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कुत्ता बनने की मूक चाह

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मनोज लिमये

आज के इस उथल-पुथल वाले आर्थिक-सामाजिक दौर में यदि किसी को देखकर मुझे सर्वाधिक ईर्ष्या या और चीप भाषा में कहूं तो जलन होती है, तो वो सिर्फ और सिर्फ कुत्ता है। देश में आम व्यक्ति सोने की छलांग लगाती कीमतों, लुढ़कते हुए रुपए और पेट्रोल-डीजल के आसमानी भावों से हलकान है किंतु कुत्ता आज भी अपनी सनातन आन-बान और शान के साथ विचरण कर रहा है। कुत्ते की जीवन शैली पर इस अर्थव्यवस्था का कोई असर नहीं है।

कुत्ता (किसी भी कुल का हो) ना तो सोने के आभूषण पहनता है, न उसे कोई वस्तु खरीदना है। गोया कि पेट्रोल डीजल से उसका कोई नाता नहीं और प्याज उसे  भाता नहीं। सुबह सैर के दौरान जब किसी भी व्यक्ति को कुत्ते के साथ घूमते देखता हूं तो लगता है की कुत्ता व्यक्ति को टहलाने लाया है।
 
इन विषम परिस्थितियों में भी कुत्ते ने अपनी पुरातन ऊंचाइयों का परचम इस प्रकार से फहरा रखा है, कि उसके सम्मान में शीश झुकाने का मन करता है। मोहल्ले, कॉलोनी में स्वछंद घूमती कन्याएं (आंटियां भी स्वयं को शुमार मानें) चैन से इसलिए घूम पाती थीं, क्योंकि उनके साथ चेन में बंधा कुत्ता होता था। परंतु आज  मायने तीव्र गति से  बदल रहे हैं। कुत्ता विहीन लोग सड़क पर सीना ताने घूम रहे हैं क्योंकि उन्हें ईल्म है, कि "खुद के खाने के हैं लाल, कुत्ते को कैसे पाले"?
 
आज के इस गिरावटी आर्थिक काल में अनेकों युवा बेरोजगार घूम रहे हैं, जबकि कुत्ते उनकी शैक्षणिक योग्यता को धता बता कर डीएसपी की रैंक तक जा पहुंचे हैं। जहां तक अपराधी पकड़ने का यक्ष प्रश्न है, तो पूलिस ही कौन पकड़ लेती है जो ये चिंता करें। आज आसमान छू रही महंगाई में मध्यमवर्गीय व्यक्ति निम्न वर्ग की जीवन शैली में जीवन बसर कर रहा है और निम्न वर्ग के जीवन-यापन पर टिप्पणी करना भी कठिन है।ऐसी तमाम विकट परिस्थितियों के बावजूद समाज में निम्नवर्गीय कुत्ते आराम से बसर कर रहे हैं और मध्यमवर्गीय परिवारों में पल रहे कुत्ते उस परिवार के सदस्यों से अधिक स्वस्थ प्रतीत हो रहे हैं।
 
कार खरीदना और बिना खरीदे भी उसमें सवारी कर लेना आज भी भारतीय समाज में एक बड़े हिस्से की आबादी का ख्वाब है। व्यक्ति अपनी जमा-पूंजी बटोर कर कार खरीदने तो पहुंच सकता है परंतु पेट्रोल-डीजल उसके बढ़ते कदमों को वापिस क्रीज में धकेल देते हैं। कुत्तों को ऐसी कोई परेशानी नहीं है जिन गाड़ियों को मैं विज्ञापनों या चित्रों के माध्यम से पहचानता हूं, उसके काले शीशों में से ये कुत्ते अनेकों दफा मुझे चिढ़ा कर निकल चुके हैं।
 
आज के इस आपाधापी के दौर में यह गिरावट सिर्फ अर्थव्यवस्था की नहीं है। गौरतलब बात यह है व्यक्ति के मानवीय मूल्य भी रुपए के साथ कदमताल कर नीचे की ओर आ रहे हैं। ऐसी स्थिति में भी जब मानव अपने तमाम नैतिक मूल्यों के साथ समझौता करने को विवश है, वहीं कुत्तों ने अपने वफादारी के मूल गुण को आज भी सुरक्षित रखा हुआ है। फूटपाथ पर सोने वाले इंसानों को कुत्ता समझे जाने से भले कुत्ते आहत हो, लेकिन हो सकता है अगले जनम में कुत्ता मानव ना बनना चाहता हो। परंतु हां मानव जरूर कुत्ता बनने की मूक चाह रखता हो।


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