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रक्षाबंधन की यादें : आज कल मेंं ढल गया...

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संजय वर्मा "दृष्टि "
रक्षा बंधन के दिन आते ही बड़ी बहन की बाते याद आती है। बचपन मे गर्मियों की छुट्टियों मे नाना-नानी के यहां जाते ही थे, जो आजादी हमें नाना-नानी के यहां पर मिलती उसकी बात ही कुछ और रहती थी। बड़ी होने से उनका हम पर रोब रहता था। वो हर बात समझाइश की देती, बड़ी होने के नाते हमें हर बात मानना पड़ती थी।
सुबह-सुबह जब हम सोए रहते, तब नानाजी बाजार से इमरती लाते और फूलों के गमलों की टहनियों पर इमरतियों को टांग देते थे। हमें उठाते और कहते की देखो गमले में इमरती लगी है। हमें उस समय इतनी भी समझ नहीं थी, कि भला इमरती भी लगती है क्या ? दीदी, नानाजी की बात को समझ जाती और चुप रहती। हम बन जाते एक नंबर के बेवकूफ।

दीदी मुझे "बेटी-बेटा" फिल्म का गीत गाकर सुनाती- "आज कल मे ढल गया दिन हुआ तमाम तू भी सोजा....." और मैं दीदी का गाना सुनकर जाने क्यों रोने लग जाता था। जबकि उस गाने की मुझमें समझ भी नहीं थी। दीदी मेरी कमजोरी को समझ गई, जब भी मैं मस्ती करता दीदी मुझे डांटने के बजाए गाना सुना देती और मैं रोने लग जाता। नाना-नानी अब नहीं रहे। समय बीतता गया और हम भी बड़े हो गए, मगर यादें बड़ी नहीं हो पाई।
 
दीदी की शादी हो जाने से वो अब हमारे साथ नहीं है, किंतु बचपन की याद तो याद आती ही है। रक्षा बंधन पर जब दीदी राखी मेरे लिए भेजती या खुद आती तो मुझे रुलाने वाला गाने की पंक्तिया गा कर सुनाती या लिख कर अवश्य भेजती और मैं बचपन की दुनिया मे वापस चला जाता। और जब कभी रेडियो या टी.वी. पर गाना बजता/दिखता है, तो आज भी मेरी आंखों मे बचपन की यादों के आंसू डबडबाने लग जाते हैं।

खुशी के त्यौहार पर रंग बिरंगी राखी अपने हाथो मे बंधवाकर, माथे पर तिलक लगवाकर, मिठाई एक दुसरे को खिलाकर बहन की सहायता करने का संकल्प लेते है तो लगने लगता है कि पावन त्यौहार रक्षा बंधन और भी निखर गया है और मन बचपन की यादों को भी फिर से संजोने लग गया है।

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