आबादी के कोई 16 प्रतिशत (या लगभग 22 करोड़) मुसलमानों को इस सचाई का पता चलने में 75 साल लग गए कि भाजपा ही नहीं, किसी भी प्रमुख राजनीतिक दल को अब राष्ट्रीय स्तर पर उनकी ज़रूरत नहीं बची है। मुसलमानों का यह भ्रम ध्वस्त कर दिया गया है कि कोई भी दल उनके वोटों के बिना सरकार नहीं बना सकता।
सर्वोच्च संवैधानिक पदों (राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति) के लिए उम्मीदवारों की घोषणा होने तक मीडिया द्वारा प्रचार किया जा रहा था कि 2 में से किसी 1 पद के लिए भाजपा किसी मुस्लिम नेता को एनडीए का उम्मीदवार बना सकती है।
द्रौपदी मुर्मू के नाम की घोषणा के बाद ऐसी अटकलें तेज़ हो गईं थीं कि केरल के राज्यपाल आरिफ़ मोहम्मद खान या पूर्व केंद्रीय मंत्री मुख़्तार अब्बास नक़वी को एनडीए की ओर से उपराष्ट्रपति पद का प्रत्याशी बनाया जा सकता है। ऐसा करके भाजपा करोड़ों मुसलमानों को खुश करने का काम कर सकती है।
ये अटकलें इस हक़ीक़त के बीच भी जारी रहीं कि भाजपा के पास संसद के दोनों सदनों में अब नाम के लिए भी कोई मुस्लिम सांसद नहीं बचा है। यूपी सहित अन्य भाजपा-शासित राज्यों में भी मुस्लिम विधायकों को लेकर ऐसी ही स्थिति है। भाजपा ने जगदीप धनखड़ के नाम की घोषणा करके मुस्लिम 'तुष्टिकरण' की संभावनाओं पर अंतिम रूप से विराम लगा दिया। यानी न वोट चाहिए, न उम्मीदवारी चाहिए!
किसी ने सवाल नहीं उठाया कि भाजपा द्वारा किसी मुस्लिम को उम्मीदवार नहीं बनाया जाना तो समझ में आता है पर कांग्रेस, तृणमूल और समाजवादी पार्टी सहित बाक़ी विपक्षी दलों ने भी ऐसा ही क्यों किया? उन्होंने मार्गरेट अल्वा की जगह किसी मुस्लिम उम्मीदवार की तलाश क्यों नहीं की? क्या विपक्षी दलों को भी भाजपा की तरह मुसलमानों की ज़रूरत नहीं बची है? उन्हें भी क्या सिर्फ़ हिन्दू वोट चाहिए?
इन्हीं विपक्षी दलों ने अगस्त 2007 से 2017 तक 2 कार्यकालों के लिए मोहम्मद हामिद अंसारी को उपराष्ट्रपति बनवाया था। उनके पहले 2002 से 2007 तक एपीजे अब्दुल कलाम राष्ट्रपति चुने गए थे। तब प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी थे।
पिछले साल हुए विधानसभा चुनावों तक ममता को पश्चिम बंगाल के 27 प्रतिशत मुस्लिमों की सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी। भाजपा ने ममता को हराने के लिए राज्य के मतदाताओं को 70-27 में विभाजित कर दिया था। मुस्लिम मतदाताओं ने तब भाजपा को हराने के लिए कांग्रेस-माकपा-(मुस्लिम संगठन) इंडियन सेकुलर फ़्रंट के गठबंधन को नकार ममता को बिना शर्त समर्थन दिया था।
अब मुस्लिम मतदाताओं की नाराज़गी की परवाह न करते हुए हुए ममता की पार्टी ने घोषणा कर दी है कि उसके सांसद और विधायक उपराष्ट्रपति चुनाव में मतदान से अनुपस्थित रहेंगे यानी तृणमूल कांग्रेस विपक्ष के बजाय भाजपा के उम्मीदवार की जीत सुनिश्चित करेगी (मार्गरेट अल्वा ने ममता के निर्णय की आलोचना करते हुए उनसे पुनर्विचार की अपील की है।)
देश को जानकारी है कि प. बंगाल में राज्यपाल-पद पर कार्यकाल के दौरान धनखड़ और ममता के बीच संबंध कितने तनावपूर्ण हो गए थे। संवैधानिक अधिकारों को लेकर दोनों में तनाव इतना बढ़ गया था कि ममता ने राज्यपाल के स्थान पर स्वयं को समस्त विश्वविद्यालयों का कुलाधिपति नियुक्त कर लिया था।
