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जब आत्मा ही सो गई हो तो चीत्कार सुने कौन

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गरिमा संजय दुबे

कल ही फेसबुक पर दो वर्ष पहले आदित्य जोशी की स्वस्थ होकर घर लौटने वाले दिन ही एक गलत इंजेक्शन से हुई मौत की जानकारी पढ़ रही थी। किसी मित्र ने लिखा - "ओशो ने कहा था कि आत्मा-परमात्मा, धर्म-अध्यात्म व आत्मा के जागरण की बात भारत में सबसे अधिक होती है, लेकिन पूरा विश्व घूम लेने पर पाया कि जितनी मृत आत्मा भारतवासियों की है उतनी किसी की नहीं"। 
कितना सटीक कथन, प्रदेश के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल की ऐसी घोर लापरवाही जिसने दो परिवारों से उनके चिराग छीन लिए और गैरजिम्मेदाराना रवैये की हद देखिए, कोई भी उसकी जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं। बड़ी मछलियां किसी छोटी मछली को जिम्मेदार ठहराकर अपने हाथ झटक लेगी। रह जाएगा अपने दुःख के साथ पीड़ित परिवार, जो रोजी-रोटी की जुगाड़ में इस कदर हैरान है कि अपने मृत बच्चे के लिए न्याय उसकी प्राथमिकता नहीं हो सकती। और न्याय की उम्मीद लेकर जाए किसके पास ?
 
पिछले छः महीने में लापरवाही से होने वाली मौतों का यह आंकड़ा भयावह है। डॉक्टर्स और नर्स व अन्य लोगों के लिए यह एक संख्या भर होगी, लेकिन उन परिवारों का क्या जिन्होंने अपना इंसान खोया। इन लोगों की आत्मा क्या मर चुकी है? मुझे समझ नहीं आता कि इन्हें नींद कैसे आती होगी ? लाशों के ढेर,  सिसकियों की गूंज और बदद्दुआओं से भरी चीत्कार के बीच यदि यह सामान्य जीवन जी पाते है तो निश्चित रूप से वे मनुष्य कहलाने लायक नहीं हैं। 
 
सरकारी हो चाहे निजी, चिकित्सा जैसे नोबेल प्रोफेशन को, जहां मनुष्य आपको ईश्वर के बाद ईश्वर मानता है वहां चिकित्सकों से लेकर वार्डबॉय, तक के लालच ने  आम आदमी के मन कुछ इस तरह की परिभाषा गढ़ी है कि भगवान पुलिस, वकील और डॉक्टर के चक्कर में कभी न फंसाए। पर यह तो कोई हल नहीं कि हम भगवान से इन लोगों से पाला न पड़ने की प्रार्थना करें! 
 
एक माता पिता बड़ी आस लिए आपके पास अपनों की तकलीफ का इलाज करवाने आते है वहीँ लालची मनुष्य हर स्तर पर उसकी मजबूरी का फायदा उठाते है । निजी अस्पताल, महंगी दवाई, महंगे कमरे ऊंची फीस ले इंसान की कमर तोड़ देते हैं। सरकारी अस्पताल अपनी लापरवाही से इंसान की जान को खिलौना समझ खेलते हैं, इंसान होकर इंसानी जज्बातों से जिनका कोई लेना देना नहीं, वे सेवक नहीं है दलाल है, जो हर स्तर पर कमीशन खाने और पैसा उगाने में लगे हैं। 
 
सेवा का भाव पैसे की चमक के पीछे खो गया है, डिग्री लेते समय ली गई शपथ महज मजाक बन कर रह गई है। पिछले कई वर्षों से इस तरह के केस भी सामने आ रहे हैं कि मर जाने के बाद भी दो दिन तक मरीज को वेंटिलेटर पर रख फीस वसूली जाती है। अरबों की राशि खर्च हो जाने पर, कायाकल्प के महाभोज के बाद भी महाराजा यशवंत राव अस्पताल का यह हाल कहीं न कहीं मानवीय मूल्यों के घातक अवमूल्यन का प्रत्यक्ष उदाहरण है। 
 
मध्यप्रदेश के लापरवाही के आंकड़ें और मरीजों को लूटने की प्रवृत्ति अब देश भर में इसकी बदनामी का सबब बनती जा रही है। पर कहें किससे? जब पुरे कुंए में भांग पड़ी हो तो निर्मल जल कहां से पाएं? जब आत्मा ही मर चुकी हो, बिक चुकी हो तो चीत्कार सुने कौन ?

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