नहीं जानती अंतरिक्ष के इस चमकीले चमत्कार से मेरा क्या संबंध है लेकिन जब भी कुछ बहुत अच्छा लिखने का मन होता है चांद मेरी लेखनी की नोंक पर बड़े अधिकार के साथ आ धमकता है। समझ नहीं पाती हूं कि क्यों गुलमोहर, नीम, पीपल,अमराई, गुलाबी रंग, सावन और फाल्गुन जैसे शब्द मेरे इतने आत्मीय है कि कुछ सोचने से पहले ही कागजी धरा पर कतारबद्ध आ बैठते हैं। क्यों मेरी हर कविता और आलेख में इन शब्दों की पंक्तियां खुद-ब-खुद सज उठती है?
इनमें भी 'चांद' मेरा सबसे लाड़ला है ना सिर्फ शब्द से बल्कि समूचे स्वरूप में वह मुझे सबसे अधिक मोहता है। ऐसा भी नहीं है कि गुलजार को पढ़ने के बाद यह चस्का लगा हो। जब मैं कक्षा 7 में थी तब कहां गुलजार से परिचित थी? फिर क्यों मेरी पहली कविता चांद पर जन्मीं? यह रिश्ता जन्मों पुराना लगता है।
चांद, चंद्रमा, आफताब, उसके हर नाम की एक अनोखी छटा है चांद की ही तरह। चांद ने भी बिना कुछ कहे अब तक कितना कुछ कहा है मुझसे। जब पहली बार उम्र का कच्चा गुलाबी अहसास जागा था तब इसी पर तो नजर ठिठकी थी। और मन के महकते कोने से गुनगुनाहट आई थी- 'खोया-खोया चांद, खुला आसमान, आंखों में सारी रात जाएगी...!
आज सोच कर भी हंसी आती है मगर बात फिर भी हंसी में नहीं उड़ा पाती कि कैसे इतने बंधन और अनुशासन में भी चांद में किसी की सूरत निहार लिया करती थी।
बचपन में सुनी कहानी के बाद तो अक्सर अकेले में छत पर जाकर उस 'बुढि़या' को पहचानने की कोशिश करती थी जो कथानुसार चांद पर बैठकर सूत काता करती है। नानी सुनाती थी कि यह जो बादल है असल में उसी बुढि़या के घर से निकले रूई के गोले हैं। जब भी मेरा मन चांद को खूब ध्यान से देखने का होता, तब चांद बादलों की मखमली रजाई में छुप जाता। छुपे ही रहता।
मैं सोचती, वह सो नहीं रहा, बस नींद की खुमारी में हैं, लेकिन एक झलक दिखाने में इतने नखरे करता हैं कि टकटकी लगाए आसमान निहारते रहो, पर नजर नहीं आता। बेसब्र होकर जैसे ही अंदर जाने को उद्यत होती वह तुरन्त ही चमकीली किनारियों से सजी बादलों की मोटी रजाई हटाकर किसी गोरे-गोरे, नटखट और गुदगुदे बच्चे की तरह उठ बैठता और खिलखिलाने लगता।
बदली में ही चांद सबसे ज्यादा खूबसूरत और दिलकश लगता है। हल्का-हल्का, झीना-झीना परदा सरकाकर आकाश में थिरकता और दमकता चांंद मुझे दुनिया का सबसे हसीन मित्र लगता है। आप इसे दृश्य कह लीजिए मेरे लिए तो एक पूरा जीवन और उसका समस्त सौन्दर्य समेटे 'दर्शन' है वह उसे कैसे 'दृश्य' कह दूं ?
उन दिनों मैं चांद पर लिखी हर ग़ज़ल और फिल्मी गीत को एक डायरी में सजाया करती थी। पत्र-पत्रिकाओं से काटकर उन पर चांद की खूबसूरत तस्वीरें भी चिपकाया करती थी।
आज वह डायरी पता नहीं कहां खो गई , डायरी के गीत खो गए, जिन स्मृतियों को सहेजने के लिए चांद-डायरी सृजित की थी वे स्मृतियां भी लगभग विलुप्त और बेमानी हो चली हैं लेकिन मेरा चांद! मेरा चांद ना खोया है, ना विलुप्त हुआ है और ना बेमानी। चांद जब तक आसमान में है इस धरा पर चांद को चाहने वाले भी हमेशा रहेंगे मेरी तरह। इस वक्त जो 'चांद-गीत' होंठों पर है- 'बदली से निकला है चांद...