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उपचुनावों के आधार पर लोकसभा चुनाव आंकना भूल होगी

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डॉ. नीलम महेंद्र

19 मार्च को योगी आदित्यनाथ, उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में अपने कार्यकाल का 1 वर्ष पूर्ण कर रहे हैं। भारी बहुमत, जनता की अपेक्षाओं और आशीर्वाद के बीच यूपी के मुख्यमंत्री बनने के ठीक 1 साल बाद अपने प्रदेश के 2 लोकसभा क्षेत्रों के उपचुनाव में इस प्रकार के नतीजों की कल्पना तो योगी आदित्यनाथ और भाजपा तो छोड़िए, देश ने भी नहीं की होगी।


वो भी तब, जब अपने इस 1 साल के कार्यकाल में उन्होंने तमाम विरोधों के बावजूद यूपी के गुंडाराज को खत्म करने और वहां की बदहाल कानून व्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए एनकाउंटर पर एनकाउंटर जारी रखे। यहां तक कि एक रिपोर्ट के अनुसार एक बार 48 घंटों में 15 एनकाउंटर तक किए गए। वादे के अनुरूप सत्ता में आते ही अवैध बूचड़खाने बंद कराए। अपनी पहली कैबिनेट मीटिंग में किसानों के ऋणमाफी की घोषणा की। लड़कियों और महिलाओं की सुरक्षा के लिए एंटीरोमियो स्क्वॉड का गठन किया। अपनी सरकार में वीआईपी कल्चर खत्म करने की दिशा में कदम उठाए। यूपी के पेट्रोल पंपों पर चलने वाले रैकेट का भंडाफोड़ किया। प्रदेश को बिजली की बदहाल स्थिति से काफी हद तक राहत दिलाई। परीक्षाओं में नकल रुकवाने के लिए वो ठोस कदम उठाए कि लगभग 10 लाख परीक्षार्थी परीक्षा देने ही नहीं आए।

लेकिन इस सबके बावजूद जब उनके अपने ही संसदीय क्षेत्र में उपचुनाव के परिणाम विपरीत आते हैं तो न सिर्फ ये देशभर में चर्चा का विषय बन जाते हैं बल्कि संपूर्ण विपक्ष में एक नई ऊर्जा का संचार भी कर देते हैं। शायद इसी ऊर्जा ने चन्द्रबाबू नायडू को राजग से अलग होकर मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने के लिए प्रेरित किया होगा। खास बात यह है कि भाजपा की इस हार ने हर विपक्षी दल को भाजपा से जीतने की कुंजी दिखा दी, 'उनकी एकता की कुंजी'।

भाजपा के लिए समय का चक्र बहुत तेजी से घूम रहा है। जहां अभी कुछ दिनों पहले ही वाम के गढ़ पूर्वोत्तर के नतीजे भाजपा के लिए खुश होने का मौका लेकर आए, वहीं उत्तरप्रदेश और ख़ासतौर पर गोरखपुर के ताजा नतीजों के अगले कुछ पल उसकी खुशी में कड़वाहट घोल गए। इससे पहले भी भाजपा अपने ही गढ़ राजस्थान और मध्यप्रदेश के उपचुनावों में भी हार का सामना कर चुकी है।

सोचने वाली बात यह है कि इस प्रकार के नतीजे क्या संकेत दे रहे हैं? हालांकि एक या दो क्षेत्रों के उपचुनाव नतीजों को पूरे देश के राजनीतिक विश्लेषण का आधार नहीं बनाया जा सकता। लेकिन फिर भी ये नतीजे कुछ तो कहते ही हैं। कहने को कहा जा सकता है कि भाजपा का पारंपरिक वोटर वोट डालने नहीं गया और इसलिए कम वोटिंग प्रतिशत के कारण भाजपा पराजित हुई। लेकिन हार तो हर हाल में हार ही होती है और उसे जीत में बदलने के लिए अपनी हार और अपने विरोधी की जीत दोनों का ही विश्लेषण करना आवश्यक हो जाता है।

