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कब आएगा नदियों की नेटवर्किंग का स्वर्णयुग

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शरद सिंगी

प्रत्येक वर्ष मानसून में भारतवासी अच्छे मानसून की कामना करते हैं किन्तु हवाओं के रुख पर किसी का वश नहीं।  कहीं पर अतिवृष्टि हो जाती है तो कहीं अनावृष्टि। आम आदमी के पास केवल ऊपर वाले से प्रार्थना करने के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है। भारत सरकार ने खाद्य सुरक्षा पर तो काफी प्रगति की है किन्तु जल सुरक्षा पर अभी तक केवल बातें ही हुई हैं। कुछ वर्षों पहले तक हमारे पास उपाय तो थे किन्तु साधन नहीं थे। आज उपाय भी हैं और साधन भी किन्तु दुःख की बात है कि पानी जैसी मनुष्य की मूलभूत आवश्यकता राजनीतिक दांव पेंचों में उलझ कर रह गई है। 
 
भारतीय नदियों को आपस में जोड़कर नदियों का एक जाल बनाने की बात हम पिछले कुछ दशकों से सुनते आ रहे हैं। आज़ाद भारत में सत्तर के दशक में सर्वप्रथम तत्कालीन सिंचाई मंत्री डॉ के एल राव ने उत्तर भारत की नदियों को मध्य भारत की नदियों से जोड़ने की सलाह दी थी। 1980 में एक रिपोर्ट भी बनी जिसे कांग्रेस सरकार ने अस्वीकृत कर दिया था।  उसके बाद तो राष्ट्रीय जल विकास निगम ने एक के बाद कई रिपोर्टें प्रस्तुत की किन्तु सब ठन्डे बस्ते में चली गईं।
 
हम सब जानते हैं कि भारत में पर्याप्त वर्षा होती है। समस्या केवल यह है कि 85 प्रतिशत वर्षा केवल बारिश के तीन से चार महीनों के बीच ही होती है और पूरे देश में एक समान नहीं होती। पर्याप्त रोकथाम और भंडारण की व्यवस्था न होने से अधिकांश जल समुद्र में चला जाता है। जल संरक्षण के लिए भारत के पास जो सुविधाएँ हैं, जनसँख्या वृद्धि के कारण अब वे कम पड़ने लगी हैं। यदि आप राष्ट्रीय जल विकास प्राधिकरण की साइट पर जाकर देखें तो उसमें राष्ट्रीय नदियों के विकास की पूरी योजना जो सरकार के सामने है उसे समझा जा सकता है। यह योजना दो भागों में विभक्त है। पहली हिमालय से जुड़ी नदियों का विकास। इस योजना के अंतर्गत गंगा और ब्रह्मपुत्र  की प्रमुख सहायक नदियों पर भंडारण जलाशयों का निर्माण करने की परिकल्पना है, साथ ही गंगा नदी की पूर्वी सहायक नदियों को पश्चिम की ओर मोड़ना, ब्रह्मपुत्र की सहायक नदियों को गंगा से जोड़ना और गंगा को महानदी नदी से जोड़ना इत्यादि का प्रस्ताव भी इस योजना में है। 
 
दूसरा भाग है दक्षिण प्रायद्वीप में नदियों का विकास और उनका जाल । इसे फिर चार भागों में विभक्त किया गया है। पहले भाग में  महानदी-गोदावरी-कृष्णा-कावेरी नदियों को जोड़ना और उनकी घाटियों में संभावित स्थलों पर जल भंडारण। इस योजना के तहत महानदी और गोदावरी का पानी कृष्णा और कावेरी के माध्यम से दक्षिण के जरूरतमंद इलाकों में स्थनान्तरित कर दिया जायेगा। दूसरे भाग में पश्चिम की ओर बहने वाली नदियाँ जो  मुंबई के उत्तर और तापी नदी के दक्षिण में हैं उन्हें जोड़ा जायेगा।
 
पानी के भण्डारण और मुंबई के महानगरीय क्षेत्रों में जल आपूर्ति के लिए नहर बनाने का प्रस्ताव है वहीं यह योजना महाराष्ट्र के तटीय क्षेत्रों में सिंचाई की व्यवस्था भी करती है। तीसरे भाग में केन और चंबल नदी को जोड़ने की योजना है जो मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश के लिए जल ग्रिड प्रदान करेगी और जितना संभव हो उतने भंडारों का निर्माण और नहरों का निर्माण। अंतिम भाग में पश्चिम  की ओर बहने वाली अन्य नदियों की दिशा में परिवर्तन। पश्चिमी घाट के पश्चिमी तरफ उच्च वर्षा वाला इलाका है जहाँ से कई धाराएँ निकलकर अरब सागर में मिलती हैं। इन धाराओं को जोड़कर पर्याप्त भण्डारण की व्यवस्था और फिर नहरों का जाल बिछाकर केरल की पानी की जरूरतों को पूरा करने का प्रस्ताव इस योजना में है। सूखे की स्थिति में पानी को जरुरत के क्षेत्रों में भी भेजा जा सकेगा।    
 
इन सभी योजनाओं की प्रमुख बात यह है कि पानी की दिशा में परिवर्तन ऊपर से नीचे की ओर होगा याने पानी गुरुत्वाकर्षण बल से ही बहेगा।  बहुत कम जगह पर ही पानी को ऊपर उठाना पड़ेगा और उसकी ऊंचाई 120 मीटर से अधिक नहीं होगी। इस तरह नदियों का नेटवर्किंग यदि कर दिया जाता है तो भारत की अनेक समस्याओं का समाधान निकल आएगा। लाखों हेक्टेयर जमीन को सिंचाई की सुविधा में लाया जा सकेगा।  खाद्य और जल सुरक्षा के अतिरिक्त जंगलों को पर्याप्त पानी मिलेगा। भूजल का स्तर बढ़ेगा। जलवायु को लाभ मिलेगा। अतिवृष्टि में पानी को मोड़ा जा सकेगा और उससे होने वाले नुकसान को कम किया जा सकेगा वहीं अनावृष्टि की मुसीबतों  को कम किया जा सकेगा। 40000 मेगा वाट तक बिजली का उत्पादन किया जा सकता है जो प्रदूषण रहित ऊर्जा  स्रोत है।
 
वर्तमान सरकार निर्णय लेने में सक्षम है और यदि मोदीजी की चाह ने अपनी राह पकड़ी तो हिमालय और दक्षिण प्रायद्वीप की नदियों को जोड़ने  के लिए तीस विशाल नहरों  और तीन हज़ार बांधों का निर्माण कार्य शीघ्र प्रारम्भ होगा। वे  गुजरात में नर्मदा का पानी साबरमती में लाकर लगभग मृतप्राय साबरमती को पुनः जीवित कर चुके हैं। इस वर्ष प्रकृति ने भी अपना विकराल रूप दिखाकर ढील न देने की चेतवानी तो दी है। 

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