नीम, मेरी स्मृतियों की हरी-भरी बगिया में एक खास जगह पर खड़ा है। मेरे लुभावने अतीत का 'मीठा' हिस्सा बनकर। नीम चाहे पुराना हो या नया, सूखा हो या हरियाता, कड़वा हो या मीठा, युवा हो या बूढ़ा। नीम हर रूप में मोहता है। जब कभी मैं नीम का पेड़ कहीं देखती हूँ मुस्कुराते हुए, यादों की एक रेशम डोरी अपने आप हाथों से फिसलकर खुलने लगती है।
नन्ही-नन्ही सखियों के संग गोबर से लीपे आँगन में बैठकर संजा के गीत गाते हुए नीम कब अपना-सा लगने लगा, पता ही नहीं चला। कड़वे-कसैले नीम पर रचे मीठे भोले अनगढ़ गीत अनजाने ही आज भी जुबान पर थिरक उठते हैं और मन में टपाटप निंबौरिया गिरने लगती हैं।
'संजा नीमड़ा नी छाया
वसी माता-पिता की मायामाया तोड़नो पड़से कि
सासर जानो पड़से....!
यानी जैसी नीम की ठंडी सुखद छाँव होती है बड़ी प्रिय लगती है, वैसी ही माता-पिता की मोह-माया होती है। इस माया को तोड़ना पड़ता है, तोड़ना पड़ेगा, ससुराल जाना पड़ता है, जाना पड़ेगा।
अतीत के गुलाबी पन्नों पर महकती यादों की एक और निबौरी गिरती है। स्कूल से लौटते हुए नीम की सूखी पत्तियों को झेलने के लिए आतुर रहते हम बच्चे। अपनी रफ कॉपी खोलकर, ऊपर चेहरा किए एक-दूसरे से टकराते-गिरते, लगे रहते तब तक, जब तक कि कोई पत्ती उस कागजी धरा पर उतर नहीं जाती। नीम पत्ती का यह अवतरण कोई साधारण घटना नहीं है। बाल-गोपालों की आकुलता के मध्य जिसकी कॉपी में पत्ती पहले आएगी मान लिया जाता है कि वही प्रावीण्य सूची में प्रथम स्थान पाएगा।
जिसने वह शुभ पत्ती अर्जित की, समझो उसका 'रिजल्ट' ही आ गया हो। गर्व और खुशी से आपूरित उस लाल-गुलाल चेहरे को अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता। मुझे याद है मैं कभी प्रावीण्य सूची में प्रथम नहीं आई किंतु दूसरी साहित्यिक गतिविधियों, रचनात्मक प्रतिस्पर्धा या करियर के किसी मोड़ पर जब अव्वल आई तब भोले बचपन की वह नीम पत्ती बड़ी शिद्दत से याद आई।
दादी-नानी से सुनी न जाने कितनी कहानियों में नीम का पेड़ अनिवार्य किरदार होता है। नीम के आसपास किसी रोचक, संदेश प्रधान कथा का ताना-बाना बुना जाता है।
कभी-कभी लगता है यदि नीम नहीं होती तो कितनी मोहक कहानियाँ अनाभिव्यक्त रह जातीं। बिना आमुख के दादी-नानी की यादों में उलझकर रह जाती। नीम ने दादा-दादियों, नाना-नानियों को कहानी के आरंभ का बहाना दिया है। बाल-मन पर कल्पना का महकता, हरियाता चित्र उकेरने का मौका दिया है। यही हरे-भरे संस्कार आगे चलकर बच्चों में प्रकृति प्रेम के रूप में प्रस्फुटित होते हैं।
सिर्फ अनुभूति के स्तर पर ही नीम अप्रतिम नहीं है, उसकी औषधीय महत्ता छाल, टहनी, दातुन, पत्तियाँ, निबौरिया, फूल इन सबके रूप में प्रकट होती है। तभी तो यादों के किसी आईने की धूल पोंछते हुए निदा फाजली ने लिखा है -
'सुना है अपने गाँव में रहा न अब वह नीम
जिसके आगे माँद थे सारे वेद हकीम।'
नीम की एक अंतर्व्यथा है जो हम कभी सुन नहीं पाते। विडंबना है कि हर रूप में अपना श्रेष्ठतम देने के बावजूद उसे उसके स्वाद से ही पहचाना जाता है।
'करेला और नीम चढ़ा' जैसी कहावत को जन्म देने वाला शायद कभी उसकी छाँव तले सुस्ताया नहीं होगा। कभी उससे गुजरकर आती ठंडी-ठंडी नशीली बयार ने उसे मदहोश नहीं किया होगा।
कौन कहता है कि नीम कड़वी निबौरियाँ बाँटती है? अमृता प्रीतम की नायिका कहती है 'नीम की छाँव तले बैठने वाला पवित्र अनुभूतियों से लबरेज हो तो नीम भी बताशे बाँटने लगती है।' मायूसी के क्षणों में उसका अंतर कराहता है, वह नीम का ही सहारा लेती है : 'मैं तो कड़वी नीम हूँ, किसलिए बताशे बाँटूँ? मेरी छाया में तो परमात्मा ने क्या बैठना है, इंसान भी आकर नहीं बैठता।'
वह नीम ही तो होता है, जो हमारे बचपन से लेकर तरुणाई और तरुणाई से लेकर ढलती शाम तक के हर कच्चे-पक्के, कठोर-कोमल लम्हों को अपने कलेजे में दबाए रखता है। किसी से कुछ नहीं कहता। नीम कहाँ कड़वा है? कड़वे तो हम हैं जो छतनार नीम की उस करूण व्यथा को समझ नहीं पाते, जब वह पूछता है 'मुझे सिर्फ मेरे स्वाद से ही क्यों पहचाना जाता है?'
कहाँ फुरसत है हमें? कभी मुड़कर देखें अपने ही अतीत को! कभी सुनकर देखें अपने ही किसी पेड़ को। चाहे वह नीम हो, पीपल, गुलमोहर, चंदन या अशोक! आम, जामुन या अमरूद! क्या फर्क पड़ता है?
मेरी यादों के गलियारे से नीम की शीतल नशीली हवा के झोंके ही नहीं आते बल्कि साथ आती है तैरती हुई लोकगीतों की वे मधुर स्वर लहरियाँ जिनमें नीम बड़े ठाट से बैठा है -
'तुम नीम के साए में बैठते तो
नीम भी बताशे बाँटती....।'
और
नीमवा तले हमरा जियरा जले
लिखो एक पाती मीठी सी.....।'
जब भी गुड़ी पड़वा पर अपनी जुबान पर नाजुक गुलाबी नीम पत्ती रखती हूँ तो बताशे का स्वाद भी उसी के साथ चला आता है। काश! हमारे रिश्तों की हर 'नीम' बताशे बाँटने लगे। क्या आपको कोई नीम याद आता है?