उत्तरप्रदेश की ही बात लें। क्या दो लोकसभा सीटों पर समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार की जीत उसकी बढ़ती हुई लोकप्रियता का संकेत है? जी नहीं, खुद अखिलेश इस बात को स्वीकार कर चुके हैं कि उनकी इस जीत में बसपा के वोटबैंक का पूरा योगदान है और वे अकेले अपने दम पर इसे हासिल नहीं कर सकते थे। दरअसल, बात भाजपा प्रत्याशियों के हारने की नहीं, उनकी हार में छिपे उस संदेश की है कि मुख्यमंत्री आदित्यनाथ और उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य अपनी छोड़ी सीट इसलिए हार गए, क्योंकि वे अपने ही संसदीय क्षेत्र के लोगों का दिल नहीं जीत पाए।

बात समाजवादी पार्टी और बसपा के गठबंधन की जीत की नहीं, बल्कि इस जीत में छिपे उस संदेश की है कि आज भी 'जाति की राजनीति' के आगे 'भ्रष्टाचार और विकास' कोई मुद्दा नहीं है। यह न सिर्फ कटु सत्य है, बल्कि दुर्भाग्य भी है कि इस देश में आज भी विकास पर जाति हावी हो जाती है। सत्ता के लालच के लिए जाति और वोट बैंक के गणित के आगे सभी दल अपने आपसी मतभेद, मान-अपमान के मुद्दे और दुश्मनी तक भुलाकर एक हो जाते हैं। जैसा कि अभी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पारित करने के लिए लोकसभा में वो सभी दल एकजुट हो गए, जो कि राज्यों में एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी हैं।

जैसे आंध्र की वाईएसआर कांग्रेस पार्टी और तेलुगुदेशम और पश्चिम बंगाल की तृणमूल कांग्रेस और माकपा। देश की राजनीति और लोकतंत्र के लिए इससे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण क्या हो सकता है कि ये सभी विपक्षी दल देश की जनता के सामने देशहित की कोई स्पष्ट नीति अथवा ठोस विचार रखे बिना केवल मात्र स्वयं को एकजुटता के साथ प्रस्तुत करके भी अपने-अपने वोट बैंकों के आधार पर आश्चर्यजनक परिणाम प्राप्त कर लेते हैं। लेकिन वोटिंग प्रतिशत और जातिगत आंकड़ों का विश्लेषण करके सत्ता तक पहुंचने का रास्ता खोजने वाले ये विपक्षी दल चुनावी रणनीति बनाते समय यह भूल जाते हैं कि देश का वोटर आज समझदार हो चुका है। वो उस ग्राउंड रिपोर्टिंग को नजरअंदाज करने की भूल कर रहे हैं कि देश की जनता भाजपा के स्थानीय नेताओं और ढुलमुल रवैये से मायूस है, जो इन नतीजों में सामने आ रही है लेकिन 'मोदी ब्रांड' पर उसका भरोसा और मोदी नाम का आकर्षण अभी भी कायम है।

आज चुनाव जीतने के लिए वोटर और जातिगत आंकड़ों से ज्यादा महत्वपूर्ण उसका मनोविज्ञान समझना और उससे जुड़ना है। और इसमें कोई दोराय नहीं कि आज भी देश के आम आदमी के मनोविज्ञान और भरोसे पर मोदी ब्रांड की पकड़ बरकरार है। जब बात देश की आती है तो इस देश के आम आदमी के सामने आज भी मोदी का कोई विकल्प नहीं है। इसलिए चुनावी पंडित अगर वोटर के मनोवैज्ञानिक पक्ष को नजरअंदाज करेंगे तो यह उनकी सबसे बड़ी भूल होगी। आगामी लोकसभा चुनावों की बिसात बिछाते समय विपक्ष इस बात को न भूले कि 'ये पब्लिक है, ये सब जानती है'।

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