आश्चर्यजनक रूप से पिछले दिनों दार्जीलिंग में धनखड़ और असम के भाजपा मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा के साथ हुई बैठक के बाद ममता का एकाएक हृदय परिवर्तन हो गया और फिर पूरे विपक्ष को चौंकाते हुए उन्होंने उपराष्ट्रपति चुनाव में मतदान से अनुपस्थित रहने का फ़ैसला सुना दिया। दार्जीलिंग बैठक क्यों हुई और उसमें क्या हुआ? उसके बारे में ममता ने देश को कोई जानकारी नहीं दी।
महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे के विद्रोही गुट ने जब यह आरोप लगाया कि शिवसेना ने बाला साहब के हिन्दुत्व को छोड़ दिया है तो असंतुष्टों को मनाने के लिए उद्धव ने यह तर्क नहीं दिया कि उनकी पार्टी अब धर्मनिरपेक्ष हो गई है। उद्धव ने बहुसंख्यकवाद का कार्ड ही खेला कि शिवसेना ने अपनी कट्टर हिन्दुत्व की विचारधारा को न तो छोड़ा है और न छोड़ेगी। शिवसेना के विद्रोही सांसदों के दबाव में उद्धव विपक्षी दलों के संयुक्त उम्मीदवार यशवंत सिन्हा के ख़िलाफ़ भाजपा का साथ देने को भी तैयार हो गए। एमवीए गठबंधन में शामिल कांग्रेस और एनसीपी ने भी उद्धव के कदम का विरोध नहीं किया।
कांग्रेस सहित तमाम विपक्षी दल यही प्रचार करते रहे हैं कि अल्पसंख्यकों की विरोधी तो सिर्फ़ भाजपा है, बाक़ी पार्टियां तो धर्मनिरपेक्षता में यक़ीन करती हैं। नागरिकता संशोधन अधिनियम के ख़िलाफ़ शाहीनबाग में चले लंबे महिला आंदोलन तथा दिल्ली दंगों के दौरान कांग्रेस और आम आदमी पार्टी की भूमिका में उनकी धर्मनिरपेक्षता की पोल भी खुल गई।
सर्वोच्च संवैधानिक पदों पर चुनावों को लेकर चला हाल का घटनाक्रम अगर कोई संकेत है तो अल्पसंख्यकों के लिए ज़्यादा बड़ा ख़तरा भाजपा की सांप्रदायिकता के बजाय विपक्षी दलों की नक़ली धर्मनिरपेक्षता बन गई है। विपक्षी दल भी अपने अस्तित्व के लिए अब भाजपा की तरह ही बहुसंख्यकवाद की राजनीति को बढ़ावा दे रहे हैं।
सवाल यह है कि 2024 के लोकसभा चुनावों में प. बंगाल के तीन-साढ़े तीन करोड़ मुसलमान भी अगर यह तय कर लेते हैं कि वे मतदान से अनुपस्थित रहेंगे तो फिर ममता और उनके उत्तराधिकारी भतीजे अभिषेक की राजनीति का क्या भविष्य क्या बनेगा?
सोचने के लिए सवाल यह भी है कि भाजपा अगर धनखड़ की जगह आरिफ़ मोहम्मद खान या नकवी को उपराष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बना देती तो उस स्थिति में विपक्ष क्या करता? दूसरी ओर, विपक्षी दल अगर अल्वा के स्थान पर किसी मुस्लिम को खड़ा कर देते तब भी क्या ममता एनडीए की मदद के लिए मतदान से अनुपस्थित रहने का फ़ैसला करतीं?
राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति पद के चुनावों ने मुस्लिमों को लेकर भाजपा और विपक्ष दोनों की हक़ीक़त उजागर कर दी है। गेंद अब मुस्लिमों के पाले में है। तय उन्हें करना है कि वे अब अपना संरक्षण किस दल में तलाश करेंगे? इस सवाल के जवाब में कि क्या भाजपा को अल्पसंख्यकों की ज़रूरत नहीं है, नितीश सरकार में भाजपा के (देशभर में) इकलौते मुस्लिम कैबिनेट मंत्री शाहनवाज़ हुसैन का एक अख़बार को कहना था कि : 'हम कभी धर्म-जमात नहीं देखते। हमारे नेता नरेंद्र मोदी की नज़र 130 करोड़ हिन्दुस्तानी देखती है। एक मुल्क, एक नज़र।' क्या सारे मुसलमान ऐसी ही सोच रखते हैं?
(इस लेख में व्यक्त विचार/ विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/ विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई जिम्मेदारी नहीं लेती है।)