की है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने हाल ही में जिस एग्जिक्यूटिव ऑर्डर पर साइन किया है, उससे एच-1बी वीजा व्यवस्था में बड़े बदलाव आए हैं। अब से कोई भी व्यक्ति अमेरिका जाने के लिए एच-1बी वीजा के लिए आवेदन करेगा, तो उसके नियोक्ता को प्रोसेसिंग शुल्क के रूप में 1 लाख डॉलर (करीब 83 लाख) का भुगतान करना होगा।
व्हाइट हाउस का कहना है कि यह कदम अमेरिकी नौकरियों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए उठाया गया है और केवल अत्यंत कुशल विदेशी कामगार ही अमेरिका आ पाएंगे। विशेषज्ञों के अनुसार, इस फैसले का सबसे बड़ा असर भारतीयों पर पड़ेगा, क्योंकि एच-1बी वीजा धारकों में भारत की हिस्सेदारी 70 प्रतिषत से अधिक है।
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने एच-1बी वीजा व्यवस्था में एक ऐतिहासिक बदलाव की मुहर लगा दी है। अब 21 सितंबर 2025 से, कोई भी विदेशी कार्यकर्ता अमेरिका की भूमि पर कदम रख सकेगा तभी, जब उसके स्पॉन्सरिंग नियोक्ता ने भारी शुल्क एक लाख डॉलर अदा किया हो। यह नियम मुख्यतः नए आवेदकों पर लागू होगा, परंतु जो पहले से वीजा धारक हैं और विदेश जाकर पुनः स्टैंपिंग करवाएंगे, उन्हें भी इसका सामना करना पड़ेगा।
अब तक यह शुल्क मामूली-लगभग 1,500 डॉलर-रहता था, किंतु अब इसकी वृद्धि अभूतपूर्व है। यदि हर पुनः प्रवेश पर यह शुल्क लागू हुआ, तो तीन वर्षों में इसकी लागत अनेक लाखों डॉलर तक पहुंच सकती है। इस निर्णय की गूंज भारतीय प्रतिभाओं के लिए सबसे अधिक सुनाई देगी, क्योंकि एच-1बी वीजा धारकों में भारत की हिस्सेदारी सर्वाधिक है।
हाल के वर्षों में एच-1बी वीजा का लाभ सबसे अधिक भारतीयों को मिला-करीब 71-73 प्रतिषत वीजा भारत को मिले, जबकि चीन का हिस्सा मात्र 11-12 प्रतिषत तक सीमित रहा। केवल 2024 में ही भारतवासियों को 2 लाख से अधिक एच-1बी वीजा प्रदान किए गए। अब विशेषज्ञों का अनुमान है कि यदि केवल 60,000 भारतीयों पर इसका तत्काल असर पड़े, तो सालाना वित्तीय बोझ 6 बिलियन डॉलर यानी लगभग 53,000 करोड़ तक पहुंच जाएगा।
मध्यम स्तर के इंजीनियर, जो अमेरिका में सालाना 1.2 लाख डॉलर अर्जित करते हैं, उनके लिए यह भारी शुल्क उनकी आय का लगभग 80 प्रतिषत निगल जाएगा। छात्र, शोधकर्ता और युवा प्रतिभाएं-जो अपने सपनों और ज्ञान के साथ अमेरिका की ओर बढ़ रहे थे-उनके लिए यह रास्ता लगभग बंद सा हो जाएगा। इस फैसले की छाया केवल आर्थिक नहीं, बल्कि वैश्विक प्रतिभा और भविष्य के करियर पर भी गहरी और स्थायी छाप छोड़ती है।
ट्रंप का कहना है कि यह कदम वीजा प्रणाली के दुरुपयोग को रोकने और अमेरिकी कंपनियों को अपने ही स्नातकों को प्रशिक्षित करने के लिए प्रेरित करने की दिशा में उठाया गया है। व्हाइट हाउस के अधिकारी इसे घरेलू नौकरियों की सुरक्षा की ओर एक साहसिक और निर्णायक प्रयास के रूप में देख रहे हैं।
अब बड़ी कंपनियां विदेशी कर्मचारियों को सस्ते दामों पर काम पर नहीं रख पाएंगी, क्योंकि उन्हें पहले सरकार को भारी शुल्क एक लाख डॉलर अदा करना होगा, और फिर कर्मचारी को उसका वेतन देना होगा। इस नए आर्थिक बोझ ने विदेशी कर्मचारियों के रास्ते को कठिन और चुनौतीपूर्ण बना दिया है।
नियमों के अनुसार, एच-1बी वीजा अब अधिकतम छह वर्षों के लिए ही मान्य रहेगा, चाहे वह नया आवेदन हो या नवीनीकरण। आदेश में साफ कहा गया है कि इस वीजा का पहले दुरुपयोग हो रहा था, जिससे अमेरिकी कामगारों और अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचता था। अब यह व्यवस्था कड़े और न्यायसंगत रूप में लागू होगी, ताकि केवल योग्य, सक्षम और वास्तविक प्रतिभा ही अमेरिका की भूमि पर कदम रख सके।
टैरिफ को लेकर पहले से ही बना तनाव भारत-अमेरिका के राजनीतिक रिश्तों पर भी अपनी गहरी छाया डाल सकता है। भारत सरकार इस मसले को कूटनीतिक मंच पर उठाएगी, क्योंकि लाखों भारतीय इस फैसले से सीधे प्रभावित होंगे।
ट्रंप अपने मतदाताओं को यह संदेश देना चाहते हैं कि वह अमेरिकी नौकरियों की रक्षा के लिए कटिबद्ध हैं, किंतु इसके पीछे छिपा असर भारत के साथ साझेदारी और तकनीकी सहयोग पर नकारात्मक पड़ सकता है। इस निर्णय की गूंज केवल आर्थिक मोर्चे तक सीमित नहीं है, यह द्विपक्षीय संबंधों और वैश्विक तकनीकी संगठनों के भविष्य पर भी अपनी छाप छोड़ती प्रतीत होती है।
अब 85,000 वार्षिक एच-1बी कोटे-65,000 सामान्य आवेदकों और 20,000 उच्च डिग्री धारकों के लिए-पर यह भारी शुल्क लागू होगा। छोटी कंपनियां और नए स्नातक पीछे हट सकते हैं, और नियोक्ता केवल उच्च वेतन वाले विशेषज्ञों को ही स्पॉन्सर करेंगे, जिससे अवसर और भी संकरे, और दुर्लभ हो जाएंगे।
विश्लेषकों का मानना है कि यह कदम अमेरिका की नवाचार शक्ति पर कर लगाने जैसा है, इससे वैश्विक प्रतिभाएं अमेरिका आने से कतराएंगी। परिणामस्वरूप, कंपनियां नौकरियों को विदेश ले जा सकती हैं, जिससे न केवल अमेरिकी अर्थव्यवस्था बल्कि भारतीय पेशेवर भी गहराई से प्रभावित होंगे।
कहा जाता है कि भारत अमेरिका को केवल सामान नहीं, बल्कि अपनी प्रतिभाशाली मानव संसाधन-इंजीनियर, कोडर और छात्र भी 'निर्यात' करता है। अब जब यह शुल्क भारी और असहनीय हो गया है, तो भारतीय प्रतिभाएं अपना रुख यूरोप, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और मिडिल ईस्ट की ओर कर सकती हैं, जहां उनके सपनों और कौशल को खुले आसमान के नीचे उड़ान भरने का अवसर मिलेगा।
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)