नवरात्रि और कोरोना: बंधन है तो क्या हुआ, मन का उत्सव मना लीजिए
इधर नवरात्रि, मां दुर्गा के पृथ्वी पर आगमन की 9 शुभ तिथियां....
उधर कोरोना असुर का प्रकोप थमता नजर नहीं आ रहा है। हर तरफ आंकड़े बढ़ रहे हैं, हर तरफ मौत का साया फैल रहा है। आशा में भी नैराश्य छाया है, रंग बदरंग से हो रहे हैं और एक एक कर घरों की रोशनियां बुझती जा रही हैं... कोरोना के जो केस पहले दूर दूर से सुनने में आ रहे थे वे अब पास पास आते जा रहे हैं...
पड़ोसी से लेकर करीबी नाते- रिश्तेदार तक...एक शंका, एक आहट जो भीतर ही भीतर डरा रही है.... कहीं ऐसा तो नहीं, कहीं वैसा तो नहीं... कहीं ये तो नहीं, कहीं वो तो नहीं... ऐसे में गुजरते जा रहे हैं हमारे बड़े तीज, त्योहार पर्व अपनी अपनी रौनक को समेटे हुए...
पर सोचिए न, क्या हुआ जो मृत्यु है जीवन भी तो है, क्या हुआ जो बंधन है, मुक्ति भी तो है, क्या हुआ जो घर से निकल नहीं सकते, क्या हुआ जो आवाजों का शोर नहीं है, हंसी, खिलखिलाहटों का दौर नहीं है.... हमारे मन के आंगन के उत्सव तो हमारे हाथ में हैं ना... क्या हुआ जो रंगबिरंगे चौराहे नहीं है, घर का कच्चा-पक्का आंगन तो है न...क्या हुआ जो मंदिरों में भक्तों का सैलाब नहीं है, मन के भीतर तो भक्ति का सैलाब उमड़ रहा है न...
उन दिनों नौ दिन हम इन चमक-दमक और रोशनी में इतने खो जाते थे कि मन को मन से 'कनेक्ट' तो कर ही नहीं पाते थे....खुद से खुद को और खुद को माता रानी से तो जोड़ ही नहीं पाते थे...
यह कोरोना काल हमें यह अवसर दे रहा है कि हम स्वयं को पहचानें और इस सुनहरे समय का सदुपयोग अपने लिए, अपनी भक्ति के लिए ही कर लें....
वह समय जो कभी पर्वों की चहल-पहल में यूं ही निकल जाता था और बाद में एक अफसोस को पसरा देता था कि पूजा तो कर ही नहीं पाए, ध्यान, साधना और आराधना का समय तो निकल ही गया...वह मंत्र, वह श्लोक वह गीत, वह भजन, वह गरबा तो रह ही गया, सब कुछ व्यावसायिक पांडालों की भेंट चढ़ गया... हम अपने आपको तो मां से जोड़ ही नहीं पाए, अपनी बात तो मां को कह ही नहीं पाए....
तब जब दिखावटी और सजावटी तो सब कुछ था पर मन का कुछ न था, कोई एक कोना रिक्तता से भर गया था....
मंहगे परिधानों से सजकर, मंहगे गहनों से लकदक होकर, झूम झूम कर गरबा कर के बाहरी तृप्ति तो मिल गई पर मन की एक प्यास अधूरी रही...पूजा, आराधना, अर्चना और श्रद्धा की....
क्या जरूरी है कि गरबा तब ही किया जाए जब पांडालों में जाना हो, क्या जरूरी है सजधज तब ही की जाए जब दोस्तों से मिलना हो... किसी को दिखाना हो, बेस्ट गरबा मेल-फिमेल का अवॉर्ड हासिल करना हो....
अपने लिए, अपने अपनों के लिए, अपनी माता रानी के लिए उत्सव और शुभ नवरात्रि का पर्व हम फिर कब मनाएंगे, ये कोरोना चला जाएगा तो फिर याद करेंगे कि घरों में कैद थे तो ये भी तो कर सकते थे, वो भी तो कर सकते थे...
कुछ दिनों बाद फिर वही भागमभाग, दौड़ और गहमागहमी शुरू हो जाएगी जिंदगी फिर चल पड़ेगी अपनी रफ्तार से... पर हम कब जुड़ सकेंगे, अपने आप से, अपने अपनों से अपनी भक्ति से, अपनी आस्था और विश्वास से.... मत उदास होइए बार-बार ये सोचकर कि शहर के सजीले आंगन में इन दिनों जहां रंग, रस और रोशनी के छींटे बिखरे होते थे आज वहां सन्नाटे की सांय सांय है...
आइए नवरात्रि के खत्म होने से पहले एक बार सजें, खूब सजें सिर्फ अपने लिए, एक बार थिरकें अपने मन की उमंग के लिए, बस मां दुर्गा के लिए, एक बार जुड़ें अपने मन के उत्सव से, प्रेम के पर्व से....
एक बार जोर से आंखें मींचें और देखें मां का भव्य, दिव्य और जगमगाता स्वरूप अपने मन की चौकी पर... अब जब तकनीक के सहारे गरबा प्रेमी भी जुड़ रहे हैं अपने अपने संगी-साथियों से तो फिर आपका मन क्यों बुझा है, मन के इस मुरझाए से मौसम को खुशियों का जल अर्पित करें, ताजगी से रची-बसी सोच की बयार दें, लहलहाने दें मन के मयूरपंख और कह दीजिए एक बार जोर से खुद से- ये अलग नवरात्रि है ये खास नवरात्रि है लेकिन ये मेरी नवरात्रि है....सिर्फ मेरी नवरात्रि है...
नवरात्रि पर खुश होंगे तभी तो दशहरा, शरद पूनम, करवा चौथ और दिवाली मना सकेंगे.... आइए नवरात्रि के संपन्न होने से पहले एक रास, एक गरबा, एक थिरकन, डांडिये की एक चटकन अपने आपके लिए हो जाए....
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