नाम के नाम और सरनेम के दाम! देश में नाम-सरनेम की महिमा महान! गिनाने चलो तो वक्त कम पड़ता है! वैसे नाम में क्या रखा है, एक दिन गुम हो जाएगा। कहते हैं, 'नाम गुम जाएगा चेहरा ये बदल जाएगा..' लेकिन मूर्ख नकारा और नाकाम होते हैं, वे नाम से काम चलाते हैं। खुद का नाम काम नहीं करता तो दूसरों के नाम से काम चलाते हैं। नकारा लोगों का काम चलता रहे, नाम में क्या रखा है?
नाकाम में भी नाम छुपा है, बस बीच में 'का' आ गया है। नाम का उलटा करो तो मना होता है और यह मना ऊल-जलूल नाम रखने के लिए ही किया गया होगा। फिर भी लोग मना नहीं होते, मन है की नहीं मानता वो मना वाले उलटे नाम ही पसन्द करता है। यदि किसी ने सीधा-सहमति वाला नाम रखा यानी न-मना वाला नाम अपनाया तो भी उस नाम को बिगाड़ कर ही पुकारेंगे। नाम का सीधे उपयोग एक तरह से अंदर की भावना को व्यक्त नहीं कर पाता तो हम अपनी सनातनी परम्परा अनुसार नाम के साथ कुछ प्रत्यय-उपसर्ग जरूर लगाते हैं।
नाम बिगाड़ने की हमारी प्राचीन आदत है, प्यार से भी नाम को तनिक बदल कर बोला जाता है, कहते हैं इससे प्यार फैलता है। मां तो कभी अपने बच्चे का एक नाम नहीं रख पाती, दिनभर में दस नाम से पुकारेगी। कभी लल्ला तो कभी राजा, कन्हैया, कृष्ण, कृष्णा.. मां का मन है कि भरता ही नहीं, लल्ला को लल्ली, लालू, लोलु, सम्बोधन बनाती रहेगी और अब तो नए युग में 'अल्ले अल्ले मेरा शोना' यह चल निकला है।
फिर भी नाम तो नाम है और उसका अपना असर है। चाहे नाम से सूरत और सीरत न बदल पाए पर मना वाले नाम को रखने का औचित्य भी समझ से परे होता है। आजकल अज्ञानता में चूहे-बिल्ली, कुत्ते-पपी, कार्टून आदि-आदि पर बच्चों के नाम रख दिए जाते हैं। वो ऐसे होता है कि संचार साधनों, टीवी-मीडिया से नामों की लम्बी फेहरिस्त घरों में घुस गई है।
इस घुसपैठ से नीचे अंतिम पंक्ति और मध्य पंक्ति के घरों में ये नाम घुस गए हैं क्योंकि इन्हें आधुनिक बनने का नया-नया शौक चढ़ा है पर आधुनिकता से रूबरू नहीं होने से वे धोखे में ऐसे जीव-जन्तुओं के नाम भी बच्चों के नामांकरण में धारण करा लिए हैं। यह एक तरह से उनकी अज्ञानता का उदाहरण है, जो इस वजह से उपजी है कि वे हाई-सोसाइटी के भाग नहीं है बस देखकर नकल कर रहें, इस दूरी की वजह से नामों की गलतफहमी उत्पन्न हो जाती है और यही दूरी हाई सोसाइटी में भी मौजूद है। नामों की त्रुटि हाई सोसाइटी में भी कार्य करती है, वे भी गफलत करते हैं। असल में उनकी अपनी संस्कृति, इतिहास, रीती-रिवाज, भाषा, परम्परा से दूरी बन गई है इस वजह से वे भी मना वाले उटपटांग नाम के प्रति अंजान होते हैं।
गरीब-मध्यमवर्गीय की नामांकरण गलती एक बार क्षम्य है लेकिन अमीरों, पढ़े-लिखों में यह दोष गले नहीं उतरता। खासकर यह चीज दर्शाती है कि बड़े लोग सिर्फ वॉर्डरोब और ऊपरी चमक-दमक से मेकअप जगमगाए हुए हैं पर अंदर से उनका ज्ञान-अध्ययन नितांत शून्य और अंधकारमय है। फिर भी वे लोग जो आइकॉन हैं और जिन्हें पब्लिक का प्यार-प्रशंसा हासिल है जिसके बूते उनका मुकाम बना है उन्हें अपने इतिहास, देश, समाज का अध्ययन जरूर रखना चाहिए और इसे जवाबदेही समझ जीवन के हर पहलू में उसका निर्वाहन करना चाहिए।